Here is an essay on ‘Corporate Planning’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Corporate Planning’ especially written for college and management students in Hindi language.

Essay on Corporate Planning


Essay Contents:

  1. समष्टि-नियोजन का आशय (Introduction to Corporate Planning)
  2. समष्टि-नियोजन की परिभाषाएँ (Definitions of Corporate Planning)
  3. समष्टि नियोजन की प्रकृति अथवा विशेषताएँ (Nature or Characteristics of Corporate Planning)
  4. समष्टि नियोजन की आवश्यकता तथा महत्व (Need and Importance of Corporate Planning)
  5. समष्टि नियोजन के प्रकार (Types of Corporate Planning)


Essay # 1. समष्टि-नियोजन का आशय (Introduction to Corporate Planning):

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समष्टि नियोजन अथवा निगमित नियोजन समूचे उपक्रम के लिए बनाई गई एक व्यापक योजना है । इस योजना का निर्माण उपक्रम के उच्च प्रबन्धक करते है । इसमें उपक्रम की सभी योजनाएँ शामिल होती हैं चाहे वे विभागीय योजनाएँ ही अथवा अनुभागीय योजनाएं (Sectional Plans) या फिर इकाईगत योजनाएँ (Unit Plans) हों ।

यह उत्पादन नियोजन, विपणन नियोजन, वित्त नियोजन एवं मानव-शक्ति नियोजन आदि सब का संयोजन (Combination) है इसलिए इसे नियोजन का समष्टि या समग्र-दृष्टिकोण (Macro Approach) भी कहा जाता है ।

इस नियोजन के अन्तर्गत उपक्रम का प्रत्येक भाग (विभाग, अनुभाग आदि) अपने लिए कार्यक्रमों परियोजनाओं बजटों संसाधनों की आवश्यकताओं की रूपरेखा बनाते हुए योजना बनाता है । निचले हिस्से की योजनाएँ उससे ऊपर वाले हिस्से की योजनाओं से जुड़ी होती है ।

अन्तिम रूप में, शीर्ष पर निगमित/समष्टि योजना होती हैं, जिसके साथ सभी हिस्सों की योजनाएँ संयुक्त हो जाती हैं और एक रूप धारण करती हैं । अतएव सभी विभागों द्वारा अलग-अलग रूप से बनाई गई योजनाओं के कुल जोड़ (Combination) को समष्टि योजना कहा जाता है । यह एक प्रकार से मास्टर योजना (Master Plan) होती है ।

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इसे निम्न रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया गया है:


Essay # 2. समष्टि-नियोजन की परिभाषाएँ (Definitions of Corporate Planning):

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(i) डेविड हुसे (David Hussey) के शब्दों में- “समष्टि नियोजन में मेश्यों का निर्धारण, उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कार्य व्यक्तियों एवं पद्धतियों को संगठित करना, योजना तथा योजना प्रक्रिया द्वारा उत्प्रेरित करना, निष्पादन का मापन तथा श्रेष्ठ निर्णय, स्पष्ट उद्देश्यों, अधिक सहभागिता तथा प्रगति के ज्ञान द्वारा व्यक्तियों का विकास करना एवं योजना की प्रगति का नियन्त्रण शामिल है ।”

(ii) ई.एफ.एल.ब्रेच (E.F.L. Brech) के शब्दों में- “समष्टि नियोजन यह एक व्यापक योजना है जिसमें उस वातावरण की नियमित समीक्षा शामिल है जिसके अन्तर्गत संस्था कार्यरत है तथा इसमें यह निश्चित किया जाता है कि संस्था का मुख्य मेश्य क्या है और इसे प्राप्त करने की इसमें कितनी क्षमता है ।”

उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि समष्टि नियोजन एक सम्पूर्ण योजना (Complete Plan) है जिसमें सम्पूर्ण उपक्रम के उद्देश्यों का निर्धारण, साधनों की व्यवस्था, उत्प्रेरण तथा निष्पादन के मूल्यांकन के चरण शामिल हैं । यह मुख्य रूप से दीर्घकालीन योजना है जिसे अल्पकालीन योजना को ध्यान में रखकर बनाया जाता है ।


