Read this article in Hindi to learn about the methods of training workers and managerial executives in a company.

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प्रशिक्षण की मुख्य विधियाँ निम्न चार्ट से प्रदर्शित की गई हैं:

श्रमिकों के प्रशिक्षण की विधियाँ (Training Methods for Workers):

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1. कार्य पर प्रशिक्षण (On the Job Training):

यह श्रमिकों को प्रशिक्षण देने की सबसे अधिक प्रचलित व प्राचीन विधि है । प्रशिक्षण अनुभवी एवं कुशल कर्मचारियों/श्रमिकों या पर्यवेक्षकों द्वारा, श्रमिकों को कार्य के दौरान ही दिया जाता है ।

श्रमिकों को कार्य पर प्रशिक्षण का उद्देश्य उन्हें कार्य के वास्तविक वातावरण एवं परिस्थितियों से परिचित कराना है । इस विधि में श्रमिक को काम करने की विधि एक कुशल पर्यवेक्षक द्वारा समझा दी जाती है । तत्पश्चात् श्रमिक को सीधे काम पर लगा दिया जाता है ।

प्राय: नया श्रमिक अन्य श्रमिकों को कार्य करते देखकर ही कार्य सीखता है । इस प्रकार श्रमिक काम भी सीखता है और उत्पादन भी करता है । यदि श्रमिक को कार्य के दौरान कठिनाई आती है तो वह पर्यवेक्षक से पूछताछ कर लेता है । अत: यह व्यावहारिक प्रशिक्षण है ।

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कार्य पर प्रशिक्षण के लाभ (Merits of on the Job Training):

(i) यह प्रशिक्षण की सरल विधि है ।

(ii) प्रशिक्षणार्थी की कार्य सीखने में रुचि बनी रहती है ।

(iii) प्रशिक्षणार्थी कार्य की वास्तविक दशाओं में कार्य करना सीखता है ।

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(iv) प्रशिक्षणार्थी को कार्य के साथ वेतन भी मिलता है जिससे उसे अभिप्रेरणा मिलती है ।

(v) जहाँ प्रबन्धक प्रशिक्षणार्थी को उपयुक्त प्रशिक्षण प्रदान करने में असमर्थ होते हैं, वहाँ पर प्रशिक्षण की यह विधि उपयुक्त है ।

(vi) ऐसी संस्थाएँ जहाँ पर विभिन्न प्रकार के कार्य होते हैं, वहाँ इस प्रकार का प्रशिक्षण अधिक उपयुक्त है ।

कार्य पर प्रशिक्षण के दोष (Demerits of on the Job Training):

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(a) कार्य पर प्रशिक्षण देने से कार्य की प्रगति में बाधा पहुँचती है ।

(b) प्रशिक्षणार्थी को कार्य की बारीकियों को सीखने में अधिक समय लगता है क्योंकि प्रशिक्षण सुनियोजित नहीं होता ।

(c) प्रशिक्षणार्थी को दिया जाने वाला वेतन उसको किए जाने वाले कार्य की तुलना में अधिक होता है ।

(d) पर्यवेक्षक अथवा प्रशिक्षक को प्रशिक्षण के लिए कोई अतिरिक्त प्रतिफल नहीं मिलता अत: वह कर्मचारी को पर्याप्त लगन के साथ कार्य सिखाने में रुचि नहीं लेता है ।

2. प्रकोष्ठशाला प्रशिक्षण (Vestibule Training):

इस विधि में कार्य का प्रशिक्षण कारखाने/फैक्टरी से अलग एक विशेष प्रशिक्षणशाला में दिया जाता है, जिसे प्रकोष्ठशाला कहते हैं । इसे द्वार-कोष्ठ प्रशिक्षण भी कहते हैं । इस विशिष्ट प्रकोष्ठशाला में कारखाने जैसा वातावरण तथा कार्य स्थिति बनाने का प्रयास किया जाता है ।

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प्रशिक्षण एक सुव्यवस्थित कार्यक्रम के अनुसार दिया जाता है । प्रशिक्षण अनुभवी व कुशल प्रशिक्षकों द्वारा दिया जाता है । अत: यह प्रशिक्षण कारखाने के कार्य स्थल से दूर एक विशेष-प्रशिक्षण कक्ष में अनुभवी प्रशिक्षकों द्वारा एक सुव्यवस्थिति कार्यक्रम के अनुसार दिया जाता है ।

इसमें प्रशिक्षण केन्द्र पर कार्य सम्बन्धी मशीनें, औजार आदि कारखाने की मशीनों एवं औजारों के समान होते हैं । प्रशिक्षण प्राप्त करने के उपरान्त कर्मचारी प्रशिक्षणार्थी को नियत काम पर लगा दिया जाता है । ऐसा प्रशिक्षण प्रशिक्षणार्थी को अधिक कार्यकुशल बनाने में सक्षम है । साधारतया इस विधि को प्रयोग बड़ी संस्थाओं द्वारा ही किया जाता है ।

