Here is an essay on the ‘Historical Development of Trade Unions in India’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on the ‘Historical Development of Trade Unions in India’ especially written for school and college students in Hindi language.

Historical Development of Trade Unions in India


Essay Contents:

  1. श्रम संघ और समाज कल्याण काल (Trade Unions and Social Welfare Period) (1875 से 1918) 
  2. श्रम संघ का प्रारम्भिक काल (Beginning of Labour Union Era) (1918-1924) 
  3. साम्यवादी विचारधारा काल (Communist Thought Era) (1924-1935) 
  4. श्रम संघ काल (Trade Union Period) (1935-39) 
  5. श्रम संघ और द्वितीय महायुद्ध काल (Trade Unions and Second World War Period) (1939-1946)
  6. श्रम संघ और वर्तमान काल (Trade Unions and Modern Period) (1947 से अब तक)


Essay # 1. श्रम संघ और समाज कल्याण काल (Trade Unions and Social Welfare Period) (1875 से 1918):

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इस काल में औद्योगिक विकास के कारण बडे स्तर पर उत्पादन प्रारम्भ हुआ किन्तु इसी के साथ श्रमिकों का शोषण भी आरम्भ हो गया । शिशु व स्त्री श्रमिकों को निम्न मजदूरी पर रखा जाने लगा । उनके कार्यों की दशाएं निकृष्ट थीं व उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था ।

उसक समय सरकार उदासीन बनी रही और कार्य की दशाएँ दिन-प्रतिदिन बिगड़ती गयीं एवं श्रमिकों का शोषण बढ़ता गया । उद्योगों के आरम्भिक काल में भारतीय उद्योगों में कार्य की दशाएँ अत्यन्त शोचनीय थीं, वास्तव में तत्कालीन इंग्लैण्ड के उद्योगों में प्रचलित कार्य दशाओं में भारत के श्रमिकों की दशाएँ बहुत निष्कृत थीं ।

उस समय श्रमिकों की समस्याओं पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता था । ”श्रमिक (जो अधिकांश ग्रामीण थे) अपनी आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार करने की मजबूरी से उद्योगों में कार्य करने आते थे उनका नगर में आना पूर्णत: अस्थायी था । वे कार्य की असहनीय दशाओं के विरुद्ध आवाज उठाने की अपेख्या कार्य छोड़ना पसन्द करते थे या उस उद्योग को ही छोड्‌कर अन्यत्र चले जाते थे ।”

इस समय कुछ भारतीय राजनीतिक तथा सामाजिक कार्यकर्त्ता श्रमिकों के हितवर्धन की दृष्टि से आगे आये, एस.एस.बंगाली (1857), एन.एम.लोखण्डे (1884) का योगदान उल्लेखनीय है । इन्होंने श्रमिकों की दयनीय दशाओं की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया तथा सरकार से श्रमिकों के हितों की रक्षा की माँग की ।

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उसी समय लंकाशायर में समाज सुधारकों एवं पादरियों द्वारा श्रमिकों की दुर्दशा की ओर ब्रिटिश सरकार का ध्यान आकृष्ट किया गया । भारत में स्त्रियों, शिशुओं एवं बच्चो के कार्य पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग की गई ।

भारत में निम्न श्रम लागत पर उत्पादित वस्तुएँ इंग्लैण्ड में उत्पादित वस्तुओं की अपेक्षा अधिक सस्ती थीं जिससे वहाँ के उद्योगों में काफी हानि हो रही थी । अत: सस्ते श्रम पर पाबन्दी लगाने के लिए ब्रिटिश सरकार तैयार हो गयी ।

यही कारण था कि भारतीय कारखाना अधिनियम, 1881 पारित किया गया इसमें कार्य के घण्टे कम करने, स्त्रियों और शिशु श्रमिकों को कार्य की दशाओ में सुधार करने हेतु प्रावधान रखे गये । यह अधिनियम सन् 1891 व 1911 में पुन: संशोधित किया गया । भारत में श्रम आन्दोलन काफी विलम्ब से प्रारम्भ हुआ जबकि आधुनिक औद्योगीकरण का प्रारम्भ सन् 1850 से माना जाता है ।

कारखाना आयोग की स्थापना (1875), कारखाना अधिनियम (1881), मीड मूर (Meade Moore) की जाँच-पड़ताल (1874), द्वितीय बम्बई कारखाना आयोग (1884 तथा सन् 1884 में बम्बई के श्रमिकों द्वारा आयोजित सभा (जिसमें पारित प्रस्ताव का प्रस्तुतीकरण किया गया) संगठन के प्रारम्भिक कार्य माने जाते हैं ।

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इस प्रस्ताव पर 5,000 से अधिक श्रमिकों ने हस्ताक्षर कर द्वितीय कारखाना आयोग, बम्बई के सम्मुख अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया ।

सन् 1890 के लंकाशायर के एक कारखाना निरीक्षक जोन्स (Mr.Jones) के सर्वेक्षण के परिणामों तथा सरकार को दिये गये एक अन्य ज्ञापन ( जिस पर 17,000 श्रमिकों के हस्ताक्षर थे) को, जिसमें भारतीय श्रमिकों की दशाएँ सुधारने हेतु अपील की गयी, श्रम आन्दोलन के प्रेरक कहा जाता है, और सन् 1884 को श्रम आन्दोलन का प्रारम्भिक काल माना जाता है ।

इसी समय कुछ महत्वपूर्ण श्रम संघों की स्थापना हुई जिनमें ये उल्लेखनीय हैं:

(1) बम्बई मिल हैण्ड्स एसोसिएशन, 1890;

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(2) अमल्गेमेटेड सोसाइटी ऑफ रेलवे सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया एण्ड बर्मा, 1897;

(3) प्रिण्टर्स यूनियन कलकत्ता, 1905;

(4) बोम्बे पोस्टल यूनियन, 1907;

(5) कामगार हितवर्धक सभा, 1910;

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(6) सोशियल सर्विस लीग, 1910 |

इनके अतिरिक्त थियोसोफिकल सोसाइटी, मद्रास, सर्वेण्ट्स ऑफ इण्डिया सोसाइटी, बम्बई एवं ब्रह्म समाज, बम्बई भी श्रमिक संघों की प्रवर्तक संस्थाएँ कही जा सकती हैं । इस काल में अनेक नियोक्ता संघ एवं उत्पादक संघ भी स्थापित किये गये ।

इनका उद्देश्य उत्पादकों के अपने हितों की रक्षा करना, मजदूरी कार्य का समय, विश्राम आदि मामलों में एकरूपता लाने के लिए समान निर्णय लेना, आदि था । सन् 1879 से 1881 के बीच बॉम्बे एण्ड बंगाल चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स, बॉम्बे मिल ओनर्स एसोसिएशन, कलकत्ता ट्रेडर्स एसोसिएशन और ब्रिटिश इण्डिया एसोसिएशन की स्थापना की गयी ।

