Read this article in Hindi to learn about the top six theories of motivation. The theories are: 1. Z Theory of Urwick 2. Monistic Theory of Motivation 3. McClelland’s Learned Need Theory 4. Porter-Lawler Model of Performance and Satisfaction 5. Likert’s Approach 6. Goal Setting Theory.   

Theory # 1. उर्विक का जैड सिद्धान्त (Z Theory of Urwick):

मैकग्रेगर के एक्स तथा वाई सिद्धान्त के बाद अनेक विद्वानों ने जैड सिद्धान्त विकसित करने का प्रयास किया । उदाहरण के लिए, एल. उर्विक के द्वारा प्रत्येक प्रबन्धक ने प्राथमिक कार्यों के बारे में ये विचार दिए कि प्राथमिक कार्यों में उस कीमत पर सुविधाओं व सेवाओं का बनाना और कार्य-चेतना शामिल है, जिस कीमत पर उपभोक्ता उसे खरीदने को तैयार है और यह अन्तिम लक्ष्य है जिसके अनुसार प्रत्येक प्रबन्धक को प्रयास करना चाहिए ।

प्रत्येक व्यक्ति अपने व्यवहार को संगठन के लक्ष्यों की ओर निम्नलिखित दो दशाओं के अन्तर्गत निर्देशित करने को तैयार रहेगा:

(i) प्रत्येक व्यक्ति को संगठन के लक्ष्य संक्षेप में ज्ञात होंगे तथा वह संगठन में क्या योगदान देगा ।

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(ii) प्रत्येक व्यक्ति संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विश्वासपूर्ण होना चाहिए और इससे उसकी आवश्यक संतुष्टि धनात्मक रूप से प्रभावित होगी । और संगठन के सदस्य के रूप में उसकी कोई भी आवश्यकता ऐसी नहीं होगी जो पूरी न हो ।

प्रत्येक प्रबन्धक जो इस प्रकार से कार्य करेगा वह कर्मचारियों को अभिप्रेरित कर लेगा और इस प्रकार के प्रबन्धकीय व्यवहार को हम जैड सिद्धान्त कहेंगे । निःसंदेह उपरोक्त रूप से कही गई बात सत्य है, लेकिन ये कोई नये विचार नहीं हैं, ऐसे विचार कई सिद्धान्तों में आ चुके हैं ।

बर्नार्ड का अधिकार स्वीकृति का सिद्धान्त, संवहन के आधारभूत उद्देश्य पर आधरित है और वह है सन्देश को स्वीकार करना तथा इसका पालन करना । जैड सिद्धान्त के सम्बन्ध में व्यक्तियों ने अपने विचार दिए हैं । इनमें विलियम ओची द्वारा दिया गया जैड सिद्धान्त सबसे अधिक आकर्षित करता है ।

इस सन्दर्भ में यह महत्वपूर्ण है कि यहाँ जैड का आशय किसी से नहीं है । यह अंग्रेजी शब्दावली का अन्तिम शब्द है और मैकग्रेगर के एक्स तथा वाई सिद्धान्त के बाद इस शब्द का प्रयोग किया गया है ।

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जैड सिद्धान्त की अग्रलिखित चार मान्यताएँ (Postulates) मानी गई हैं:

(i) संगठन तथा कर्मचारियों के बीच दृढ़ सम्बन्ध होते हैं । इस दृष्टि से ओची ने कर्मचारियों के पूरे जीवन रोजगार देने का सुझाव दिया है । जापानी संगठनों में इसी प्रकार की व्यवस्था की जाती है । इससे संगठन में स्थिरता आती है ।

संगठन में गतिशीलता लाने के लिए कर्मचारियों के भविष्य के बारे में एक निश्चित योजना बनाई जानी चाहिए, जिसमें उचित प्रेरणाओं का समावेश होना चाहिए ।

(ii) जैड सिद्धान्त में कर्मचारियों को संगठन के कार्यों में पूर्ण रूप से शामिल करने की बात कही जाती है । इसका आशय है कि निर्णय लेने में प्रबन्ध की सहभागिता होनी चाहिए । जो निर्णय कर्मचारियों को प्रभावित करते हैं वे तो अनिवार्य रूप से कर्मचारियों के साथ मिलकर लिए जाने चाहिए ।