लाभ:

इस विधि के अनेक लाभ हैं:

(i) प्रशिक्षण सुनिश्चित व सुनियोजित होता है ।

(ii) प्रशिक्षण को कारखाने व फैक्टरी से अलग दिए जाने के कारण कार्य में बाधा नहीं पहुँचती ।

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(iii) इस विधि में अधिक प्रशिक्षार्थियों को एक साथ प्रशिक्षण दिया जा सकता है ।

(iv) प्रशिक्षण कुशल व अनुभवी प्रशिक्षकों/विशेषज्ञों द्वारा दिया जाता है ।

दोष:

इस विधि के निम्नलिखित दोष हैं:

(i) प्रकोष्ठशाला में विशेष रूप से मशीनों एवं औजारों की व्यवस्था करनी पड़ती है जिसके लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता है अतएव : यह एक महँगी पद्धति है ।

(ii) प्रकोष्ठशाला में कारखाने के समान वातावरण बनाना कठिन है ।

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3. शिक्षार्थी प्रशिक्षण (Apprenticeship Training):

यह प्रशिक्षण विधि उन व्यावसायिक क्षेत्रों के लिए आवश्यक तथा विशेष उपयुक्त है जिसमें पूर्ण कुशलता प्राप्त करने के लिए एक लम्बी अवधि तक कार्य करने का अभ्यास आवश्यक है ।

शिक्षार्थी विशेषज्ञों के साथ काफी लम्बे समय तक काम करके व्यावसायिक कौशल हासिल करते हैं । इसका मुख्य उद्देश्य सर्वकुशल कारीगरों अथवा कर्मचारियों का विकास करना है ।

इस विधि में प्रशिक्षणार्थी अथवा प्रशिक्षण लेने वाले व्यक्ति को अप्रेंटिस शिक्षार्थी कहते हैं । प्रत्येक शिक्षार्थी को एक कुशल प्रशिक्षक (विशेषज्ञ) की देख-रेख में एक पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार कार्य सौंप दिया जाता है ।

शिक्षार्थी विशेषज्ञ की देख-रेख में शिष्य बनकर कार्य सीखते हैं । विशेषज्ञ शिक्षार्थियों को व्यवसाय की तमाम दांव-पेच व बारीकियों में कुशल बनाता है । इस कार्यक्रम के अन्तर्गत प्रशिक्षण प्राप्त करने में शिक्षार्थी को 2 वर्ष से 5 वर्ष तक का समय लग जाता है । प्रशिक्षण की यह विधि बहुत ही खर्चीली है इसमें शिक्षार्थी को नियोक्ता द्वारा प्रशिक्षण अवधि के दौरान पारिश्रमिक भी दिया जाता है ।

लाभ:

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इस विधि के अनेक लाभ हैं:

(i) इस प्रशिक्षण से कार्य का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

(ii) प्रशिक्षण एक पूर्व-निर्धारित योजना के द्वारा सुनियोजित तरीके से दिया जाता है ।

(iii) शिक्षार्थी को प्रशिक्षण के दौरान पारिश्रमिक भी मिलता है जिससे उसकी प्रशिक्षण में रुचि बनी रहती है ।

दोष:

इस विधि के अनेक दोष हैं:

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(i) यह प्रशिक्षण की खर्चीली पद्धति है ।

(ii) प्रशिक्षण की समाप्ति पर भी शिक्षार्थी को इस बात की गारन्टी नहीं होती कि उसे संस्था में कार्य मिल ही जाएगा ।

4. अनुभवी श्रमिकों द्वारा प्रशिक्षण (Training by Experienced Workmen):

इस विधि में अनुभवी श्रमिकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है । यह प्रशिक्षण उस परिस्थिति में विशेष लाभप्रद रहता है जिसमें अनुभवी श्रमिकों को सहायक श्रमिकों की आवश्यकता रहती है ।

यह प्रणाली उन विभागों के लिए भी उपयुक्त है जहाँ कार्यों की एक श्रृंखला है और कार्य सुनिश्चित तरीके से क्रमागत रूप से आगे बढ़ाता है ।

5. पर्यवेक्षकों द्वारा प्रशिक्षण (Training by Supervisors):

प्रशिक्षण की इस विधि में पर्यवेक्षकों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता है । इसमें प्रशिक्षणार्थियों (Trainees) को अपने पर्यवेक्षकों से परिचित होने का अवसर मिलता है ।