Essay # 3. समष्टि नियोजन की प्रकृति अथवा विशेषताएँ (Nature or Characteristics of Corporate Planning):

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इस नियोजन की प्रकृति अथवा विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) यह एक व्यापक, एकीकृत एवं समन्वित योजना है जो सम्पूर्ण उपक्रम के लिए बनाई जाती है । इस नियोजन का क्षेत्र सम्पूर्ण उपक्रम होता है ।

(ii) यह नियोजन प्रक्रिया का प्रारम्भिक बिन्दु है । इसको संस्था के उच्च प्रबन्धक तैयार करते हैं ।

(iii) यह मुख्यतया दीर्घकालीन योजना है जिसे अल्पकालीन योजना को ध्यान में रख कर तैयार किया जाता है । इस प्रकार इसमें दोनों दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन नियोजन शामिल होते हैं ।

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(iv) इसकी प्रकृति सहभागिता की है, क्योंकि उद्देश्यों के निर्धारण में अधीनस्थों को भी शामिल किया जाता है ।

(vi) इसकी प्रकृति निरन्तरता की है, क्योंकि इसके अन्तर्गत वातावरण की नियमित समीक्षा की जाती है ।

(vii) इसके अन्तर्गत योजना की प्रगति का मापन तथा नियन्त्रण आते हैं ।

(viii) इसके अन्तर्गत कर्मचारियों का विकास करना तथा उन्हें प्रेरित करना आते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

(ix) इसके अन्तर्गत किसी उपक्रम की सम्पूर्ण रूप से मूलभूत भावी दिशाओं का निर्धारण किया जाता है ।


Essay # 4. समष्टि नियोजन की आवश्यकता तथा महत्व (Need and Importance of Corporate Planning):

इस नियोजन की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से होती है:

(i) बदलते आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा वैधानिक वातावरण का सामना करने के लिए समष्टि नियोजन की आवश्यकता होती है ।

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(ii) इस नियोजन की सहायता से उपक्रम के उपलब्ध साधनों तथा भविष्य में प्राप्त होने वाले साधनों का अधिकतम उपयोग किया जा सकता है ।

(iii) उपक्रम के विभिन्न विभागों तथा क्रियाओं में उचित समन्वय स्थापित करने के लिए समष्टि नियोजन की आवश्यकता पड़ती है ।

(iv) समष्टि नियोजन का महत्व इस बात में है कि यह उपक्रम को पूर्वानुमान लगाकर आपातस्थितियों का सामना करने के लिए तैयार करती है ।

(v) इस नियोजन की सहायता से निर्णायन की किस्म में सुधार आता है ।

(vi) बढ़ती प्रतिस्पर्धा तथा उपक्रमों के बढ़ते आकार के कारण इन उपक्रमों में भारी मात्रा में विनियोग करने पड़ते हे जो केवल समष्टि नियोजन द्वारा ही सम्भव हैं ।


Essay # 5. समष्टि नियोजन के प्रकार (Types of Corporate Planning):

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इस नियोजन को दो भागों में बाँटा जा सकता है जो निम्नलिखित है:

(A) व्यूह-रचनात्मक नियोजन (Strategic Planning) अथवा व्यूह-रचना निर्माण (Strategy Formulation);

(B) परिचालन नियोजन (Operational Planning) ।

(A) व्यूह रचनात्मक नियोजन अथवा व्यूह-रचना निर्माण (Strategic Planning or Strategy Formulation):

इसे दीर्घकालीन नियोजन (Long Range Planning) भी कहते हैं । व्यूह-रचनात्मक नियोजन से अभिप्राय प्रतिद्वन्द्वियों की क्रियाओं, लक्ष्यों एवं नीतियों को ध्यान में रखकर एक ऐसी एकीकृत तथा व्यापक योजना तैयार करना है । जिसके द्वारा संस्था अपने संसाधनों का उचित आबन्टन करते हुए, वातावरण से सम्बन्धित घटकों को ध्यान में रखते हुए अपने दीर्घकालीन लक्ष्यों को प्राप्त कर सके ।