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(iii) जैड सिद्धान्त में यह माना जाता है कि संगठन के लिए कोई औपचारिक संरचना नहीं होनी चाहिए और संगठन को एक पूर्ण टीम के रूप में सहयोग के साथ कार्य करना चाहिए अत: अनौपचारिक संगठन संरचना पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए ।

(iv) जैड सिद्धान्त में नेता की भूमिका एक समन्वयकर्ता के रूप में बताई गई है । दूसरे शब्दों में उसे संगठन के सभी मानवीय प्राणियों के बीच उचित समन्वय स्थापित करने के लिए उनके लिए आदेश की साझेदारी का प्रयोग करना चाहिए ।

जैड सिद्धान्त कर्मचारियों के प्रेरणात्मक पहलू के लिए एक उचित सूचना प्रदान करता है । यह केवल प्रेरणात्मक तकनीक ही नहीं है बल्कि इसमें विभिन्न प्रबन्धकीय तकनीकों को भी शामिल किया गया है ।

जैड सिद्धान्त में प्रबन्ध की जापानी तकनीकों को महत्व दिया गया है । हमारे देश में ”मारुति उद्योग लिमिटेड” द्वारा प्रबन्ध की जापानी विधियों को प्रयोग में लाने का प्रयास किया जा रहा है ।

Theory # 2. अभिप्रेरण की एकात्मक विचारधारा (Monistic Theory of Motivation):

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इस विचारधारा के समर्थकों की धारणा है कि व्यक्ति एक ही उद्देश्य के लिए कार्य करता है और वह है- ”अधिक से अधिक धन की प्राप्ति ।” यह विचारधारा एकात्मक (Monistic) है, क्योंकि यह मुद्रा या धन को ही मानवीय व्यवहार का आधार मानती है ।

इस विचारधारा की मान्यता है कि यदि व्यक्ति को अधिक वेतन दिया जाता है तो वह अधिक परिश्रम करता है । इस विचारधारा के अनुसार यदि व्यक्ति के वेतन का सम्बन्ध उसके परिश्रम से कर दिया जाए तो उसके प्रयासों में निश्चय ही वृद्धि होगी अर्थात् व्यक्ति अधिक धन की प्राप्ति के लिए अधिक कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होगा ।

समूह प्रेरणा की तुलना में व्यक्तिगत प्रेरणा अधिक प्रभावी सिद्ध होती है । समूह प्रेरणा में एक व्यक्त द्वारा किए गए अधिक प्रयासों से प्राप्त लाभ में सभी व्यक्ति भाग प्राप्त करते हैं, अत: व्यक्तिगत प्रेरणा समाप्त हो जाती है ।

प्रत्येक कर्मचारी द्वारा किए गए कार्य के पारिश्रमिक का शीघ्र भुगतान उसे अधिक कार्य करने के लिए प्रेरित करता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है । अतिरिक्त उत्पादन का जितना अधिक पारितोषिक होगा उतना ही कर्मचारियों को अधिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा ।

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उनके ही अनुसार इस सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए एफ. डब्लू. टेलर (F. W. Taylor) ने विभेदात्मक मजदूरी प्रणाली (Differential Piece Rate System) को अपनाने का सुझाव दिया ।

अभिप्रेरण की यह विचारधारा व्यक्ति को ”आर्थिक मनुष्य” (Economic Man) मानकर चलती है लेकिन यह विचारधारा सर्वथा उचित नहीं है क्योंकि व्यक्ति मात्र मुद्रा की प्राप्ति के लिए ही कार्य नहीं करता अपितु अपनी अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी कार्य करता है ।

अभिप्रेरण एवं मनोबल के सम्बन्ध में किए गए अनेक अध्ययनों ने यह स्पष्ट कर दिया कि व्यक्ति मौद्रिक अभिप्रेरण योजनाओं से अधिक कार्य करने के लिए अभिप्रेरित नहीं होता अपितु शारीरिक, सुरक्षात्मक, सामाजिक, स्वाभिमान और आत्मविकास की आवश्यकताओं की पूर्ति योजनाओं से अधिक प्रभावित होता है ।