श्रम आन्दोलन को गति प्रदान करने में बंगाली तथा लोखण्डे का योगदान उल्लेखनीय है । इन दोनों की मृत्यु के उपरान्त श्रम संगठन में कुछ वर्षों तक शिथिलता आ गयी । बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में पुन: आन्दोलन को चेतना प्राप्त हुई जिसके लिए कुछ राजनीतिक कारण उत्तरदायी थे ।

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बंगाल का विभाजन, सन् 1905 का स्वदेशी आन्दोलन तथा बाल गंगाधर तिलक की कड़ी सजा भी आन्दोलन में तेजी जाने के लिए उत्तरदायी है । इतना होते हुए भी विकास की प्रगति धीमी रही, क्योंकि श्रमिक वर्ग निर्बल तथा अयोग्य था एवं संगठित श्रमिकों की संख्या कम थी ।

सन् 1875 से 1918 के काल में मुख्य घटनाएँ इस प्रकार हुई:

(a) श्रम आन्दोलन में उदासीनता थी । श्रमिकों द्वारा नियोक्ताओं को आवेदन-पत्र और स्मरण-पत्र प्रस्तुत करना तथा आवश्यकता होने पर दबाव डालकर अपनी माँगे मनवाना आदि मुख्य बाते थीं । इन विधियों के प्रयोग से पता लगता है, कि श्रम आन्दोलन लोखण्डे, बंगाली, एस.एन.बनर्जी एवं अन्य राजनीतिक नेताओं के हाथों में था ।

(b) श्रम आन्दोलन अधिकतर बाहरी विचारधारा नेतृत्च एवं आदर्शों पर निर्भर था

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”आदर्श एवं समाज सेवा के विचार ही भारत में श्रम आन्दोलन के प्रवर्तक रहे हैं । इनके विचार न्याय पर आधारित न होकर सद्‌भावना पर आधारित थे । आदर्श पर आधारित होने के कारण यह आन्दोलन एक प्रकार के श्रमिकों के लिए था, क्योंकि श्रमिक शोषित था, पिछड़ा हुआ था और दया का पात्र था । वह आन्दोलन श्रमिकों का नहीं था ।

एन.पी, रमन का कथन है कि ”ये संगठन केवल संस्थाएं थीं जो सुधारवादियों तथा परोपकारियों द्वारा बनायी गयी थीं जिनका उद्देश्य श्रमिकों को शोषण से बचाना न था न कि श्रमिकों के लिए उचित वातावरण तैयार करना या उन्हें स्वतन्त्रता प्रदान करना अथवा आर्थिक विकास की दृष्टि से उनके लिए रोजगार की उचित व्यवस्था करना था ।”

(c) अधिकांश संगठन अस्थायी तथा कमजोर थे । इनके संविधान तथा उद्देश्य भी निश्चित नहीं थे । श्रम संगठन किसी समस्या को लेकर बनते और समाधान होते ही पुन: समाप्त हो जाते । एक प्रकार से श्रम संघ तदर्थ नहीं थे । आरम्भिक काल में स्थापित हुए संगठनों में से लगभग 75% वर्ष 1920 तक समाप्त हो चुके थे ।

(d) उस समय सामूहिक सौदेबाजी तथा स्थायी श्रम संघ की सदस्यता का विचार विकसित नहीं हो पाया था ।

(e) यह आन्दोलन विशेषत: शिक्षित वर्ग तक सीमित था; जैसे, डाकखाना कर्मचारी, रेलवे कर्मचारी, आदि । सूती वस्त्र खनन तथा बागान उद्योगों में इसका अधिक विकास नहीं हो पाया ।

(f) इस समय स्थापित श्रम संघों की अस्थायी प्रकृति उनकी मुख्य विशेषता थी । इन संगठनों का विकास तो अवश्य हुआ, किन्तु ये श्रमिकों की विचारधारा के प्रतीक नहीं थे । श्रमिक इन संगठनों को तभी सहायता देते जब उन्हें हड़ताल, प्रदर्शन आदि के समय सहायता की आवश्यकता होती । इस कारण ये संगठन निर्बल थे ।

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(g) संगठन का प्रारम्भिक नेतृत्व शिक्षित, व्यक्तियों, वकीलों, सुधारवादियों, सम्पादकों, अध्यापकों के हाथ में था जो श्रमिकों के नेतृत्व के लिए तत्पर थे । जिन व्यक्तियों को अपने व्यक्तिगत विकास की थोड़ी आशा दिखायी देती, वही इस क्षेत्र में नेता बन जाता था ।

कुछ नेता राजनीतिज्ञ तथा राष्ट्रवादी विचारधारा के भी थे; जैसे, वी.पी. वाडिया, वी.वी. गिरि, एम. वरदाराजुलू नायडू, बी शिवाराव जिन्होंने श्रम आन्दोलन के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।


Essay # 2.  श्रम संघ का प्रारम्भिक काल (Beginning of Labour Union Era) (1918-1924):

भारतीय श्रम संघ आन्दोलन की दृष्टि से सन् 1918 एक महत्वपूर्ण वर्ष कहा जा सकता है, जबकि नये युग का आरम्भ हुआ । इस समय श्रम संघ का नेतृत्च समाज सुधारकों से हटकर राजनीतिज्ञों के हाथ में चला गया ।

प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर श्रम आन्दोलन स्थायी रूप लेने लगा । इसके प्रमुख कारण निम्न प्रकार थे:

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(i) युद्धजनित परिस्थितियों तथा आर्थिक कठिनाइयों के फलस्वरूप औद्योगिक अशान्ति का जन्म होना । वस्तुओं के मूल्यों में वृद्धि होने से रहन-सहन का स्तर महँगा हो गया जिससे श्रमिकों को बाध्य होकर संगठित होना पड़ा ।

(ii) स्वराज्य आन्दोलन की धारा में श्रम आन्दोलन को भी अधिक बल मिला तथा कर्मचारी-नियोक्ता के मध्य मतभेद बढ़ते गये । श्रमिकों ने जाति एवं वर्ण समानता की माँग उठायी जिससे उदासीनता द्वेष और बदले की भावना जाग्रत हुई और नये कीर्तिमानों तथा नये आदर्शो की स्थापना हुई ।

(iii) रूसी क्रान्ति के सफल होने के कारण सन् 1917 में एक विश्वव्यापी क्रान्ति की लहर दौड़ी जिससे श्रमिकों में स्वाभिमान तथा विकास की भावना जाग्रत हुई ।

