Here is an essay on ‘Industrial Relations in India’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Industrial Relations in India’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay #  1. औद्योगिक सम्बन्ध नीतियों का विकास (Evolution of Industrial Relations Policies):

भारत में जब औद्योगिक क्रान्ति का जन्म हुआ तो उम समय श्रमिक एवं पूँजीपति या सेवायोजक के मध्य किसी प्रकार का कोई संघर्ष नहीं था । श्रमिक शान्तचित्त से कार्य करता था तथा वह पूँजीपति की किसी भी क्रिया का विरोध नहीं करता था । यही कारण था कि 19वीं शताब्दी में साधारणत: किसी प्रकार की कोई हड़ताल नहीं हुई ।

औद्योगिक मामलों की समस्या का जो विकराल रूप आज हम देख रहे हैं, वह प्राचीन काल में नहीं था क्योंकि उत्पादन प्रणाली बहुत अधिक सरल थी । वस्तुओ का उत्पादन छोटे पैमाने पर होता था और वस्तुएँ स्थानीय उपयोग के लिए ही बनाई जाती थीं । उत्पादक स्वयं ही साहसी, पूँजीपति, प्रबन्धक एवं श्रमिक के रूप में काम करता था ।

उत्पादन कार्य कारीगरों के घरों पर ही होता था जिसमें उसके परिवार के सदस्य और कार्य सीखने वालों के द्वारा उत्पादन में सहायता ली जाती थीं । इसी कारण औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या प्राचीन-काल में आज जैसी नहीं थी ।

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आधुनिक युग में औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या का एकमात्र कारण बड़े पैमाने पर उत्पादन का परिणाम है, जिसने मनुष्य को मशीन का गुलाम बनाकर छोड़ दिया है । आज उद्योग का स्वरूप इतना जटिल हो गया है, कि बड़े पैमाने पर उत्पादन भारी मात्रा में पूँजी का विनियोग, अधिक मात्रा में श्रम विभाजन, वैज्ञानिक प्रबन्ध, विशिष्टीकरण तथा विभिन्न प्रकार की स्वचालित मशीनों का प्रयोग हो रहा है ।

इसी कारण श्रमिक वर्ग तथा सेवायोजक के बीच परस्पर वार्तालाप सम्बन्ध नष्ट हो गया । परिणामस्वरूप दोनों वर्गों के मध्य एक खाई, एक अन्तर उत्पन्न हो गया जो औद्योगिक सम्बन्धों का अच्छा बनाने में रुकावट पैदा कर रहा है ।

स्वतन्त्रता पूर्व का भारत (India before Freedom):

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श्रम/औद्योगिक सम्बन्धों में राज्य का हस्तक्षेप अपना उद्‌गम ढूँढता है, जब भारत की ब्रिटिश सरकार को इस देश के उसके वाणिज्यिक हितों की सुरक्षित करने के लिए रोका गया ।

एक ILO Publication बताता है कि, “श्रम के हितों के संरक्षण से कहीं दूर, श्रम को नियंत्रित करने के पूर्ववर्ती प्रयास विभिन्न विधानों का समावेश करते थे, जैसे The Assam Labour Act, The Workmen’s Breach of Contract Act, 1859 तथा The Employer’s and Workmen’s (Disputes) Act of 1860. ये अधिनियम सामाजिक प्रणाली के विरुद्ध श्रम के संरक्षण की अपेक्षा श्रम के विरुद्ध सामाजिक प्रणाली के संरक्षण का लक्ष्य लेकर चलते थे ।

औद्योगिक इकाइयों के अनियोजित तथा अव्यवस्थित विकास के कारण काम की दशाओं में गिरावट, आवश्यक तौर पर कम मजदूरी तथा परिणामस्वरूप वर्किंग वर्ग का असंतोष; श्रमिको में बढ़ती अनुशासनहीनता; श्रम तथा प्रबन्ध के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध; ILO की स्थापना; AITUC (1920) का उदय तथा और अधिक मजदूरी के लिए माँग, काम की तथा रहन-सहन की परिष्कृत स्थितियों ने कई गम्भीर औद्योगिक समस्याओं को व्यापक आयाम में जन्म दिया । बम्बई तथा बंगाल राज्यों में स्थिति नियंत्रण से बाहर हो गई । अत: मामलों में निगरानी के लिए समितियाँ गठित की गईं ।