इस प्रकार व्यूह रचनात्मक नियोजन उपक्रम की व्यापक तथा विस्तृत योजना होती है जिसे अनिश्चित तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बनाया जाता है । यह उपक्रम के विकास की दिशा को निर्धारित करता है इस नियोजन के अन्तर्गत प्रतिद्वन्द्वियों की व्यूहरचनाआrए पर निगाह रखी जाती है, उनका मूल्यांकन किया जाता है तथा पूर्वानुमान लगाया जाता है ताकि उनका प्रभावशाली ढंग से सामना किया जा सके ।

ADVERTISEMENTS:

यह नियोजन संगठन की आन्तरिक शक्तियों तथा कमजोरियों का आंकलन करता है, तथा संगठन की सभी क्रियाओं पर विचार करता है । व्यूह-रचनात्मक नियोजन भावी निर्णयों से सम्बन्धित न होकर वर्तमान निर्णयों के भविष्य से सम्बन्धित है ।

यहाँ वह बता देना उचित होगा कि व्यूह-रचनात्मक नियोजन न तो “चालों का पिटारा” है और न ही “तकनीकों का समूह” बल्कि यह विश्लेषणात्मक विचार है और कार्यवाही (Action) को लागू करने के लिए संसाधनों को गतिमान करता है ।

डेविड हैम्पटन (David Hampton के अनुसार, “व्यूह-रचनात्मक नियोजन वह मूलभूत “संसाधन” नियोजन है जिसमें संस्था को इसके वातावरण में उचित स्थान दिलाने के लिए संस्था की शक्तियों की पहचान करना तथा म्में कम में रखा जाता है ।”

जॉर्ज ए. स्टेनर के अनुसार- “व्यूह-रचनात्मक नियोजन कम्पनी का एक ऐसा व्यवस्थित एवं औपचारिक प्रयास है जिसके द्वारा कम्पनी के मूलभूत उद्वेश्यों, लक्ष्यों, नीतियों तथा व्यूह-रचनाओं का निर्धारण किया जाता है तथा कम्पनी के इन उद्देश्यों एवं लक्ष्मों को प्राप्त करने के लिए नीतियों तथा व्यूह-रचनाओं को लागू करने के लिए विस्तृत योजनाएँ बनाई जाती हैं ।”

व्यूह-रचनात्मक नियोजन के लक्षण (Characteristics of Strategic Planning):

इन नियोजन के लक्षण निम्नलिखित हैं:

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(i) यह एक व्यापक, एकीकृत एवं समन्वित योजना है जो संगठन की सभी क्रियाओं पर विचार करती है ।

(ii) यह वातावरण तथा प्रतिद्वन्द्वियों की क्रियाओं तथा नीतियों को ध्यान में रखकर बनाई जाती है ।

(iii) यह नियोजन दीर्घकालीन एवं दूरगामी प्रभावों को ध्यान में रखकर किया जाता है ।

(iv) यह एक प्रकार “संसाधन नियोजन” है जिसके अन्तर्गत मानवीय तथा भौतिक संसाधनों के उपयोग से एक नई योजना बनाई जाती है ।

(v) यह उपक्रम के प्रयासों की दिशा को निर्धारित करता है ।

(vi) यह नियोजन उच्च-प्रबन्धकीय स्तर पर किया जाता है ।

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व्यूह-रचनात्मक नियोजन की प्रक्रिया अथवा व्यूह-रचना का निर्माण (Process of Strategic Planning or Strategy Formulation):

व्यूह-रचना नियोजन को चार चरणों में बाँट सकते हैं:

(i) वातावरण विश्लेषण एवं निदान (Environmental Analysis and Diagnosis);

(ii) व्यूह-रचना की खोज (Search for Strategy);

(iii) व्यूह-रचना का चुनाव (Selection of Strategy); एवं

(iv) व्यूह-रचना का क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन (Implementation and Evaluation of Strategy) ।

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(i) वातावरण विश्लेषण एवं निदान (Environmental Analysis and Diagnosis):

व्यूह-रचना के निर्माण का यह पहला चरण है इसके अन्तर्गत दो बातों का विशेष रूप से अध्ययन करते हैं:

(a) वातावरण का विश्लेषण करना तथा

(b) संस्था की शक्तियाँ (Strength’s) तथा कमजोरियों (Weaknesses) का पता लगाना ।

वातावरण के अनेक घटक तथा शक्तियाँ संस्था को प्रभावित करती हैं । इसलिए व्यूह-रचना तैयार करने के लिए आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, राजनीतिक वातावरण का उचित विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है । ऐसा करने से वातावरण के व्यवहार एवं उन अवसरों (Opportunities) तथा आशंकाओं (Threats) का पता लगाया जा सकेगा जिसके अन्तर्गत संस्था को काम करना है ।

वातावरण के विश्लेषण के साथ-साथ संस्था को अपनी शक्तियों तथा कमजोरियों का भी पता लगा लेना चाहिए ताकि वातावरण के साथ श्रेष्ठ समायोजन किया जा सके ।

(ii) व्यूह-पचना की खोज (Search for Strategy):

यह एक सृजनात्मक (Creative) कार्य है । इस चरण के अन्तर्गत संस्था के उद्देश्यों साधनों शक्तियों तथा कमजोरियों को ध्यान में रखते हुए शुरू-रचना के विभिन्न विकल्पों की खोज की जाती है इस प्रकार वातावरण के परिवर्तनों का पता लगाकर, इनके प्रभावों का विश्लेषण कर तथा संस्था की क्षमताओं के साथ तालमेल बिठा कर ऐसे विकल्पों का विकास किया जाता है जिससे समस्या का निदान सम्भव हो सके ।

डेविस मूरे ने तीन प्रकार की व्यूह रचनाओं का वर्णन किया है:

(a) बाह्य आर्थिक व्यूह-रचनाएँ;

(b) बाह्य सामाजिक व्यूह-रचनाएँ; एवं

(c) आन्तरिक संगठनात्मक व्यूह-रचनाएँ ।

(a) बाह्य आर्थिक व्यूह-रचनाओं द्वारा प्रतियोगिता, प्रौद्योगिकीय परिवर्तन (Technological Changes), कच्चे माल, उपकरणों, सामग्रियों आदि की पूर्ति सम्बन्धी शर्तों का सामना किया जाता है ।

(b) बाह्य सामाजिक व्यूह-रचनाओं के माध्यम से सरकार, सामाजिक एवं जनकल्याणकारी संगठनों, राजनीतिक दलों तथा समुदाय का सामना किया जाता है ।

(c) संगठन की आन्तरिक व्यूह-रचनाओं का सम्बन्ध मानवीय, भौतिक एवं वित्तीय संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग करने, सम्भावित संसाधनों को गतिमान करने तथा नए संसाधनों के सृजन करने से होता है ।

एक वर्गीकरण के अनुसार व्यूह-रचनाएँ तीन प्रकार की हो सकती हैं जो इस प्रकार हैं:

(a) विभेदीकरण (Differentiation):

इस व्यूह-रचना में फर्म अपनी वस्तुओं या सेवाओं को अपने प्रतिद्वन्द्वियों से भिन्न, बाजार में पेश करती है । इस प्रकार, इस न्द्व-रचना में फर्म अपनी उत्पादों की बाजार में एक विशिष्ट पहचान बनाती है जिनकी विभेदकारी पहचान (Distinctive Identity) होती है यह विभेद वस्तु की गुणवत्ता, डिजाइन, मूल, ब्रांड, निष्ठ अथवा किसी आधार पर किया जा सकता है ।

(b) लागत नेतृत्व (Cost Leadership):

इस बहू-रचना के अन्तर्गत फर्म अपने उत्पादों के मूल्यों को कम रख कर बाजार पर नेतृत्व तथा नियन्त्रण प्राप्त करती है ।

(c) संकेन्द्रण (Focus):

यह किसी बाजार ग्राहक समूह, उत्पाद या सेवाओं का चुनाव करके उस पर लक्ष्य साधने की बहू-रचना है । इसके अन्तर्गत फर्म बाजार में कोई उपयुक्त स्थान या स्थिति देखकर अपने संसाधनों का उस पर संकेन्द्रण (Focus) कर देती है । फर्म का संकेन्द्रण विशिष्ट वस्तुओं विशिष्ट ग्राहकों विशिष्ट बाजार क्षेत्र आदि पर हो सकता है ।