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की स्थापना से श्रमिकों के दृष्टिकोण में सुधार हुआ तथा इस संस्था में प्रति वर्ष प्रतिनिधि भेजने से उनमें जागरूकता आयी ।

(v) विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरान्त कई सैनिकों को सेवा से निवृत्त कर दिया

गया । उन्हें यूरोपीय देशों में सुधरी हुई दशाओं के बारे में अनुभव था, जब भारतीय श्रमिकों की दशाएँ उन्होंने देखीं तो वे संगठित मोर्चा बनाने के लिए तैयार हो गये । सन् 1920 तक श्रमिकों की एक बड़ी सेना तैयार हो गयी और उसे संगठित होने का एक नय अवसर प्राप्त हुआ ।

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ग्रामीण व्यक्ति रोजगार प्राप्त करने के लिए उद्योगों की ओर आने लगे, इस समय तक कई संगठन बन चुके थे भारतीय नाविक संघ, बम्बई एवं कलकत्ता; कर्मचारी संगठन कलकत्ता; पंजाब प्रेस कर्मचारी संघ; जी.आई.पी रेलवे मजदूर संघ; एम.एण्ड एम.एस. रेलवेमैन संघ, मद्रास तथा मद्रास वस्त्र उद्योग श्रमिक संघ ।

सन् 1917 से 1919 के अन्त तक कुल मिलाकर 17 नये संघ स्थापित हो चुके थे । संघों का विकास जूट एवं सूती वस्त्र उद्यो, रेलवे तथा परिवहन उद्योग में अधिक हुआ । युद्धकाल में श्रम संघ आन्दोलन ने नया रूप लिया ।

इस समय श्रम संघों के विकास, संघों में पारस्परिक सहयोग, श्रमिकों की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, औद्योगिक शान्ति तथा विभिन्न अधिनियमों के बनाये जाने से श्रम संघों में दृढ़ता आयी ।

सन् 1920 में राष्ट्रवादी विचारधारा के व्यक्तियों ने अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (All Indian Trade Union Congress) की स्थापना की । इस संघ की स्थापना का उद्देश्य अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन में भारत से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि का चुनाव करना, विभिन्न संघों में समन्वय स्थापित करना तथा श्रमिकों का आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक उत्थान करना था । एटक से सम्बद्ध संघों की संख्या 125 तथा सदस्य सख्या 2.5 लाख थी ।

गाँधीजी के आह्वान पर सन् 1920 में अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोसिएशन की स्थापना की गयी । इस वर्ष इसके सदस्यों की संख्या 16,450 हो गयी । यह अनुमान किया जाता है, कि उस समय 2.5 लाख से 5 लाख श्रमिक इन संघों के सदस्य बन चुके थे ।

सूती वस्त्र उद्योग में यह आन्दोलन अधिक प्रगति नहीं प्राप्त कर सका । इसका विकास रेलवे डाक-तार जहाजरानी, इंजीनियरिंग एवं स म्बादवाहन उद्योगों में ही अधिक हुआ । खनन उद्योग, जूट एवं सूरती वस्त्र उद्योगों में यह आन्दोलन प्राय: निर्बल था ।

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कई संघों की स्थापना अस्थायी कारणों से भी हुई जो उद्देश्य पूर्ति के बाद पुन: भंग हो गये । अधिकांश संघ केवल नाममात्र के थे लगभग 75% संघ जो इस बने शीघ्र ही समाप्त हो गये ।

राजनीतिक नेता जो श्रम संघों का सक्रिय रूप में नेतृत्व कर रहे थे और जो साम्यवादी विचारधारा के थे, उनमें श्रीपत अमृत डांगे, एस.एम.मिराजकर, धुन्धीराज ठेंगडी; आर.एस.एस निम्बालकर, फिलिप स्याह एवं एस सक्लातवाला मुख्य थे ।


Essay # 3. साम्यवादी विचारधारा काल (Communist Thought Era) (1924-1935):

सन् 1924 में लम्बे समय तक टाली जा रही हड़ताल भड़क उठी जिससे साम्यवादी नेताओं की धड़-पकड़ एवं गिरफ्तारियाँ हुईं इससे इन नेताओं की प्रतिष्ठा को काफी धक्का पहुँचा । सन् 1924 में इन्हीं नेताओं का प्रभाव बढ़ गया ।

वे गिरनी कामगार संघ में बम्बई सूती वस्त्र उद्योग के मजदूरों को सम्मिलित करने में सफल हुए तथा जी.आई.पी रेलवे के कर्मचारियों को जी.आर.पी रेलवेमैन्स संघ में अधिक मात्रा में सदस्य बना पाये ।

इन दोनों संघों की सदस्यता क्रमश: 54,000 तथा 45,000 थी और बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता तथा अहमदाबाद के श्रम संघों में मार्क्सवादियों की घुसपैठ हो गयी । इनका इतना अधिक प्रभाव था कि सन् 1929 में विश्व का सबसे बड़ा विवाद- मेरठ षड्‌यन्त्र विवाद (Meerut Conspiracy Case) प्रस्तुत हुआ था जो 4.5 वर्ष तक चला जिसमें लगभग 1.6 लाख रुपये व्यय हुए ।

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इस विवाद के फलस्वरूप दीवान चमनलाल, वी.वी.गिरि; एन.एम.जोशी; बी शिवाराज तथा एस गुरुस्वामी जैसी वामपन्थी श्रमिक नेताओं पर श्रमिकों से विवाद उठ गया । इस विवाद में एटक में भी फूट पड़ गयी जो एटक नागपुर सम्मेलन में (सन् 1929 में) प्रकाश में आयी ।

यह सम्मेलन पण्डित जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुआ था । इस सम्मेलन में ह्वीटले आयोग की सिफारिशों को अमान्य करना; एटक को विस्तारवाद के विरुद्ध लीग से सम्बद्ध करना तथा पान-पैसेफिक श्रम संघ सचिवालय (एक साम्यवादी संगठन का रूप) से सम्बद्ध रखने, आदि बातों पर मतभेद हुआ ।

साम्यवादियों से समझौता नहीं होने पर वामपन्थी श्रमिक नेता अपने 24 सम्बद्ध श्रम संघों सहित एटक से पृथक् हो गये । उनकी मान्यता थी कि नयी व्यवस्था में नये व्यक्तियों का बहुमत होने से प्रशासन समिति श्रमिकों के मूलभूत हितों की रक्षा नहीं कर पायेगी । अत: उन्होंने इण्डियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन (ITUF) की स्थापना की ।

सन् 1931 में एटक के कलकत्ता सम्मेलन में साम्यवादी तथा समाजवादी नेताओं के बीच एक ओर मतभेद हो गया । फलत: साम्यवादियों ने बीटी रानादीव तथा एस.बी.देशपाण्डे के नेतृत्व में रेड ट्रेड यनियन कांग्रेस (IRTUC) की स्थापना की ।