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औद्योगिक सम्बन्धों की समयानुसार प्रवृत्तियाँ नीचे दिखाई जा रही हैं:

”औद्योगिक सम्बन्ध गतिविज्ञान के प्रारम्भ को विगत में देखना होगा । “एक लेखक ने ठीक ही कहा है, ”डॉ भीमराव अम्बेडकर द्वारा 1942 में ही Indian Labour Conference की स्थापना से ही जब तीनों पक्षकारों को एक साथ मिलाने की नीति-सरकार, प्रबन्ध तथा श्रम नीति तथा औद्योगिक सम्बन्धों के सभी विषयों के लिए परामर्शदात्री त्रिस्तरीय फोरम के रूप में एक सामान्य प्लेटफॉर्म पर लाई गई को स्वीकार किया गया ।”

जब द्वितीय विश्व युद्ध हुआ तो भारत सरकार ने Defence of India Rules पास किये तथा उनको धारा 81-A में शामिल किया, जिसने किसी भी व्यापार में हड़तालों तथा तालबन्दियों की मनाही कर दी युद्ध आवश्यकताओं के लिए सतत आपूर्ति सुनिश्चित करने के दृष्टिकोण से तथा औद्योगिक विवादों के लिए अनिवार्य न्यायीकरण की व्यवस्था की गई ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् का भारत (India after Freedom):

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स्वतंत्र भारत में इस वसीयत को वैधानिक मान्यता दी गई जब औद्योगिक सम्बन्धों के नियंत्रण हेतु वैधानिक प्रावधानों को 1947 में लागू औद्योगिक विवाद अधिनियम में शामिल किया गया ।

वह अधिनियम व्यवस्था करता हैं:

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(i) कुछ अधिसत्ताओं के आकार में विवादों के निपटान हेतु एक स्थायी तंत्र व्यवस्था की स्थापना जैसे Conciliation Officer, Industrial Tribunals, Labour Courts आदि, तथा;

(ii) Counciliator द्वारा लाये गये किसी निवारण या किसी ट्रिव्यूनल के निर्णय का दिया जाना जो स भी प क्षकारों पर बा धा हो तथा वैधानिक तौर पर प्रवर्तनीय हो । अधिनियम सभी उद्योगों में समझौते, पंच-निर्णय तथा न्यायीकरण के माध्यम से औद्योगिक विवादों के निदान तथा निपटान की माँग करता है ।

औद्योगिक विवादों के निपटारे के लिए तंत्र व्यवस्था की स्थापना के अतिरिक्त, यह समझौता तथा न्यायिक प्रक्रिया के चलते हड़तालों तथा तालेबन्दी की मनाही करता है ।

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1976 में अधिनियम में किये गये संशोधन किसी कर्मचारी की छँटनी, हटाये जाने या ‘बन्द’ थोपे जाने की सेवायोजकों की शक्तियों पर रोक लगाता है ।

अधिनियम के अतिरिक्त, दो महत्वपूर्ण प्रयास किये गये – ट्रेड यूनियन अधिनियम, 1926 का संशोधन-एक बार 1947 में तथा पुन: 1950 में । 1947 में एक कानून लागू किया गया जो अनुचित सेवायोजकों व्यवहारों तथा अनुचित यूनियन व्यवहारों की परिभाषा देता था ।

इसने सेवायोजकों द्वारा प्रतिनिधिक यूनियन की अनिवार्य मान्यता के लिए तथा प्रतिनिधिक यूनियनों के रूप में यूनियनों के प्रमाणन पर विवादों के पंचनिर्णय हेतु व्यवस्था की । ये संशोधन साम्राज्यवादी ब्रिटिश परम्परा से हट कर थे तथा American National Labour Relations Act द्वारा प्रभावित थे (जिनको सार्वजनिक तौर पर Wagner Act के रूप में जाना जाता है) |