इसके अतिरिक्त पर्यवेक्षकों को भी कार्य निष्पादन की दृष्टि से प्रशिक्षणार्थियों की योग्यता एवं सम्भावनाओं को परखने का अवसर मिल जाता है । इस आकलन के आधार पर पर्यवेक्षक उनकी प्रशिक्षण की आवश्यकता ज्ञात कर सकते हैं ।

6. प्रशिक्षण केन्द्रों पर प्रशिक्षण (Training on Training Center):

प्रशिक्षण की इस विधि में विशिष्ट प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की जाती है । इन्हें तकनीकी प्रशिक्षण केन्द्र भी कहते हैं । अलग-अलग व्यवसायों के लिए अलग-अलग प्रशिक्षण केन्द्र खोले जाते हैं । इन प्रशिक्षण केन्द्रों पर सैद्धान्तिक एवं तकनीकी दोनों प्रकार की शिक्षा प्रदान की जाती है ।

सैद्धान्तिक शिक्षा की अपेक्षा तकनीकी शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता है । इस प्रशिक्षण प्रणाली में नए व पुराने दोनों ही प्रकार के कर्मचारी विशिष्ट व्यवसायों एवं कार्यों के सम्बन्ध में प्रशिक्षण प्राप्त करते हैं । ऐसे प्रशिक्षण केन्द्रों का उद्देश्य विशेष व्यवसाय के सम्बन्ध में तकनीकी शिक्षा देना होता है ।

लाभ:

इस प्रशिक्षण विधि के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) कार्य की प्रगति में रुकावट नहीं आती ।

(ii) सैद्धान्तिक व तकनीकी दोनों प्रकार का प्रशिक्षण दिया जाता है ।

(iii) प्रशिक्षण में विशिष्टीकरण का लाभ मिलता है ।

दोष:

इस विधि में निम्नलिखित दोष हैं:

(i) यह विधि काफी महँगी है ।

(ii) शिक्षार्थियों की संख्या अधिक होने पर उन्हें उचित प्रशिक्षण नहीं मिल पाता ।

7. संयुक्त प्रशिक्षण (Internship Training):

इस प्रशिक्षण का मूल उद्देश्य प्रशिक्षणार्थियों को सैद्धान्तिक तथा व्यावसायिक प्रशिक्षण उपलब्ध कराना है । इस विधि में तकनीकी शिक्षा संस्थाएँ व व्यावसायिक शिक्षा संस्थाएँ मिलकर अपने सदस्यों को संयुक्त प्रशिक्षण प्रदान करते हैं ।

ऐसे प्रशिक्षण से सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान में सन्तुलन स्थापित किया जाता है । इस प्रकार का प्रशिक्षण प्रबन्ध, वकालत तथा डॉक्टरी जैसे पेशों में जरूरी है ।

प्रबन्धकों के लिए प्रशिक्षण विधियाँ (Training Methods for Managerial Executives):

1. कार्य परिवर्तन (Job Rotation):

इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रबन्धक को एक संस्था के विभिन्न कार्यों का प्रशिक्षण दिया जाता है । इसके लिए उसे विभिन्न विभागों में अलग-अलग पदों पर कुछ समय के लिए कार्य करने के लिए भेजा जाता है । इससे प्रबन्धक को प्रत्येक कार्य के सम्बन्ध में व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त हो जाता है ।

कार्य परिवर्तन से प्रबन्धक का अनुभव बढ़ता है तथा वह कम समय में ही विभिन्न विभागों के कार्यों की जटिलताओं को समझने लगता है । इस विधि से कुशल प्रबन्धकों को विकास का अवसर मिलता है ।

लाभ:

इस प्रणाली के निम्न लाभ हैं:

(i) प्रत्येक प्रबन्धक को विभिन्न पदों पर कार्य करने का अवसर मिलता है । इससे विभागीय जड़ता समाप्त होती है ।

(ii) इससे अन्त: विभागीय (Inter Department) सहयोग में वृद्धि होती है ।

(iii) इस पद्धति से प्रबन्धक की जानकारी का क्षेत्र व्यापक हो जाता है ।

दोष:

इस प्रणाली के निम्न दोष हैं:

(i) प्रबन्धक प्रत्येक पद पर कुछ समय ही कार्य करता है अत: वह समस्याओं का गहन अध्ययन नहीं कर सकता ।

(ii) इस प्रशिक्षण पद्धति के अन्तर्गत कई बार स्थान परिवर्तन भी कर दिया जाता है जिससे प्रबन्धक के पारिवारिक जीवन पर बुरा असर पड़ता है ।

2. सहायक पदवी (Assistant to Positions):