इस प्रकार सन् 1930 के प्रारम्भ में श्रम संगठन अलग होने लगे । उस समय तीन महत्वपूर्ण संघ ये थे: AITUC,ITUF, और RTUC । राष्ट्रवादी विचारधारा के लोग एटक से तथा शेष दो संघों से वामपन्थी एवं पुरानी विचारधारा के साम्यवादी नेता सम्बन्धित थे ।

संघों में प्रारम्भ से ही मनमुटाव होना श्रम संघों के तथा श्रमिकों के हित में नहीं था । ऑल इण्डिया रेलवेमैन्स फेडरेशन (AIRF) ने पहल करके संघों में पुन: एकता स्थापित करने की चेष्टा की ।

इस फेडरेशन ने सन् 1932 की बम्बई बैठक में संघ एकता समिति स्थापित की जिसके अनुसार, ”श्रम संघ वर्ग विवाद का अंग है । इसका मूल कार्य श्रमिक को संगठित करना उनके अधिकारों व हितों की रक्षा करना है । विचारविमर्श प्रतिनिधित्व तथा सामूहिक सौदेबाजी के उपायों का प्रयोग श्रम संघ क्रियाओं का अभिन्न अंग है ।”

इस समिति ने कुछ ऐसे निर्णय भी लिये जो दोनों पक्षों (ITUF और AITUS) को मान्य थे । सन् 1933 में अन्तिम निर्णय लिया गया जब दिल्ली में नेशनल फेडरेशन ऑफ लेबर (NFL) की स्थापना की गयी एवं ITUF का उसमें विलीनीकरण किया जाकर सम्मिलित संघ को नया नाम नेशनल ट्रेड यूनियन फेडरेशन (NTUF) दिया गया । AITUC तथा RTUCE पृथक् इकाइयाँ ही रहीं ।

भारतीय श्रम आन्दोलन का इस प्रकार बंट जाना श्रमिकों के लिए हानिकारक रहा । बम्बई में सन् 1933 में 50,000 से अधिक श्रमिकों की छँटनी कर दी गयी । सन् 1934 में बम्बई की सभी मिलों में मजदूरों की दरों में कटौती की गयी ।

सन् 1933 में 21.7 लाख मानव दिन नष्ट हुए । इनकी संख्या 1934 में बढकर 47.7 लाख हो गयी । श्रम आन्दोलन बड़े कष्ट से निकला तथा उसकी शक्ति छिन्न-भिन्न होकर कई भागों में बंट गयी ।


Essay # 4. श्रम संघ काल (Trade Union Period) (1935-39):  

सन् 1934 में पण्डित हरिहरनाथ शास्त्री की अध्य क्षता में ट्रेड यूनियन कांग्रेस का वार्षिकोत्सव हुआ । इसमें कांग्रेस तथा साम्यवादियों में समझौता हो गया तथा रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (RTUC) तथा AITUC मिलकर एक हो गये ।

सन् 1938 में वी.वी.गिरि के प्रयत्नों से नेशनल ट्रेड यूनियन फेडरेशन (NTUF) का भी INTUC में विलय हो गया तथा इन प्रयत्नों से AITUC एक शक्तिशाली संगठन बन गया । इस समय 1934 में जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में पटना में समाजवादी दल की स्थापना हुई ।

यह कहा जा सकता है कि 1935 से 1939 के काल में श्रम संघों के विघटन का कोई कार्य नहीं हुआ । पहले से बंटे हुए संघ मिलकर एक हो गये । गाँधीवादी विचारों का प्रयोग श्रम क्षेत्र में किया जाने लगा ।

अहमदाबाद कपड़ा मजदूर संगठन से सम्बद्ध हिन्दुस्तान मजदूर सेवक संघ की स्थापना श्रम सलाहकार समिति के रूप में की गयी । यह संघ अहिंसा, सच्चाई एवं त्याग के सिद्धान्तों में विश्वास करता था ।


Essay # 5. श्रम संघ और द्वितीय महायुद्ध काल (Trade Unions and Second World War Period) (1939-1946):

द्वितीय महायुद्ध (जो सितम्बर 1939 से प्रारम्भ हुआ) ने श्रम आन्दोलन में नयी गति प्रदान की । उग्र प्रजातन्त्रीय पार्टी के अधिकांश सदस्य इस पक्ष में थे कि AITUC को फासिस्ट युद्ध के विरुद्ध अपना समर्थन देना चाहिए । इस विचारधारा के समर्थक सर्वश्री एम.एन.राव, जे मेहता, मिस मनीबेन कारा तथा वी.वी.कार्निक थे ।

दूसरा समूह (श्री एस सी बोस एवं अन्य साथियों द्वारा समर्थित था) उपर्युक्त विचारधारा के विरुद्ध था । उनका कहना था कि यह युद्ध ब्रिटेन की विस्तारवादी नीति से सम्बन्धित है, अत: इसका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं है, इस प्रकार के भिन्न विचारों के कारण उग्रवादियों ने AITUC का परित्याग कर दिया ।

त्याग करने वालों में 200 श्रम संघों के 3 लाख सदस्य थे । इन्होंने अपना एक पृथक् संघ इण्डिन फेडरेशन ऑफ लेबर (IFL) बनाया । सन् 1942 में इस संस्था को सरकार से मान्यता प्राप्त हो गयी ।

IFL ने:

(i) श्रम संघ को औद्योगिक उत्पादन कार्यक्रम में सहभागिता हेतु आह्वान किया;

(ii) युद्धजनित परिस्थितियों के कारण इस संघ ने श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी प्रदान करने तथा कार्य की दशाएँ सुधारने मशीनें बदलने आदि कार्यों का आह्वान किया । यह अनुभव किया गया कि सुधारात्मक प्रयासों के अभाव में श्रमिकों का नैतिक स्तर नहीं सुधारा जा सकता है ।

भारत सरकार द्वारा इस कार्य को 13,000 रुपए प्रति माह स्वीकृत किये गये । सन् 1944 तक IFL का तेजी से विकास हुआ । उस समय 222 संघ इससे सम्बद्ध थे जिनकी सख्या 4.7 लाख थी ।

राष्ट्रीय राजनीति के साथ भारतीय आन्दोलन में परिवर्तन होने लगे । दो महत्त्वपूर्ण बातों का श्रम आन्दोलन पर प्रभाव पड़ा: सन् 1941 में जर्मनी द्वारा रूस पर आक्रमण तथा सन् 1942 में भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में तेजी आना । जब हिटलर ने रूस पर आक्रमण किया तब साम्यवादियों ने युद्ध का समर्थन करने की घोषणा की ।