दुर्भाग्य से Trade Union Act के प्रति ये संशोधन कभी लागू ही नहीं हुए । नव निर्मित INTUC यूनियन कुछ परिवर्तनों का तनिक भी पक्ष नहीं होती । कुछ यूनियनों ने सिविल सेवाओं तथा सरकारी कर्मचारियों की कुछ श्रेणियों के निराकरण तथा इस अधिनियम के क्षेत्र से अधीक्षकीय कर्मचारियों को बाहर रखने को पसन्द नहीं किया ।

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1950 में, सरकार द्वारा दो बिल लाये गये – एक Labour Relations Bills तथा दूसरा Trade Union Bills. उन्होंने 1947 के संशोधनों के प्रावधानों को बनाये रखा । उन्होंने इस सिद्धान्त को भी किया कि “सामूहिक सौदेबाजी सेवायोजक तथा यूनियन दोनों के लिए निर्धारित परिस्थितियों में अनिवार्य होगी ।”

श्रम अदालतों को शक्तियाँ दी गई कि यूनियनों को ”एकमात्र सौदाकारी अभिकर्त्ताओं” के रूप में प्रमाणित करे । सभी सुधारात्मक सामूहिक ठहरावों को ‘पंचनिर्णय द्वारा या अन्यथा ऐसे ठहरावों से उत्पन्न सभी प्रश्नों के काम को रोके बिना शान्तिपूर्ण समाधान’ हेतु व्यवस्था करनी थी । लेकिन ड्राफ्ट बिल संसद के भंग होने के कारण पारित न हो सका ।

वैधानिक व्यवस्था के प्रति एक प्रतिक्रिया स्वरूप (जैसा कि तत्कालीन श्रम मंत्री बाबू जगजीवनराम ने 1947-52 में सिफारिश की थी) वी.वी. गिरि ने 1952-57 में अपनी Girls Approach की वकालत की जो स्वैच्छिक द्विपक्षीय समझौतों तथा सामूहिक सौदाकारी पर जोर देती थी ।

एक गैर-वैधानिक औद्योगिक सम्बन्ध प्रणाली के प्रति आन्दोलन एक नई प्रवृत्ति थी । गिरि ने दावा किया कि ”औद्योगिक न्यायीकरण श्रम का दुश्मन नम्बर एक है ।” गिरि की अल्प अवधि में ही औद्योगिक सम्बन्धों में एक नई भावना का युग आरम्भ कर दिया ।

Essay # 2. योजना अवधि के दौरान औद्योगिक सम्बन्ध नीति (Industrial Relations Policy during the Planning Period):

योजना अवधि के दौरान औद्योगिक सम्बन्ध नीति वास्तव में औद्योगिक शान्ति बनाये रखने की दिशा में किये गये पूर्ववर्ती प्रयासों की ही निरन्तरता रही ।

प्रथम पंचवर्षीय योजना काल (First Five Year Plan):

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प्रथम पंचवर्षीय योजना के उद्योग में औद्योगिक शान्ति की आवश्यकता पर जोर दिया, हितों की अन्तिम एकाग्रता तथा पूँजी तथा श्रम के बीच सुखद सम्बन्धों के गुण । योजना ने पारस्परिक समझौतों, सामूहिक सौदेबाजी तथा स्वैछिक पंचनिर्णय पर बल दिया ।

यह देखा गया कि, यह राज्य का दायित्व होगा कि स्वयं को कानूनी शक्तियों से पूरित करे ताकि विवादों को निपटान हेतु पंचनिर्णय या न्यायीकरण को सौंपा जा सके, प्रयासों की असफलता की दशा में अन्य साधनों से एक ठहराव तक पहुँचा जा सके ।

योजना ने दो अन्य सिद्धान्तों पर जोर दिया:

(i) संघ बनाने, संगठन तथा सामूहिक सौदेबाजी के श्रमिकों के अधिकारों पारस्परिक सम्बन्धों के आधारभूत आधार के रूप में आरक्षण के बिना स्वीकार किया जाना चाहिए; तथा;