यह सत्य है कि व्यक्ति चाहे आर्थिक व्यक्ति हो या न हो लेकिन जब तक मुद्रा उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम बनी रहेगी तब तक वह ”अधिक मुद्रा” के लिए प्रयत्नशील रहेगा । अत: मौद्रिक अभिप्रेरण योजनाओं को बिल्कुल महत्वहीन नहीं समझना चहिए ।

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इस विचारधारा की प्रमुख मान्यताएँ निम्न हैं:

(i) यह व्यक्ति को ‘आर्थिक मनुष्य’ (Economic Man) मानती है जिसका आशय है कि वह मात्र मौद्रिक लाभ के लिए ही कार्य करता है ।

(ii) सामूहिक प्रेरणा की अपेक्षा व्यक्तिगत प्रेरणा अधिक प्रभावी रहती है ।

(iii) मौद्रिक पारितोषकों में वृद्धि से व्यक्ति के कार्य प्रयासों में भी वृद्धि सम्भव होती है ।

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(iv) कर्मचारियों को पारिश्रमिक का शीघ्र भुगतान अधिक कार्य के लिए प्रेरित करता है ।

(v) अतिरिक्त उत्पादन के लिए अधिक पारितोषिक का भुगतान कर्मचारी को अधिक कार्य के लिए प्रेरित करेगा ।

Theory # 3. मैक्लेलैण्ड का प्रकट या अर्जित आवश्यकता सिद्धान्त (McClelland’s Learned Need Theory):

हावर्ड विश्वविद्यालय के डेविड मैक्लेलैण्ड ने जॉन अटकिन्सन तथा अन्य के साथ मिलकर 1948 में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया । यह सिद्धान्त मर्रे के आवश्यकता सिद्धान्त में विश्वास रखता है । मर्रे ने लगभग दो दर्जन से अधिक आवश्यकताओं को परिभाषित किया ।

उनका विश्वास था कि अधिकांश आवश्यकतायें जन्मजात उत्पन्न होती हैं । आवश्यकतायें तभी लागू होती हैं जबकि बाहरी वातावरण की दशाएँ भी अनुकूल हों, ये आवश्यकताएँ एक दूसरे से भिन्न भी हो सकती हैं ।

1948 के उपरान्त मैक्लेलैण्ड का यही प्रयास रहा कि प्राप्ति के लिए आवश्यकताओं की खोज की जाये । काफी खोजबीन के उपरान्त इन्होंने तीन ऐसी प्रमुख आवश्यकताओं को वर्णित किया जो किसी व्यक्ति को कार्य करने के लिए अभिप्रेरित करती हों ।

ये आवश्यकतायें निम्न प्रकार हैं:

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(i) उपलब्धि के लिए आवश्यकता (Needs for Achievement):

बाहरी प्रतिस्पर्धात्मक परिस्थितियों का सामना करने के लिए उपलब्धि प्राप्त करना अति आवश्यक है । इसके लिए अनेक प्रमाप निर्धारित करने पड़ते हैं । उपलब्धि किसी एक साधन से सम्भव नहीं है, इसके लिए अनेक तत्वों को ध्यान में रखना पड़ता है, व्यक्तिगत रूप से तथा सामूहिक रूप से विचार करना पड़ता है ।

श्रेष्ठ बनने के लिए इच्छा, प्रमाणकों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करने के लिए प्रयत्न करना आवश्यक है । समाधान करने के लिए अपने-अपने उत्तरदायित्व को पूरा करना पड़ता है ।

आधुनिक प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए उद्देश्यों को इस प्रकार लेकर चलना पड़ता है कि उनका समाधान न तो ज्यादा कठिन हो और न सरल उद्देश्यों को पूरा करने हेतु तथा उपलब्धि को प्राप्त करने के लिए इस प्रकार का विश्वास उत्पन्न करना पड़ता है कि कमियों को दूर किया जा सके ।

उपलब्धि प्राप्त करने के लिए उन्हें कर्म पर विश्वास रखना पड़ता है न कि भाग्य पर । भाग्य के भरोसे छोड़कर किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं की जा सकती । उनका मुख्य आकर्षण उपलब्धि की तरफ होता है, धन की तरफ नहीं । धन तो उनके लिए उपलब्धि का केवल एक साधन मात्र होता है । उन्हें आवश्यकता होती है कार्य में स्वतन्त्रता एवं नियन्त्रण की ।