इस पद्धति में प्रशिक्षणार्थी को अपने विभाग के वरिष्ठ प्रबन्धक का सहायक नियुक्त कर दिया जाता है । प्रशिक्षणार्थी को उच्चाधिकारी के प्रतिस्थापन (Replacement) के रूप में सक्षम माना जाता है । वह प्रबन्ध के सामान्य कार्यों में सहायता करता है ।

इस योजना के अन्तर्गत जब कभी प्रबन्धक बाहर जाता हो या बीमार हो या अवकाश पर हो तब वह वरिष्ठ प्रबन्धक के स्थान पर कार्य कर सकता है । धीरे-धीरे वह उस कार्य में कुशलता प्राप्त कर लेता है । भविष्य में उच्च पद के रिक्त होने पर उसकी पदोन्नति कर दी जाती है ।

लाभ:

इस पद्धति के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) यह व्यावहारिक प्रशिक्षण है ।

(ii) इससे वरिष्ठ प्रबन्धक का कार्य भार कम हो जाता है ।

(iii) प्रशिक्षणार्थी को कार्य करने की अभिप्रेरणा मिलती है ।

दोष:

इस पद्धति के निम्नलिखित दोष हैं:

(i) प्रशिक्षणार्थी का चुनाव प्रबन्धक द्वारा किए जाने से इसमें पक्षपात की सम्भावना बनी रहती है ।

(ii) इस विधि में प्रशिक्षणार्थी के अतिरिक्त अन्य कर्मचारियों को कार्य की प्रेरणा नहीं मिलती है क्योंकि उनकी उन्नति के अवसर कम हो जाते हैं ।

3. समितियाँ व जूनियर बोर्ड (Committees and Junior Boards):

इस प्रणाली के अन्तर्गत संस्था के विभिन्न स्तरों पर समितियाँ एवं जूनियर बोर्ड बनाये जाते हैं । इसके अन्तर्गत प्रशिक्षणार्थियों को व्यवसाय में विशेषकर प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं पर अपने विचार प्रकट करने के लिए आमन्त्रित एवं प्रेरित किया जाता है । उन्हें अपने सुझाव प्रस्तुत करने की पूरी स्वतन्त्रता दी जाती है ।

यह सभी सुझाव बाद में उच्च अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किये जाते है जिसे वे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिए प्रयोग करते हैं । लेकिन उच्च अधिकारी उन सुझावों को मानने या न मानने के लिए बाध्य नहीं होते हैं ।

वे इन समितियों के सुझावों को संशोधित करने का अधिकार भी रखते हैं । इस प्रणाली के अन्तर्गत कई बार कुछ संस्थाएँ जूनियर संचालक मण्डल भी बनाती हैं जोकि वरिष्ठ संचालक मण्डल (Senior Board Director) की सहायता करते हैं । इस पद्धति में जूनियर संचालक मण्डल के सदस्यों का विकास किया जाता है । इस योजना के अन्तर्गत इस जूनियर संचालक मण्डल को समस्याएँ दी जाती हैं । जिन्हें वह द्वितीय स्तर पर सुलझाते हैं ।

तत्पश्चात् संचालक मण्डल जब निर्णय लेता है तो जूनियर संचालक मण्डल के सदस्यों के विचारों एवं सुझावों को अपने निर्णय में आवश्यकतानुसार शामिल करता है । इस पद्धति में जूनियर संचालक मण्डल वरिष्ठ संचालक मण्डल के सम्पर्क में भी रहते हैं और उनकी कार्यप्रणाली को सीखने का प्रयत्न करते हैं ।

इस पद्धति से जूनियर बोर्ड के सदस्य अपनी योग्यता व निर्णय क्षमता से वरिष्ठ पदाधिकारियों को प्रभावित कर सकते हैं । जिससे भविष्य में उन्हें उन्नति के अवसर मिल सकते हैं । इस विधि के प्रयोग से संस्था के लिए द्वितीय स्तर के योग्य प्रबन्धकों का विकास होता है ।

लाभ:

इस पद्धति के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) प्रशिक्षणार्थियों का व्यवसाय के बारे में दृष्टिकोण विस्तृत होता है जिससे वे व्यवसाय की कार्यप्रणाली को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं ।

(ii) इस तकनीक से उनमें उत्तरदायित्व की भावना विकसित होती है क्योंकि उन्हें निर्णय लेने के लिए पूरी स्वतन्त्रता दी जाती है ।

(iii) समिति या जूनियर बोर्ड में कार्य करने से उनमें नेतृत्व की कला, बेहतर सन्देशवाहन, निर्णय क्षमता का विकास एवं आपसी तालमेल जैसे गुण सीखने को मिलते हैं ।

(iv) इस पद्धति द्वारा आपसी विचार-विमर्श से निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है एवं सदस्यों के ज्ञान में भी वृद्धि होती है ।