अत: जुलाई सन् 1942 में स भी साम्यवादी नेताओं को जेल से छोड़ दिया गया । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने युद्ध आरम्भ होने के समय से असहयोग प्रारम्भ कर दिया था । 9 अगस्त, 1942 को ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन चिनगारियों के रूप में प्रकट हुआ ।

बड़ी संख्या में कांग्रेसी तथा समाजवादी पकड़े गये और उन्हें जेलों में ठूंस दिया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि AITUC का नेतृत्व साम्यवादियों के हाथों में आ गया । युद्ध के अन्तिम दिनों तक AITUC तथा IFL के नेताओं में काफी वैमनस्य उत्पन्न हो गया ।

सन् 1944 में भारत सरकार के मुख्य श्रम आयुक्त का कथन था कि ”AITUC का प्रभाव हर दृष्टि से बढ रहा है तथा IFL शनै-शनै: अपना प्रभाव खो रहा है ।” इस प्रकार की धारणा का आधार IFL की सदस्यता AITUS की तुलना में कम होना था ।

विश्वयुद्ध के अन्त तक तीन प्रमुख राजनीतिक पाटियाँ भारत में थीं; साम्यवादी जो AITUS पर छायी थी; शाही लोग (Royalists) जो IFL का नेतृत्व कर रहे थे; तथा राष्ट्रवादी एवं समाजवादी जो अहमदाबाद एवं जमशेदपुर में अपना श्रम मंच चाहते थे ।

युद्ध का श्रम संघों की कार्य प्रणाली पर गहरा प्रभाव पड़ा । श्रम संघों में सौदेबाजी तथा नियोक्ताओं के साथ विचार विमर्श की क्षमता आ गयी । इस काल में श्रम संघों की संख्या में काफी वृद्धि हुई इनकी संख्या 1939-40 में 667 थी; वह 1944-46 में बढ्‌कर 865 हो गयी तथा सदस्यता 5,11,000 से बढ्‌कर 8,89,000 हो गयी ।

1946-47 में श्रम संघों की संख्या 1,833 हो गयी तथा सदस्य संख्या 13.41 लाख हो गयी । श्रम संघों की प्रगति के कारण मूल्य वृद्धि, श्रमिकों की जागृति, युद्धकालीन पंच-निर्णय थे । इण्डियन ट्रेड यूनियन एक्ट, 1946; इण्डस्ट्रियल रिलेशन्स एक्ट, 1946 तथा औद्योगिक बिल आदि भी श्रम जागृति में सहायक रहे हैं ।


Essay # 6. श्रम संघ और वर्तमान काल (Trade Unions and Modern Period) (1947 से अब तक):

जब AITUC का पुनर्संगठन करने के लिए सभी प्रयास असफल रहे तो कुछ नेता संगठन से अलग हो गये और उन्होंने सन् 1947 में इण्डियन नेशनल यूनियन कांग्रेस (INTUC) की स्थापना की । कांग्रेस की गाँधीवादी विचार धारा की शाखा हिन्द मजदूर संघ द्वारा INTUC की स्थापना की गयी ।

यह संघ अहमदाबाद सूत्री वस्त्र उद्योग संघ से सम्बन्धित था इस प्रकार अहमदाबाद टेक्सटाइल्स लेबर एसोसिएशन (ATLA) से इण्टक को 55000 रुपए की प्रारम्भिक सदस्यता प्राप्त हुई । इसका कारण यह है कि INTUC के अधिकांश नेता अहमदाबाद के ही थे ।

ओरण्टी का कथन है कि, ”विचाधारा तथा प्रशासन की दृष्टि से INTUC अहमदाबाद से ही सम्बद्ध है । इसमें अहमदाबाद टेक्सटाइल लेबर एसोशिएशन की अधिक सदस्यता का कारण अधिक धन तथा अनुभव था । INTUC अहमदाबाद अन्तर्राष्ट्रीय कनफेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन (ICFUT) से सम्बद्ध थी ।

सदस्यता ग्रहण करते समय इण्टक से 200 संघ सम्बद्ध थे जिनकी 5,57,000 सदस्यता थी । इस संघ ने अपनी सदस्यता तथा सम्बद्धता में शीघ्र वृद्धि की । इसके कारण तीस वर्षों से ख्यातिप्राप्त संघ AITUC, जो ”भारतीय श्रमिक की आवाज” कहा जाता था अपना अस्तित्व खो बैठा ।

कहा जाता है कि INTUC ने श्रमिकों को एक नयी दिशा प्रदान की तथा विवादों का निर्णय करने की दृष्टि से नये विचार प्रस्तुत किये । आरम्भ से ही INTUC ने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए इण्डियन नेशनल कांग्रेस की नीतियों का समर्थन किया ।

INTUC के संविधान में स्पष्ट है, कि विवाद का निवारण आपसी विचार-विमर्श, समझौता प्रणाली और यदि अत्यन्त आवश्यक है। तो पंचनिर्णय अथवा न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए । यह संघ प्रजातन्त्रीय प्रणाली में विश्वास करता है, जो भारतीय परम्परा संस्कृति तथा निवासियों की भावना के अनुरूप है ।

जब सन् 1948 में कांग्रेस से समाजवादी समूह अलग हुआ तथा एक नयी पार्टी प्रजा-समाजवादी पार्टी (PSP) बनी तो उन सभी पृथक् हुए व्यक्तियों ने हिन्द पंचायत (HMP) की स्थापना की । यह संगठन एवं IFL दोनों मिलकर बाद में हिन्द मजदूर सभा (HMS) में परिणत हुए ।

इनका मूल उद्देश्य समाजवादी व्यवस्था की प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली का प्रयोग करना है । इस संस्था ने श्रम संगठन को राजकीय प्रभाव से मुका करने, राजनीतिक चुंगल से बाहर निकालने तथा शान्तिपूर्ण ढंग से कार्य करने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया ।

साम्यवादी नेता जो समाजवादी नेताओं से असन्तुष्ट थे, कलान्तर में HMS से फिर अलग हो गये । सन् 1949 में यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (UTUC) की स्थापना की गई ।

इसका उद्देश्य श्रम संघों की क्षेत्रीय राजनीति से दूर रखकर उनमें एकता स्थापित करना था । वामपन्थियों द्वारा नियन्त्रित UTUC ने साम्यवादी नेताओं के साथ सहयोग किया यद्यपि ये क्रान्ति के विरुद्ध थे ।

इस प्रकार सन् 1949 से श्रम संघ पुन: बंट गये । उस समय चार मुख्य संघ INTUC, AITUC, HMS तथा UTUC विद्यमान थे । इनके अतिरिक्त कुछ राष्ट्रीय फेडरेशन तथा असेम्बद्ध श्रम संघ भी कार्यशील थे ।