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(ii) कर्मचारी-सेवायोजक सम्बन्धो को ”सर्वोत्तम सम्भव तरीके से समाज की आर्थिक आवश्यकताओं की संतुष्टि सुनिश्चित करने के लिए रचनात्मक उपक्रम में एक साझेदार के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए ।”

योजना ने संकेत दिया कि औद्योगिक शान्ति का कारण उस तरीके द्वारा आगे नहीं बढ़ाया गया था जिसमें अनेक औद्योगिक विवादों में वैधानिक तंत्र व्यवस्था काम कर चुकी थी । अधिकांश निर्णयों में अत्यधिक देरी व संतुलन का अभाव था, तथा श्रम अदालतों का कार्य गुणवत्ता तथा निपटान की गति पीड़ित रही ।

अत: योजना ने बताया कि विवादों के निपटान की सर्वोत्तम विधि सेवायोजक तथा कर्मचारियों को बिना किसी तृतीय पक्षकार के हस्तक्षेप के इन्हें निपटाने की आज्ञा प्रदान करना था ।

इसने बताया कि सभी स्तरो पर परामर्शदात्री समिति के माध्यम से दोनों के बीच गहन समन्वय विवादों के निदान के प्रति एक पहला चरण था । निष्पक्ष अनुसंधान तथा स्वैच्छिक पंच- निर्णय को विवादों के समाधान हेतु मुख्य धाराओं के रूप में सोचा गया ।

योजना ने जोर दिया कि विवादों के निपटारे हेतु तंत्र व्यवस्था को इन सिद्धान्तों के अनुसार प्रबन्धित किया जाना चाहिए:

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(a) कानूनी बारीकियों तथा प्रक्रियाओं की औपचारिकताओं को न्यूनतम सम्भव सीमा तक प्रयोग किया जाना चाहिए;

(b) प्रत्येक विवाद को मामले की प्रकृति तथा महत्ता के प्रति उपयुक्त स्तर तक अन्तत: तथा प्रत्यक्षत: निपटाया जाना चाहिये;

(c) ट्रिबूनल्स तथा न्यालालयों में विशिष्टत: प्रशिक्षित विशेषज्ञ कर्मचारियों को रखा जाना चाहिए;

(d) इन न्यायालयों में अपीलों को कम किया जाना चाहिये; तथा;

(e) किसी निर्णय के अर्थो में उचित तथा शीघ्र अनुशीलन हेतु व्यवस्था की जानी चाहिये ।

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समरूपता की दृष्टि से योजना में सेवायोजकों तथा कर्मचारियों के बीच सम्बन्धों तथा व्यवहारों के संचालन हेतु मानदण्डो तथा तौर-तरीकों की स्थापना तथा त्रिपक्षीय संस्थाओं के माध्यम से औद्योगिक विवादों के निपटान हेतु सुझाव दिया यथा The Indian Labour Conference, The Standing Labour Committee for Particular Industries ।

कुछ विवादों के मामले में यह स्पष्ट किया गया कि सरकार को विशेषज्ञों की सलाह पर निर्णय लेना चाहिये तथा ऐसे निर्णय लेने चाहिये जो न्यायालयों या ट्रिबूनल्स पर बाध्य हों । योजना ने स्वीकार किया कि श्रमिकों का एक आधारभूत अधिकार है कि हड़ताल का सहारा ले सकें; लेकिन इसके प्रयोग को हतोत्साहित किया जाना चाहिये ।

यह भी बताया गया कि एक हड़ताल या तालाबदी जो किसी कार्यवाही के लम्बित रहने के दौरान बिना उचित नोटिस में की जाये तथा किसी समझौते, ठहराव, निर्णय या आदेश के उल्लंघन में हो प्रतिबन्धित की जाये तथा उपयुक्त दण्डों तथा विशेषाधिकारों के हनन की व्यवस्था की जाये ।

इन सिद्धान्तों के सार्वजनिक उपक्रमों पर लागू करने की सिफारिश के साथ-साथ प्रथम योजना ने सुझाव दिया कि इन संस्थानों के संचालक मण्डलों को अपने में कुछ ऐसे व्यक्तियों को लेना चाहिये जो श्रम समस्याओं को समझते हैं, श्रम के दृष्टिकोण को जानते हैं, तथा जिनको श्रम की अभिलाषाओं के प्रति सहानुभूति हो ।