दोष:

इस पद्धति के निम्नलिखित दोष हैं:

(i) प्रत्येक सदस्य को अपने विचार प्रकट करने का समय दिया जाता है एवं आपसी विचार-विमर्श भी होता है जिससे इस प्रणाली में समय नष्ट होता है ।

(ii) इस तरह की समितियों या बोर्ड में सामूहिक उत्तरदायित्व होता है परन्तु व्यक्तिगत उत्तरदायित्व की भावना का विकास नहीं हो पाता ।

(iii) कई बार समितियाँ परस्पर विरोधी विचारों के कारण आपस में समन्वय स्थापित नहीं कर पातीं जिससे संस्था को हानि उठानी पड़ती है ।

(iv) इन समितियों के सुझावों को मानना या न मानना उच्च अधिकारियों पर निर्भर करता है जिससे प्रशिक्षण के दौरान वे अपनी कार्यक्षमता का पूरा प्रयोग नहीं करते ।

4. विशिष्ट सम्मेलन (Special Conferences):

आजकल व्यावसायिक जगत में विशिष्ट सम्मेलन विधि द्वारा प्रशिक्षण देने की पद्धति बहुत सी संस्थाओं द्वारा प्रयोग की जा रही है । इस पद्धति के द्वारा प्रशिक्षणार्थियों में निर्णय क्षमता, नेतृत्व, कुशल सन्देशवाहन जैसे गुणों का विकास करने का प्रयत्न किया जाता है ।

सम्मेलन की समयाविध प्राय: दो या तीन दिन की होती है । इस विधि के अन्तर्गत सभी प्रशिक्षणार्थी या प्रबन्धक विचार-विमर्श के लिए एक स्थान पर एकत्रित होते हैं ।

इसमें कोई एक व्यक्ति या सभी एकत्रित व्यक्ति किसी विशिष्ट समस्या के समाधान हेतु आयोजित सम्मेलन में अपने-अपने दृष्टिकोण को प्रस्तुत करते हैं । अन्तत: सभी एकमत होकर सामूहिक रूप से किसी निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करते हैं ।

आमतौर पर इस पद्धति में तीन प्रकार के सम्मेलन आयोजित किये जाते हैं:

(i) निर्देशित आयोजन (Directed Conference),

(ii) परामर्शदात्री सम्मेलन (Consultative Conference),

(iii) समस्या निवारक सम्मेलन (Problem Solving Conference) ।

(i) निर्देशित आयोजन (Directed Conference):

इस प्रकार के सम्मेलन का आयोजन मुख्यत: उस समय किया जाता है जब प्रशिक्षणार्थी कम संख्या में हो । साधारणतया 15 से 20 तक प्रशिक्षणार्थी होने पर यह सम्मेलन आयोजित किया जाता है । इसके अन्तर्गत प्रशिक्षक विभिन्न व्यावसायिक समस्याओं पर विचार-विमर्श करने के लिए प्रशिक्षणार्थियों को आमन्त्रित करता है ।

प्रशिक्षणार्थी उन समस्याओं पर अपने विचार प्रकट करता है तथा शेष प्रशिक्षणार्थी एवं प्रशिक्षक उससे इस विषय के सम्बन्ध में प्रश्न करते हैं बाद में सभी आपसी विचार-विमर्श से समस्या के सही निवारण पर पहुँचने का प्रयत्न करते हैं ।

इस पद्धति में एक तरफ तो प्रशिक्षणार्थी के ज्ञान का पता चलता है व दूसरी ओर प्रशिक्षक एवं अन्य साथियों के सुझावों से उसके ज्ञान में वृद्धि होती है । इस तरह के सम्मेलन में प्रशिक्षणार्थियों के बैठने का प्रबन्ध इस तरह से किया जाता है कि स्वतन्त्रतापूर्वक एक-दूसरे से विचार-विमर्श कर सकें ।

(ii) परामर्शदात्री सम्मेलन (Consultative Conference):

इस प्रकार के सम्मेलन का आयोजन सामान्यत: प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है । इसके अन्तर्गत प्रबन्धक किसी विशेष समस्या का समाधान करने हेतु उपस्थिति लोगों के विचार सुनते हैं । इसमें उपस्थिति लोगों के विचारों को सुनने के उपरान्त प्रबन्धक समस्या का निवारण करने का प्रयत्न करते हैं ।

उपस्थिति लोगों के विचारों को मानना या न मानना प्रबन्धक की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है । जैसा कि स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य समस्या के सुलझाने हेतु परामर्श प्राप्त करना होता है इसीलिए इस विधि को परामर्शदात्री विधि के नाम से जाना जाता है ।