मैक्लेलैण्ड ने उपलब्धि के लिए आवश्यकता को महत्वपूर्ण माना है । उपक्रम ही आर्थिक विकास के मुख्य आधार होते हैं । वे देश जो कि उपलब्धि के क्षेत्र में आगे रहे हैं- जापान, पश्चिमी यूरोप तथा यू. एस. ए. हैं ।

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मैक्लेलैण्ड ने आर्थिक विकास के कारणों का महत्वपूर्ण अध्ययन किया तथा ऐसे कारणों का पता लगाया जो कि उपलब्धि तथा आर्थिक विकास के लिए उत्तरदायी हैं । इस क्षेत्र में एशिया, अफ्रीका तथा लेटिन अमरीका विकसित देश हैं ।

(ii) शक्ति के लिए आवश्यकता (Need for Power):

अन्य व्यक्तियों, दशाओं पर इस प्रकार नियन्त्रण करना कि शक्ति की इच्छा उत्पन्न हो सके । अन्य व्यक्तियों को ऐसा व्यवहार करने के लिए अभिप्रेरित करना अथवा उनके अन्दर ऐसी इच्छा उत्पन्न करना जैसा व्यवहार वे अन्यथा नहीं कर पाते ।

इसके अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है- विभिन्न संसाधनों पर नियन्त्रण प्राप्त करने की योग्यता, जो कि शक्ति के संसाधन हों जैसे- सूचना, ज्ञान, धन इत्यादि ।

परन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें नेतृत्व, राजनीतिक, कानूनी, व्यवसाय तथा शिक्षा जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है । अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने की शक्ति का होना नितान्त आवश्यक है ।

मैक्लेलैण्ड का कहना है कि संगठनों में प्रबन्धकीय व्यवहार के बारे में स्पष्ट रूप से वर्णन किया जाना चाहिए । प्रबन्धकगण को अपने अधिकारों का प्रयोग दूसरों के द्वारा किये गये कार्यों, निर्णय लेने, संसाधनों का उपयोग करने तथा घटनाओं को प्रभावित करने में करना पड़ता है ।

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(iii) सम्बद्धता के लिए आवश्यकता (Needs for Affiliation):

मैत्रीपूर्ण तथा निकटतम अन्त: कर्मचारी सम्बन्धों के लिए इच्छा पर भी मैक्लेलैण्ड ने प्रकाश डाला । ऐसे व्यक्ति जिन्हें सम्बद्धता की अधिक आवश्यकता हो पारस्परिक सम्बन्धों, सामाजिक सम्बन्धों तथा मित्रता पर प्रकाश डालना होता है । सम्बद्धता का आशय ही एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करना होता है ।

इसमें उन आवश्यकताओं पर अधिक प्रकाश डाला जाता है जो कि दूसरों को पसन्द हों सम्बद्धता की आवश्यकता प्रबन्धकों के लिए आवश्यक भी हो सकती है व नहीं भी । प्रबन्धकों को सम्बद्धता की आवश्यकता अपने अधीनस्थों, साथियों के लिए हो सकती है ।

मैक्लेलैण्ड ने विस्तार सम्बन्धी व्यक्तित्व परीक्षण के द्वारा उपरोक्त अभिप्रेरणाओं के सामर्थ्य को विभिन्न व्यक्तियों में मापा । मैक्लेलैण्ड के अनुसार कुछ व्यक्तियों में उपलब्धियों की तीव्र इच्छा होती है तथा वे किसी भी स्थिति में सर्वोत्कृष्ट से कम को स्वीकार नहीं करते हैं ।

उच्च महत्वाकांक्षी भारी जोखिम वहन करते हैं तथा वे तब तक संतुष्ट नहीं हो पाते जब तक कि उन्होंने कार्य की पूर्णता के लिए अधिकतम प्रयास नहीं किया हो ।

द्वितीय श्रेणी के व्यक्ति अर्थात् ऐसे व्यक्ति जिन्हें सम्बद्धता या सम्बन्ध की अत्यधिक आवश्यकता होती है, प्रेम से उत्पन्न होने वाले सुख की इच्छा करते हैं तथा वे घृणा किए जाने वाले कार्य से उत्पन्न होने वाले दु:ख से बचने का प्रयास करते हैं । तृतीय श्रेणी के व्यक्ति जिन्हें शक्ति की अत्यधिक आवश्यकता होती है, प्रभाव तथा नियन्त्रण करने के इच्छुक होते हैं ।