INTUC का काग्रेस के साथ, HMS का वामपंथियों के साथ तथा AITUC का साम्यवाद के साथ तथा UTUC का समाजवाद के साथ होना श्रम आन्दोलन के राजनीतिक रूप का प्रतीक है । इन चारों केन्द्रीय संगठनों के अतिरिक्त अन्य फेडरेशन भी 1950 के बाद स्थापित किये गये हैं ।

1955 में जनसंघ पार्टी ने भारतीय मजदूर संघ (BMS) स्थापित किया । 1859 में हिन्द मजदूर पंचायत (HMP), 1962 में दि फेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन्म (The Federation of Free Trade Unions), 1970 में सेण्टर ऑफ इण्डियन ट्रेड यूनियन (Centre of Indian Trade Union-CITU) की स्थापना हुई है ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त श्रम संघ आन्दोलन से महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए ।

इसके महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार है:

(a) बाहरी तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रभावों का निरन्तर आवागमन,

(b) विरोधी विचारधाराओं का प्रभाव तथा राजनीतिक विचारों का पूथक्करण,

(c) सरकार का अनिवार्य पंच-निर्णय प्रणाली से सम्बन्ध एवं नीति निर्धारण,

(d) विभिन्न अधिनियमों द्वारा श्रम सघों को लाभान्वित करना,

(e) श्रमिकों द्वारा अपने स्वयं के हितों की रक्षा करने के लिए संगठित होना तथा कार्य की दशाओं में सुधार, छंटनी सेवा से निवृत्ति, आदि परिस्थितियों से सामूहिक मोर्चा लेना, तथा

(f) कुछ नियोक्ताओं द्वारा श्रमिक संघों को प्रोत्साहन देना ।

इन तत्वों के प्रभाव से श्रम संघों की संख्या जो 1947-48 में 2,766 थी, वह 1951-52 में 4,623 1961-62 में 11,416 व 1979 में 33,023 हो गई । इसी प्रकार इनकी सदस्य सख्या भी बढ़ गई ।

1951-52 में इनकी सदस्य संख्या 20 लाख थी जो 1961-62 में 39.6 लाख व 1979 में 46.6 लाख हो गई । 1996 में पंजीकृत श्रम संघ लगभग 55 हजार तथा उनके सदस्यों की संख्या लगभग 70 लाख हो गई । 2002 में पंजीकृत श्रम संघों की संख्या 64,817 तथा सदस्यों की संख्या 64 लाख थी ।

भारत में पिछले कुछ दशकों में श्रम-संघ आन्दोलन की प्रगति निम्न प्रकार रही – लाखों में):

श्रम संघों की नियमित वृद्धि तथा विकास निम्न तथ्यों से ज्ञात होता है:

1920:

एटक की स्थापना हुई जो आरम्भ में श्रमिकों का एकमात्र प्रतिनिधि संघ था ।

1926:

श्रम संघ को श्रम संघ अधिनियम, 1926 के अन्तर्गत मान्यता प्रदान की गई ।

1927:

गैर-साम्यवादी समूह (एन.एम.जोशी के नेतृत्व में) AITUC से पृथक् हो गया, ह्वीटेल कमीशन को मान्यता न देने तथा AITUC को पैसेफिक ट्रेड यूनियन सेक्रट्रियेट से सम्बद्ध करने हेतु नागपुर सम्मेलन एवं मतभेद के कारण इण्डियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन (ITUF) को 1930-32 में स्थापना ।

1931:

साम्यवादियों ने AITUC छोड़ी तथा बी.टी राणादीव तथा एस.बी.देशपाण्डे ने कलकत्ता सम्मेलन में मतभेद के उपरान्त रेड ट्रेड यूनियन काग्रेस (RTUC) की स्थापना की । (1931-35)

1933:

ITUF तथा AITUC में एकता दोनों संधों में मिलकर नए श्रम संघ नेशनल ट्रेड यूनियन फेडरेशन (NTUF) की स्थापना की ।

1935:

RTUC का AITUC में विलय ।

1940:

NTUF का AITUC में विलय । इसके साथ ही AITUC भारतीय श्रम का प्रतिनिधित्व करने वाली एकमात्र संस्था रह गई ।

1941:

उग्रवादी प्रजातन्त्रीय पार्टी ( एम.एन.रॉय) तथा AITUC का युद्ध प्रयासों के प्रश्न पर मतभेद होने के पृथक्करण तथा इण्डियन फेडरेशन ऑफ लेबर (IFL) का गठन ।

1947:

(i) शिखर कांग्रेस नेता AITUC से पृथक् हुए तथा इण्डियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC) की स्थापना की । टैक्सटाइल लेबर ऐसोसिएशन अहमदाबाद (ATLA) में भी इसकी सदस्यता स्वीकार की ।

(ii) कांग्रेस से समाजवादी पार्टी ने पृथक् होकर हिन्द मजदूरी पंचायत (HMP) नामक नया संघ स्थापित किया ।

(iii) मध्यमार्गी (Royalist Party) नेताओं ने श्रम संघों की राजनीति से अलग किया और इसके फलस्वरूप ऑल इण्डिया ऑफ लेबर समाप्त हो गया ।

1948:

HMP तथा IFL दोनों मिलकर हिन्द मजदूर सभा में परिणत हो गईं ।

1949:

AITUC से बाहर निकले हुए व्यक्तियों ने प्रों.के.टी शाह के नेतृत्व में यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (UTUC) की स्थापना की ।

1959:

कांग्रेस पार्टी ने घोषणा की जो व्यक्ति श्रम श्रेत्र में INTUC के माध्यम से ही कार्य करेंगे ।

1962:

फेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन की स्थापना हुई ।

1970:

सेण्टर ऑफ इण्डियन यूनियन की स्थापना हुई ।

1982:

श्रम संघ संशोधित अधिनियम, 1982 बनाया गया ।

(1) भारतीय राष्ट्रीय श्रम संघ कांग्रेस (Indian National Trade Union Congress):

इस प्रकार संगठन की स्थापना सन् 1947 में कांग्रेस पार्टी के नेताओं द्वारा की गई ।

इस संगठन के मूल उद्देश्य इस प्रकार हैं:

(i) निर्बाध समाज व्यवस्था स्थापना करना जिससे उद्योग के सभी सदस्य अपनी उन्नति कर सकें ।

(ii) सभी श्रेणी के कर्मचारियों का पूर्ण प्रभावी संगठन बनाना ।

(iii) कार्य तथा रहन-सहन की दशाओं में तथा श्रमिकों के औद्योगिक एवं सामाजिक स्तर में सुधार करना ।