व्यावसायिक जगत में आजकल इस तरह के सम्मेलन काफी लोकप्रिय होते जा रहे हैं । इसी तरह के सम्मेलनों से प्रेरित होकर विभिन्न व्यवसायी आजकल सलाहकारों (Advisors) की विशेष रूप से नियुक्ति करते हैं ।

(iii) समस्या-निवारक सम्मेलन (Problem Solving Conference):

इस तरह के सम्मेलन सामूहिक उत्तरदायित्व की अवधारणा पर आधारित होते हैं । यह सम्मेलन मुख्यत: परामर्शदात्री सम्मेलन से ही प्रेरित होकर करवाये जाते हैं । इसमें उपस्थित सदस्य केवल मात्र सलाहकार नहीं होते अपितु वे निर्णायक की भूमिका निभाते हैं ।

इस तरह के सम्मेलन का आयोजन किसी विशेष समस्या के निवारण का सामूहिक रूप से विचार-विमर्श करके किया जाता है । इसके अन्तर्गत प्रबन्धक या आयोजक सम्मेलन बुलाता है एवं समस्या का सम्पूर्ण विवरण वहाँ प्रस्तुत करता है एवं सभी के विचार सुनता है ।

अन्तत: सब लोगों की सहमति से समस्या का समाधान किया जाता है । कई बार इसमें सर्वसम्मति न होने पर वोट डलवा कर फैसला लिया जाता है । उपर्युक्त वर्णित पद्धतियों में से प्रशिक्षण के उद्देश्य से सामान्यत: निर्देशित सम्मेलन विधि का अधिक प्रयोग किया जाता है ।

लाभ:

इस पद्धति के मुख्य लाभ निम्नलिखित हैं:

(i) इसके द्वारा समस्या का सर्वोत्तम विकल्प सामने आता है जिसे लागू करके संस्था हमेशा लाभ की स्थिति में रहती है ।

(ii) इसके द्वारा सदस्यों को विभिन्न लोगों के विचारों का पता चलता है जिससे उनके ज्ञान में वृद्धि होती है ।

(iii) यह पद्धति विभिन्न विचारों को एक ही जगह पर उपलब्ध करवाती है ।

दोष:

इस पद्धति के दोष निम्नलिखित हैं:

(i) इस पद्धति में सम्मेलन के आयोजन में समय काफी नष्ट होता है एवं कई बार यह आयोजन काफी महँगा भी पड़ता है ।

(ii) सम्मेलन का आयोजन करने हेतु प्रबन्ध क्षमता का होना अत्यन्त आवश्यक होता है । सही प्रबन्ध न होने पर इसका लाभ प्राप्त नहीं हो पाता ।

5. इन बास्केट प्रशिक्षण विधि (In Basket Training Method):

इस विधि में प्रशिक्षण एक विशिष्ट ढंग से दिया जाता है । इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रशिक्षणार्थियों को व्यवसाय सम्बन्धी समस्याएँ बास्केट में डालकर दे दी जाती है ।

उन्हें उस समस्या के सम्बन्ध में सम्पूर्ण ब्यौरा दिया जाता है और एक निश्चित समय अवधि में उसे उस समस्या का समाधान करने के लिए कहा जाता है । इसके उपरान्त प्रशिक्षणार्थी अपने ज्ञान कौशल एवं अनुभव का प्रयोग करते हुए समस्या का सर्वोत्तम विकल्प ढूंढने की कोशिश करता है ।

समस्या का चुनाव करते हुए वास्तविक समस्याओं को ही प्रशिक्षणार्थी के सामने रखा जाता है और समयावधि भी कम से कम दी जाती है जिससे कि उसकी निर्णय क्षमता का विकास करने की कोशिश की जाती है ।

इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत निर्णय क्षमता के अतिरिक्त उसे उन्य सहयोगियों के साथ विचार-विमर्श का अवसर भी दिया जाता है । अन्त में सभी प्रशिक्षणार्थी अपने-अपनी कार्यवाही की रिपोर्ट तैयार करते हैं । आयोजक सभी रिपोर्टों का आपस में तुलनात्मक अध्ययन करके विभिन्न समस्याओं का निवारण करते हैं ।

इस विधि का मुख्य लाभ यह है कि यह प्रशिक्षण अधिक व्यावहारिक है । इससे प्रशिक्षणार्थी की मानसिक योग्यता का विकास होता है । इससे प्रशिक्षणार्थी की निर्णय क्षमता में निखार आता है एवं समय का सदुपयोग करना सीखता है ।

6. घटना पद्धति (Incident Method):