Theory # 4. पोर्टर-लॉलर का निष्पादन सन्तुष्टि मॉडल (Porter-Lawler Model of Performance and Satisfaction):

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यह मॉडल व्रुम के प्रत्याशा मॉडल में एक सुधार है । पोर्टर एवं लॉलर की मान्यता है कि अभिप्रेरण (प्रयास या शक्ति) सन्तुष्टि एवं/अथवा निष्पादन के समान नहीं है । अभिप्रेरण, सन्तुष्टि एवं निष्पादन तीनों अलग-अलग हैं तथा जिनमें परम्परागत ढंग से वर्णित सम्बन्ध नहीं होता है ।

इन तीनों में एक जटिल सम्बन्ध होता है जिसमें योग्यता व गुणों तथा भूमिका अवबोध आदि घटकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । इस मॉडल को व्यापक तौर पर व्यावहारिक रूप में लागू किया गया है । यह एक Multi-Variety मॉडल है जो उन सम्बन्धों का वर्णन करता है जो Job Attitudes तथा Job Performance के बीच विद्यमान होता है ।

इस मॉडल की निम्नलिखित चार मान्यताएं हैं:

(i) व्यक्तिगत व्यवहार व्यक्ति में तथा परिवेश में घटकों के संयोजन द्वारा निर्धारित होता है ।

(ii) व्यक्तियों को विवेकशील प्राणी माना जाता है जो संगठन में उनके व्यवहार के बारे में सचेत निर्णय लेते हैं ।

(iii) वास्तव में कम्पनियों की अलग-अलग आवश्यकताएँ, अपेक्षाएँ तथा लक्ष्य होते हैं ।

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(iv) अपनी प्रत्याशा के आधार पर व्यक्ति वैकल्पिक व्यवहार के बीच निर्णय लेते हैं तथा ऐसा निर्णीत व्यवहार अपेक्षित परिणाम की ओर ले जायेगा ।

इस मॉडल की प्रमुख बातें निम्न हैं:

(i) यह प्रत्याशा पर आधारित अभिप्रेरण की विचारधारा है ।

(ii) यह ”प्रत्युत्तर-परिणाम सम्बन्धों” के पूर्वानुमान पर बल देता है ।

(iii) यह मुख्यत: संज्ञानात्मक अवधारणाओं जैसे मूल्य, शक्ति, अवबोध आदि पर आधारित है ।

(iv) यह विवेकशीलता एवं प्रत्याशाओं पर बल देता है ।

(v) यह बहु-घटक मॉडल है ।

(vi) इसके अनुसार ”अच्छे निष्पादन से सन्तुष्टि में वृद्धि होती है ।”

पोर्टर-लॉलर मॉडल के घटक (Variables in the Model):

इस मॉडल के प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं:

(1) प्रयास (Effort):

”प्रयास” से आशय एक निर्धारित कार्य पर कर्मचारी द्वारा लगाये गए श्रम की मात्रा से है, लेकिन प्रयास निष्पादन नहीं है । प्रयास का सम्बन्ध निष्पादन की अपेक्षा अभिप्रेरण से अधिक है । इस मॉडल के अनुसार प्रयास की मात्रा ‘पुरस्कार के मूल्य’ तथा “अवबोधित प्रयास-पुरस्कार सम्भाव्यता” के अन्तव्यवहार पर निर्भर करती है ।

प्रयास का आशय व्रुम द्वारा प्रयुक्त ”शक्ति” शब्द के पर्यायवाची जाना जा सकता है । पुरस्कार का मूल्य पुरस्कार के आकर्षण की सीमा तथा वांछनीयता पर निर्भर करता है । प्रत्येक व्यक्ति पुरस्कार को अपने दृष्टिकोण से महत्व देता है । जैसे कोई कर्मचारी पदोन्नति को कम महत्व दे सकता है क्योंकि इससे उसके दायित्वों अथवा असुरक्षा में वृद्धि हो सकती है ।

(2) निष्पादन (Performance):