(iv) बिना कार्य रोके विवादों तथा समस्याओं का समाधान खोजने का प्रयास करना । इस निमित्त विचार-विमर्श, समझौता प्रणाली, पंच-निर्णय न्यायाधिकरण, आदि विधियों का सहारा लेना ।

(v) श्रमिक में उद्योग तथा समुदाय के लिए उत्तरदायित्व की भावना जाग्रत करना ।

(vi) श्रमिक की दक्षता तथा उसके अनुशासन स्तर को बढ़ाना ।

(vii) तीव्रता से सामाजिक, आर्थिक एवं सामाजिक शोषण तथा असमानता को कम करना । समाज विरोधी क्रियाओं, अधिलाभ अर्जन तथा संगठनात्मक समाज विरोधी कार्यवाहियों को रोकना ।

इन उद्देश्यों को शान्तिपूर्ण ढंग से प्राप्त करना INTUC का लक्ष्य है । INTUC ने इस बात पर बल दिया है, कि उद्योग पर राष्ट्रीय स्वामित्व होना चाहिए तथा उन पर सरकार का समुचित नियन्त्राग होना चाहिए । उद्योगों में श्रमिकों का अधिकाधिक सहयोग प्राप्त किया जाना चाहिए तथा प्रबन्ध में उन्हें सहभागिता का अवसर प्रदान किया जाना चाहिए ।

यह संस्था अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) से सम्बद्ध है, तथा अन्तर्राष्ट्रीय विश्व श्रम संघ के महासंगठन की प्रारम्भिक सदस्य है । यह एक साप्ताहिक पत्रिका इण्डियन वर्कर भी प्रकाशित करती है, और शोध कार्य तथा सूचना कक्ष भी चलाती है ।

(ii) हिन्द मजदूर सभा (HMS):

इस संघ की स्थापना दिसम्बर 1948 में हुई, जब समाजवादी विचारको ने कांग्रेस से अपना सम्बन्ध तोड़ लिया । अब यह वास्तव में प्रजा समाजवादी दल का मुख्य अंग है । इसके सविधान के अनुसार, “इसका मूल उद्देश्य भारत में समाजवादी समाज की स्थापना करना तथा श्रमिकों के आर्थिक राजनीतिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक हितों की रक्षा करना ह ।”

सभा के अन्य उद्देश्य इस प्रकार हैं:

(i) श्रमिकों के मानसिक तथा शारीरिक विकास हेतु पर्याप्त अवसर प्रदान करना ।

(ii) सभी श्रमिकों को न्यूनतम आजीविका वेतन दिलाना ।

(iii) प्रत्येक श्रमिक को कार्य की गारण्टी देना ।

(iv) श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा के पूरे उपाय करना तथा पर्याप्त चिकित्सा उपलब्ध कराना ।

(v) श्रमिकों को विश्राम हेतु पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध कराना, कार्य के घण्टे निश्चित करवाना तथा सवेतन छुट्टियों का प्रावधान कराना ।

(vi) श्रमिकों को उपयुक्त आवासीय सुविधा प्रदान करना ।

(vii) निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा लागू करना और व्यावसायिक शिक्षा हेतु आवश्यक व्यवस्था करना ।

(viii) सामूहिक सौदेबाजी के अधिकार को प्रभावी मान्यता प्रदान करवाना ।

यह संगठन इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शान्तिपूर्ण तथा प्रजातन्त्रात्मक विधियों पर बल देता है । यह संस्था अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संघ के महासंगठन से सम्बद्ध है । यह संस्था एक मासिक पत्रिका ‘हिन्द मजदूर’ प्रकाशित करती है ।

(iii) अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC):

इस संगठन की स्थापना सन् 1920 में हुई । प्रारम्भ से ही इसने ब्रिटेन की ट्रेड की यूनियन कांग्रेस का अनुकरण किया है । अब इसमें साम्यवादियों का आधिक्य है । इसका उद्देश्य भारत में समाजवादी समाज की स्थापना करना उत्पादन विनिमय एवं वितरण के साधनों का समाजीकरण एवं राष्ट्रीयकरण करना है ।

इसकी मान्यता है, कि समाजवादी प्रणाली में श्रम एवं पूँजी एक होकर रह नहीं सकते तथा श्रम संघ वर्ग-संघर्ष के कारण उत्पन्न होते हैं ।

AITUC ने जहाँ कहीं भी एवं जब कभी आवश्यकता हुई श्रमिकों की आर्थिक सामाजिक एवं राजनीतिक हितों की सुरक्षा करने का प्रयत्न किया । इसका एक मुख्य कार्य सभी सम्बद्ध संघों का समन्वय करना तथा उनकी कार्यप्रणाली को नियमित करना रहा है । श्रम संघों को उचित नेतृत्व प्रदान करने का श्रेय इस संगठन को है ।

यह संगठन विश्व ट्रेड यूनियन फेडरेशन से सम्बद्ध है । यह विश्व मजदूर नामक एक हिन्दी पत्रिका प्रकाशित करता है ।

(iv) संयुक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस (Union Trade Union Congress):

इस संघ की स्थापना सन् 1949 में हुई जबकि सन् 1948 के श्रम संघ नेताओं के सम्मेलन में कुछ समाजवादी नेता हिन्दू मजदूर सभा के उद्देश्यों से सहमत नहीं हुए । इन असन्तुष्ट नेताओं ने मिलकर एक पृथक् संगठन की स्थापना की ।

इस संगठन का मूल उद्देश्य श्रम संघ के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कार्य करना तथा एक केन्द्रस्तरीय संगठन स्थापित करना है, जिसमें दलगत राजनीति का हस्तक्षेप न हो और संगठन राजनीतिक प्रभाव से पूर्णत: मुक्त हो ।

”संयुक्त ट्रेड यूनियन कांग्रेस का सामान्य उद्देश्य श्रम आन्दोलन को शुद्ध रूप में स्थापित करना तथा इसे दलगत राजनीति से यथा सम्भव दूर रखना है । इसका नेतृत्च वास्तव में वामपन्थी नेताओं के हाथ में था जिनकी नीति समाजवादी समाज की स्थापना करना, भारत में श्रमिकों एवं कृषकों का पृथक् समाज बनाना उत्पादन विनिमय तथा वितरण का राष्ट्रीयकरण करना है । इस संघ का भारतीय साम्यवादी पार्टी से सम्बन्ध नहीं फिर भी यह वामपन्थी विचारधारा से ओत-प्रोत है, और साम्यवादियों के साथ सहयोग करने को तैयार है । इसकी कार्यप्रणाली भारत सरकार की वर्तमान श्रम नीति के विरुद्ध है ।”