इस पद्धति का मुख्य उद्देश्य विशेष परिस्थितियों में प्रबन्धकीय योग्यता का विकास करना है । इसके अन्तर्गत विशेष घटना का निर्माण किया जाता है । उस घटना के सम्बन्ध में प्रशिक्षणार्थियों को पर्याप्त विवरण उपलब्ध करवाया जाता है । प्रशिक्षणार्थियों को उस घटना का दिए गए विवरण को ध्यान में रखकर अध्ययन करने के लिए कहा जाता है ।

इसके लिए उन्हें पर्याप्त समय दिया जाता है । प्रशिक्षणार्थी अपनी-अपनी क्षमता एवं अनुभव के अनुसार समस्या का समाधान प्रस्तुत करते हैं । अन्त में प्रशिक्षक उन्हें उस समस्या का समाधान प्रस्तुत करता है ।

इस तरह से इस पद्धति में प्रशिक्षणार्थियों को निर्णय क्षमता एवं उनके ज्ञान को परखने का प्रयत्न किया जाता है । इसके अतिरिक्त प्रशिक्षणार्थियों को भी अपनी क्षमता का विकास करने का पर्याप्त अवसर मिलता है ।

7. भूमिका निर्वाह विधि (Role-Playing Method):

यह विधि इस अवधारणा पर आधारित है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी पद के उत्तरदायित्व को तब तक नहीं समझ सकता जब तक वह वास्तव में उस पद पर न पहुँच जाए ।

इसी के आधार पर यह विधि आज प्रबन्ध प्रशिक्षण के लिए व्यावसायिक जगत में प्रयोग की जा रही है । इसके अन्तर्गत विभिन्न प्रशिक्षणार्थियों को अलग-अलग भूमिकाओं को निभाने के लिए कहा जाता है उदाहरणतया मैनेजर, क्लर्क, फोरमैन या अन्य कोई भूमिका ।

तत्पश्चात् प्रशिक्षक किसी काल्पनिक (लेकिन व्यवसाय से सम्बन्धित) समस्या उनके सामने रखता है और प्रशिक्षणार्थियों को अपनी-अपनी भूमिका निभाते हुए उस समस्या का हल ढूंढना होता है ।

काल्पनिक भूमिका के अन्तर्गत सभी अपना-अपना ज्ञान, कौशल एवं अनुभव प्रयोग करते हुए समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयत्न करते हैं । प्रशिक्षक एवं विशिष्ट प्रबन्ध अधिकारी इस भूमिका निर्वाह की प्रक्रिया को स्वयं देखते हैं एवं बाद में प्रशिक्षणार्थियों को उनकी कमियाँ बताते हैं ।

अन्त में सभी प्रशिक्षणार्थी, प्रशिक्षक एवं अन्य वरिष्ठ प्रबन्ध अधिकारी आपसी विचार-विमर्श करते हैं तथा समस्या को सुलझाने के लिए सर्वोत्तम विकल्प की खोज करते हैं । इस प्रशिक्षण विधि का मुख्य लाभ यह है कि प्रशिक्षणार्थी का दृष्टिकोण विस्तृत होता है एवं उसमें उत्तरदायित्व की भावना आती है ।

उसे विभिन्न समस्याओं को सुलझाने का प्रशिक्षण एवं ज्ञान प्राप्त होता है । परन्तु इस पद्धति का दोष यह माना जाता है कि भूमिका काल्पनिक होती है जिसमें उत्तरदायित्व वास्तविक न होने के कारण प्रशिक्षणार्थी केवल नाटक के पात्र से ही लगते हैं । वास्तविक व्यावसायिक वातावरण न होने के कारण यह विधि अधिक प्रभावशाली नहीं हो पाती ।

8. व्यावसायिक खेल विधि (Business Game Method):

व्यावसायिक जगत में आजकल यह विधि बहुत लोकप्रिय होती जा रही है । इसके अन्तर्गत विभिन्न व्यावसायिक एवं प्रबन्ध खेलों को प्रबन्धकीय प्रशिक्षण देने के लिए प्रयोग किया जाता है । इस विधि में प्रशिक्षणार्थियों को विभिन्न टीमों में विभाजित कर दिया जाता है ।

उन्हें एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी (Competitor) की भूमिका दी जाती है । टीम को अपने समूह के हित में निर्णय लेना होता है । इसके उपरान्त विशिष्ट प्रबन्ध अधिकारी उनके सामने समस्या रखते हैं जो कि व्यवसाय के उत्पादन वितरण वित्त प्रबन्ध में से किसी भी क्षेत्र की होती है ।

सभी टीमें एक-दूसरे के प्रतिद्वन्द्वी होने के कारण अपने समूह के हित के लिए उस समस्या का समाधान ढूंढने का प्रयास करते हैं । निर्णय लेते समय के उन्हें दिये गये सभी तथ्यों एवं व्यावसायिक परिस्थितियों का विश्लेषण करते हैं ।