निष्पादन वे ”व्यावहारिक परिणाम” हैं जिनका एक संगठन द्वारा निष्पक्ष रूप से मापन किया जाता है । प्रयास निष्पादन के पूर्व होते हैं । निष्पादन प्रयासों की मात्रा पर ही निर्भर नहीं होता है, वरन् दो अन्य घटकों-

(i) व्यक्ति की योग्यता एवं गुणों तथा

(ii) भूमिका अवबोध अर्थात् कार्य भूमिका को देखने व निष्पादित करने के ढंग पर ही निर्भर करता है ।

(3) पुरस्कार (Rewards):

इस मॉडल में पोर्टर एवं लॉलर ने पुरस्कार को दो भागों- आन्तरिक पुरस्कार (Intrinsic Rewards) तथा बाह्य पुरस्कार (Extrinsic Rewards) में विभाजित किया है ।

(4) संतुष्टि (Satisfaction):

संतुष्टि दोनों ही प्रकार के पुरस्कारों- आन्तरिक तथा बाह्म-से उत्पन्न हो सकती है । वह मात्रा जिस तक वास्तविक पुरस्कार कम पड़ते हैं या व्यक्ति के साम्य प्रतिफलों के आकलित स्तर से अधिक होते हैं तो वे एक काम करने से संतुष्टि की मात्रा का निर्धारण करेंगे जो उनके लिए आकर्षण होगा ।

यह ठीक वैसे ही है जैसे व्रुम का सिद्धान्त । उदाहरण के लिए पदोन्नति का आकर्षण व्यक्ति के लिए कहीं अधिक Valence या Reward हो सकता है जो अधिक उत्तरदायित्व पसन्द करता है तथा ऐसे लोगों के लिए नीचा आकर्षण हो सकता है जो अपेक्षाकृत उच्च दायित्वों को स्वीकार नहीं करना चाहते ।

Theory # 5. लिकर्ट की विचारधारा (Likert’s Approach):

Rensis Likert तथा उनके सहयोगियों ने मिशिगन विश्वविद्यालय में शोध किये तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मानवीय संसाधन तथा पूँजीगत संसाधनों को उचित प्रबन्ध की अपेक्षा करने वाली सम्पत्तियों माना जाना चाहिये ।

उन्होंने देखा कि इस बात में भारी सम्बन्ध होता है कि कर्मचारी को किस प्रकार का अधीक्षण मिलता है तथा उसको अपने काम से कितनी संतुष्टि तथा उत्पादकता मिलती है । जब एक कर्मचारी महसूस करता है कि उसका बॉस उसको उत्पादन का एक तंत्र समझता है तो वह एक घटिया उत्पादक बन सकता है ।

लेकिन जब वह महसूस करता है कि उसका बॉस उसके उत्पादन, उसके भविष्य तथा उसकी खुशहाली में रुचि रखता है तो वह कहीं अधिक अच्छा उत्पादक बनेगा । लिकर्ट ने सुझाया कि यदि एक सुपरवाईजर अपने श्रमिकों को अभिप्रेरित करना चाहता है तो उसको ‘कार्य केन्द्रित’ होने के स्थान पर ‘कर्मचारी केन्द्रित’ होना चाहिये ।

उसको मानवीय पहलुओं पर फोकस करना चाहिये । लिकर्ट ने नेतृत्व व्यवहार चरणों को चार मौलिक तंत्रों में विभाजित किया है, अत्यधिक अधिनायकवाद से अत्यधिक प्रजातांत्रिक तक ।

System 1 : शोषणकारी-अधिकनायकवादी

System 2 : उदारवादी-अधिकनायकवादी

System 3 : परामर्शदात्री-प्रजातांत्रिक

System 4 : सहभागिता-प्रजातांत्रिक

System 1 : शोषणकारी-अधिकनायकवादी (Exploitative-Authoritative):

प्रबन्धक एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसका अपने अधीनस्थों में जरा भी विश्वास नहीं होता । निर्णय तथा किसी संगठन का उद्देश्य निर्धारण उच्च स्तर पर होते हैं तथा फिर कार्यवाही के लिए नीचे चलते हैं । कभी-कभी अधीनस्थ डर, धमकी, दण्ड तथा यदाकदा पुरस्कार के लिए काम करते हैं । मूलत: प्रबन्धक अपने अधीनस्थों के प्रति अविश्वास करता है ।