ऐसा करने से फर्म की प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र कम हो जाता है और फर्म बाजार में अपनी स्थिति को मजबूत कर सकती है । इस व्यूह-रचना में बाजार तथा प्रतिस्पर्धा दोनों सीमित रहते हैं । उदाहरण के तौर पर कोई औजार निर्माण करने वाली फर्म केवल फर्नीचर बनाने वाले पेशेवर बढ़ई के लिए अजार बनाने का काम कर सकती है, बजाय सामान्य घरेलू बाजार में औजार बेचने के ।

(iii) व्यूह-रचना का चुनाव (Selection of Strategy):

इस चरण के अन्तर्गत बहू-रचना के विभिन्न विकल्पों में से सबसे ज्यादा उपयोगी विकल्प का चुनाव किया जाता है । प्रत्येक विकल्प का उसके गुण-दोषों के आधार पर मूल्यांकन किया जाता है । इसके पश्चात् एक ऐसे विकल्प को चुना जाता है जो संस्था के उद्देश्यों, उसकी नीतियों, उसके आन्तरिक तथा बाह्य वातावरण, उसके संसाधनों के अनुरूप हो तथा व्यावहारिक एवं स्वीकार्य भी हो ।

(iv) व्यूह-रचना का क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन (Implementation and Evaluation of Strategy):

यह व्यूह-रचना का अन्तिम चरण है । व्यूह-रचना के चुनाव के बाद इसे लागू करने का कार्य किया जाता है । इसके अन्तर्गत संगठन के ढाँचे का निर्माण व्यक्तियों का विकास सम्प्रेषण व्यवस्था नीतियों तथा कार्य-पद्धतियों का निर्माण आदि कार्य शामिल होते हैं । इसके पश्चात् संसाधन जुटाए जाते है तथा उनका आवण्टन किया जाता है । व्यूह-रचना की समीक्षा भविष्य के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करती है । इसलिए इसे करना भी आवश्यक होता है ।

इसमें व्यूह-रचना के लागू किए जाने से:

(i) उत्पन्न परिणामों की तुलना अपेक्षित परिणामों से की जाती है;

(ii) विचलनों का पता लगाया जाता है; एवं

(iii) सुधार के कदम उठाए जाते हैं ।

(B) परिचालन नियोजन (Operational Planning):

परिचालन नियोजन प्राय: एक वर्ष की अवधि के लिए होता है । इसलिए इसे अल्पकालीन नियोजन भी कहते है । यह उपक्रम के विभिन्न क्रियात्मक क्षेत्रों पर विचार करता है । परिचालन नियोजन का मुख्य उद्देश्य वर्तमान लार्धी को बरुना, कार्यक्षमता में वृद्धि करना तथा स्थायित्व लाना होता है ।

इसका सम्बन्ध परिचालन से होता है जो कि उपक्रम के विभिन्न कार्य क्षेत्रों, जैसे- उत्पादन, विपणन वित्त कर्मचारी विकास आदि के लिए योजनाएं तैयार करता है । ये निम्न स्तरीय प्रबन्धकों को दिशा प्रदान करते हैं तथा उनके कार्यों के मूल्यांकन का आधार प्रस्तुत करते हैं ।

जब कभी रणनीतिक नियोजन (Tactical Planning) में कोई परिवर्तन किया जाता है, तब प्राय: परिचालन नियोजन की प्राय: आवश्यकता पड़ती है । परिचालन नियोजन के अन्तर्गत विवेकपूर्ण निर्णय लिए जाने की अधिक सम्भावना होती है क्योंकि इस नियोजन की अवधि कम होती है तथा कम अवधि में वातावरण कम जटिल होता है । एक अच्छे परिचालन नियोजन में लोचशीलता समय-अनुकूलता तथा व्यावहारिकता के गुण होने चाहिए । यह नियोजन शुरु-रचना नियोजन पर आधारित है ।


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