इसके पश्चात् वरिष्ठ प्रबन्ध अधिकारी के सामने सभी टीमें अपना-अपना निर्णय प्रस्तुत करती हैं । व्यावसायिक परिस्थितियों एवं दिये गए तथ्यों को ध्यान में रखते हुए उनमें सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करने वाली टीम को प्रथम घोषित किया जाता है ।

इस पद्धति का मुख्य लाभ यह है कि सर्वोत्तम निर्णय देने के लिए सभी टीमें अपनी-अपनी पूरी क्षमता का प्रयोग करती हैं जिससे उनकी व्यावसायिक निर्णय लेने की क्षमता में वृद्धि होती है । इसके अतिरिक्त उन्हें गलत निर्णय लिये जाने से होने वाली हानियों का पता चलता है एवं अपनी कमजोरियों का भी ज्ञान होता है ।

9. समस्या का समाधान (Case-Study):

इस पद्धति का प्रयोग प्रशिक्षणार्थियों की निर्णय क्षमता एवं समस्या सुलझाने की क्षमता का विकास करने के लिए किया जाता है । इसके अन्तर्गत प्रशिक्षणार्थियों को व्यावसायिक समस्या का लिखित रूप में विस्तृत ब्यौरा दिया जाता है जिसे केस कहा जाता है ।

इसके साथ ही उन्हें संस्था की संगठन संरचना व्यावसायिक स्थिति उद्देश्यों आदि का भी सम्पूर्ण विवरण दिया जाता है । केस विधि का दो तरह से प्रयोग किया जाता है- एक तो अलग-अलग प्रशिक्षणार्थी को अलग-अलग समस्या देकर, दूसरे उनके समूह बनाकर तथा समूह को एक समस्या देकर ।

केस मिलने के बाद प्रशिक्षणार्थी अपने-अपने ज्ञान, कौशल एवं क्षमता के अनुसार केस का पूरा विश्लेषण करते हैं एवं सर्वोत्तम विकल्प ढूंढने का प्रयास करते हैं । सामूहिक केस के अन्तर्गत वे एक-दूसरे से विचार-विमर्श करते हैं एवं आपसी सहमति से एक निर्णय पर पहुँचने का प्रयास करते हैं ।

इस तरह के प्रशिक्षण से मुख्यत: यह लाभ होता है कि प्रशिक्षणार्थी के व्यक्तिगत कौशल एवं क्षमता का पता चलता है एवं उसे अपनी कमजोरियों का ज्ञान भी होता है जिससे वह अपनी क्षमता को सुधार सकता है ।

इसमें केस आमतौर पर व्यावसायिक जगत की वास्तविक परिस्थितियों के आधार पर तैयार किये जाते हैं अत: प्रशिक्षणार्थी व्यावसायिक जगत की समस्याओं से भी अवगत हो जाता है । इस पद्धति की सफलता हेतु यह आवश्यक है कि केस तैयार करते समय विशेषज्ञों एवं अनुभवी व्यक्तियों की सहायता की जानी चाहिए ।

10. प्रबन्ध संघों द्वारा आयोजित कार्यक्रम (Programmes of Management Associations):

आजकल प्रबन्ध के क्षेत्र में विभिन्न संघों की स्थापना की गई है । यह प्रबन्ध संघ समय-समय पर प्रबन्ध के क्षेत्र में होने वाले परिवर्तनों एवं नई-नई तकनीकों से अपने सदस्यों को परिचित करवाते रहते हैं । इस सन्दर्भ में वह कुछ अन्तराल के बाद कार्यक्रम आयोजित करते रहते हैं ।

इसमें प्रबन्ध क्षेत्र के विशेषज्ञों एवं प्रबन्धकों को आमन्त्रित किया जाता है । विशेषज्ञों द्वारा सेमिनार प्रणाली का प्रयोग किया जाता है । ये विशेषज्ञ प्रबन्ध क्षेत्र में होने वाले नये-नये तरीकों से प्रबन्धकों को अवगत कराते हैं । उनके साथ व्यक्तिगत एवं सामूहित रूप से भी विचार-विमर्श किया जाता है ।

इस प्रणाली का मुख्य लाभ यह रहता है कि विशेषज्ञों द्वारा दिया गया ज्ञान प्रबन्धक अपने व्यवसाय में प्रयोग कर सकते हैं । प्रशिक्षणार्थियों को भी अपनी शंकाओं का निवारण करने का अवसर मिलता है ।

इस प्रणाली में यह दोष रहता है कि यह आयोजन आमतौर पर बड़े-बड़े शहरों में ही आयोजित होते हैं जिससे इसमें केवल सीमित लोगों की पहुँच होती है शेष लोग इससे वंचित रह जाते हैं ।

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