System 2 : उदारवादी-अधिकनायकवादी (Benevolent-Authoritative):

प्रबन्धक का अपने अधीनस्थों में विश्वास तथा भरोसा होता है जैसा कि मालिक का नौकरों में होता है । अधिकांश निर्णय तथा उद्देश्य निर्धारण उन पर होते हैं लेकिन बहुत से निर्णय निचले स्तर पर नियत ढाँचे के भीतर ही होते हैं ।

पुनर्विचार तथा नियंत्रण उच्च स्तर पर अत्यधिक संकेन्द्रित होते हैं यद्यपि अधिसत्ता को मध्यम तथा निचले स्तर तक भारार्पित किया जाता है । अभिप्रेरणा हेतु पुरस्कार तथा कुछ वास्तविक दण्ड काम लाये जाते हैं ।

System 3 : परामर्शदात्री-प्रजातांत्रिक (Consultative-Democratic):

प्रबन्ध को अपने अधिनस्थों में यथार्थ, यद्यपि पूर्ण नहीं, भरोसा तथा विश्वास रखते देखा जाता है । महत्वपूर्ण नीति निर्णय ऊपर ही लिये जाते हैं लेकिन अधीनस्थ सभी प्रकार की निर्णयन प्रक्रिया में सक्रिय रहते हैं ।

वे खुलकर इन विषयों पर विचार कर सकते हैं । पुरस्कार तथा कभी-कभी दण्ड अभिप्रेरणा के लिए काम लाये जाते हैं । पुनर्विचार तथा नियंत्रण प्रक्रियाएँ अधोगामी भारार्पित की जाती हैं ।

System 4 : सहभागिता-प्रजातांत्रिक (Participative-Democratic):

प्रबन्ध को अधीनस्थों में पूरा भरोसा होता है । लीडर तथा समर्थकों के बीच भारी सम्प्रेषण होता है । निर्णयन अत्यधिक विकेन्द्रीयकृत होता है, यद्यपि समेकित (Highly Decentralised, Athough Integrated) ।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इंसानों पर शोध करना मुश्किल है अत: यह कहना कठिन है कि अभिप्रेरणा का कौन सा सिद्धान्त पूरी तरह से वैध तथा स्वीकार्य है ।

एक व्यक्ति का व्यवहार, उस व्यवहार पर निर्भर करता है जो उपलब्ध हो । उल्लेखनीय है कि- “सभी बातें सभी लोगों के लिए समान अर्थ नहीं रखतीं” (All Things do not Mean the Same to all Men) ।

Theory # 6. लक्ष्य निर्धारण विचारधारा (Goal Setting Theory):

इस सिद्धान्त का प्रतिपादन एडविन लॉक (Edwin Lock) ने किया था जो स्वयं लक्ष्य निर्धारण की प्रक्रिया पर फोकस करते हैं । यह सुझाती है कि कठिन तथा विशिष्ट लक्ष्य जो कर्मचारी स्वीकार करते हैं तथा वचनबद्ध होते हैं तथा वे उद्देश्य जो Rewards से जुड़े होते हैं अभिप्रेरणा को बढ़ायेंगे ।

उनके अनुसार लक्ष्य अभिप्रेरणा के महत्वपूर्ण स्रोत होते हैं । यदि ये विशिष्ट होते हैं तो कर्मचारी की निष्पत्ति बढ़ेगी । भले ही लक्ष्य कठिन हों यदि वे विशिष्ट हैं तथा कर्मचारियों की उनके निर्धारण में या उनकी स्वीकृति में सक्रिय भागीदारी रही है तो निष्पत्ति स्तर अधिक ही रहेगा ।

लक्ष्य निर्धारण प्रक्रिया व्यक्ति के तर्क के चार आयामों के रूप में होती है:

(i) प्राप्त किये जाने वाले एक मानदण्ड की स्थापना ।

(ii) मूल्यांकन कि क्या मानदण्ड प्राप्त किया जा सकता है ।

(iii) मूल्यांकन कि क्या मानदण्ड व्यक्तिगत लक्ष्यों से मेल खाता है ।

(iv) मानदण्ड स्वीकार कर लिया जाता है, तदनुसार लक्ष्य निर्धारण किया जाता है तथा उद्देश्य के प्रति व्यवहार आगे बढ़ता है ।

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