”प्रत्येक देश में श्रम संघों की स्थापना आर्थिक उत्थान की दृष्टि से ही नहीं होती वरन् राजनीतिक दशाओं तथा समाजिक ढाँचे के अनुरूप होती है ।” भारत इस दृष्टि से अधिक पृथक् नहीं है । उपयुक्त ( चार) संगठन सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हैं । ये संगठन राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में सामयिक विचार-विमर्श के लिए अपने प्रतिनिधि भेजते हैं ।

(v) अन्य संघ (Other Unions):

इन चार संगठनों के अतिरिक्त निम्नलिखित संगठन 1950 के उपरान्त स्थापित हुए:

(1) जनसंघ द्वारा सन् 1955 में भारतीय मजदूर संघ की स्थापना की गई ।

(2) सयुक्त सोशलिस्ट पार्टी द्वारा सन् 1965 में हिन्दू मजदूर पंचायत की स्थापना की गई ।

(3) स्वतन्त्र पार्टी तथा द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) द्वारा अपने संघ स्थापित किए गए ।

(vi) इसके अतिरिक्त निम्नलिखित राष्ट्रीय संगठन और कार्य कर रहे हैं:

(i) अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ,

(ii) नेशनल फेडरेशन ऑफ पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ वर्कर्स,

(iii) ऑल इण्डिया वर्कर्स एसोसिएशन,

(iv) नेशनल फेडरेशन ऑफ इण्डियन रेलवेमैन ।

ये संघ केन्द्रीय स्तर पर सम्बद्ध नहीं हैं ।

सन् 1962 मे एक संगठन की स्थपना की गई जिनका नाम कनफेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन (Confederation of Free Trade Unions-CFTU) है । इसके निर्माण में इण्टरनेशनल कनफेडरेशन ऑफ क्रिश्चियन ट्रेड यूनियन ने काफी रुचि दर्शायी तथा इसे स्वतन्त्र पार्टी का समर्थन प्राप्त था ।

सन् 1970 में एटक से पृथक् होकर कुछ व्यक्तियों ने सेण्टर ऑफ इण्डियन ट्रेड यूनियन्स (Centre of Indian Trade Unions-CITU) की स्थापना की । इस प्रकार की दरार इण्टक में भी पड़ी तथा सन् 1971 में गुजरात में मजूर महाजन (Majur Mahajan) एक सुदृढ़ श्रम-संघ के रूप में गठित किया गया ।

कुछ समय पूर्व संगठन कांग्रेस द्वारा यह निश्चित किया गया कि इण्टक से कांग्रेस पार्टी के सम्बन्ध-विच्छेद कर दिए जाएँ तथा इस विचारधारा वाले श्रम संघ नेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन (NLO) से सम्बद्ध कर दिए जाएं । गुजरात तथा केरल में कुछ संघों ने NLO की सदस्यता ग्रहण कर ली है ।

भारत में श्रम संघ आन्दोलन दो अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों से सम्बद्ध है:

(i) वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियन्स (WFTU) ने जो सन् 1946 में स्थापित हुई थी; तथा

(ii) इण्टरनेशनल कनफेडरेशन ऑफ फ्री ट्रेड यूनियन (ICFTU) सन् 1949 में स्थापित हुई थी । इन अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों में भारत विकासशील देशों तथा विशेषकर एशियाई श्रम का प्रतिनिधित्व करता है ।

संक्षेप में जी.डी.एच. कोल के शब्दों को दोहराना उचित होगा, ”प्रत्येक देश में श्रम संगठन का रूप राजनीतिक दशाओं तथा सामाजिक स्तर पर निर्भर करता है ।” भारत इसका कोई अपवाद नहीं है । भारतीय श्रम संघ का भी विभिन्न राजनीतिक तथा सामाजिक वातावरण के अनुसार समय-समय पर रूप परिवर्तित होता रहता है । प्रो.ओराण्टी के शब्दों में, ”1947 तक श्रम संघ के नाम से राष्ट्रीय आन्दोलन भारत में चलता रहा ।”

भारत में श्रम संघ लगभग अर्द्धशताब्दी से कार्यरत हैं, किन्तु स्वतन्त्रता प्राप्ति के उपरान्त इन्हें अधिक प्रोत्साहन मिला है । इनकी शक्ति तथा स्थायित्व निश्चित हो गया है । श्रम संघ गैर-निर्माणी संस्थाओं के कर्मचारियों के लिए भी बने हैं ।

बी.बी.कार्निक के शब्दों में, ”40 वर्षों के त्याग के उपरान्त श्रम संघों ने अब अपना स्थान बना लिया है । श्रमिकों ने संगठित होने का महत्व जान लिया है तथा श्रम संघ, राष्ट्रीय संघों के रूप में विकसित हो रहे हैं ।”

नियोक्ताओं ने यह अनुभव कर लिया है, कि श्रम संघों की वृद्धि को रोकना अब सम्भव नहीं है, वस्तुत: वे यह भी समझने लगे हैं, कि श्रम संघ विघटन या विध्वंसकारी संस्थाएँ हैं, अपितु अपने क्रियाकलापों द्वारा ये लाभकारी संस्थाएँ सिद्ध हुई हैं ।

सरकार भी यह मानने लगी है कि औद्योगिक शान्ति एवं उत्पादन वृद्धि के लिए श्रम सघों का होना अनिवार्य है ।

सरकार की इस मान्यता के साथ ही समाज की विचार धारा में भी परिवर्तन हुआ है । सामान्य धारणा अब श्रम संघ के पक्ष में है, कि श्रम संघ स्वतन्त्र रूप में भली भाति कार्य कर रहे हैं । विचारधारा मे यह परिवर्तन श्रम आन्दोलन में क्रान्ति कहा जा सकता है । श्रम संघ राष्ट्रीय निर्माण की दृष्टि से अधिक सृजनात्मक तथा रचनात्मक कार्य कर सकते हैं ।

विकासशील देशों में श्रम आन्दोलन गतिमान हो चुका है, यह बात इन तथ्यों से स्पष्ट होती है:

(i) बहुत-से देश न्यूनतम कल्याण कार्यों को करने तथा न्यूनतम सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए वचनबद्ध हैं, जिनके लिए पहले श्रमिक को विवाद प्रस्तुत करना पड़ता था;

(ii) श्रम संघ अब विकास में सहायक माने जाने लगे हैं, तथा श्रम सम्बन्धी राष्ट्रीय नीतियों तथा उत्पादन नीति निर्धारण में इनसे सुझाव लिए जाते हैं;

(iii) दोनों पक्षों द्वारा असामान्य परिस्थितियों में राजकीय हस्तक्षेप को मान्यता प्रदान कर दी गई है; तथा

(iv) उत्पादक उत्पादन योजनाएं बनाते समय श्रम संघ की सहायता लेकर प्रबन्धक को अधिक सक्रिय कर सकते हैं ।


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