योजना में निम्न बाते भी उठीं:

(i) चुने गये Shop-Stewards को रखते हुए एक व्यवस्थित Grievance Procedure के लिए आवश्यकता हेतु मदद करनी है ।

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(ii) Works Committee की महत्ता पर जोर दिया गया तथा इनको ”औद्योगिक सम्बन्धों की प्रणाली” के प्रति महत्वपूर्ण माना गया ।

(iii) योजना ने जोर दिया कि, ”सामूहिक सौदेबाजी की सफलता के लिए यह आवश्यक है, कि उद्योग के इतने बड़े क्षेत्र के लिए जहाँ सम्भव हो सके एक एकाकी सौदाकारी एजेन्ट हो ।

उसी उद्योग में एक ही स्थानीय क्षेत्र में औद्योगिक संस्थानों के लिए पृथकृ यूनियनों को दृढ़ तथा स्वस्थ ट्रेड यूनियनों के विकास के प्रति अवरोधक माना जाता है तथा उनके अस्तित्व को केवल अपवादात्मक परिस्थितियों में ही उचित ठहराया जा सकता है ।

(iv) योजना ने ट्रेड यूनियनों को ठोस तथा रचनात्मक भूमिका को माना तथा सुझाव दिया ”विभिन्न स्तरों पर अर्थात् उपक्रम स्तर पर, उद्योग स्तर पर तथा क्षेत्रीय राष्ट्रीय स्तर पर ट्रेड यूनियनों तथा सेवायोजकों के प्रतिनिधियों के बीच गहन सम्बद्धता विद्यमान हो ।”

सन् 1957 में नन्दा जी ने औद्योगिक सम्बन्धों में “Codes Philosophy” की वकालत की श्रम तथा प्रबन्ध के बीच श्रेष्ठ सम्बन्ध के लिए एक गैर वैधानिक नैतिक नियंत्रण के रूप में श्रम समस्याओं के प्रति गाँधी जी की विचारधारा के एक भाग के रूप में प्रन्यासवाद की विचारधारा तथा अहिंसा औद्योगिक सम्बन्ध नीति के आधारभूत सिद्धान्त बने ।

आचरण संहिता, अनुशासन संहिता तथा कार्यक्षमता व कल्याण का ड्राफ्ट कोड इस अवधि की औद्योगिक सम्बन्ध नीति के प्रति तीन महत्वपूर्ण योगदान थे ।”

न्यायालयों से संहिताओं तक ”अवधि के अन्तर्गत एक नया आन्दोलन था, जब अनेक प्रगतिशील नीतियाँ भी Indian Labour Conference द्वारा प्रतिपादित की गई, यूनियनों की मान्यता शिकायत प्रविधि के मॉडल, स्वैच्छिक पंचनिर्णय, संयुक्त प्रबन्ध परिषदों श्रमिकों की शिक्षा तथा नौसिखिया प्रशिक्षण के सम्बन्ध में ।

इस अवधि के दौरान, वैधानिकवाद से स्वेच्छावाद तक कहीं परे आन्दोलन चल रहा । उपर्युका चरणों पर सामाजिक कार्यवाही करते हुए श्रम अशान्ति का निदान तथा वैधानिक कार्य की अपेक्षा स्वैच्छिक व्यवस्थाओं द्वारा विवादों का निपटारा मुख्य रूप से महत्वपूर्ण थे ।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (Second Five Year Plan):

दूसरी पंचवर्षीय योजना में पहली योजना वाली निर्मित नीति को जारी रखा गया । इसने देखा कि निर्णयों तथा ठहरावों का अपर्याप्त क्रियान्वयन तथा अनुशीलन श्रम तथा प्रबन्ध के बीच टकराव का मुख्य कारण था ।

इसमें दोहराया गया कि ‘सभी स्तरों पर विवादों का निराकरण, पारस्परिक समझौतों के अन्तिम चरण सहित यथा समझौता ।” इसमें औद्योगिक शान्ति के लिए निदानात्मक उपायों की महत्ता पर जोर दिया गया ।

निर्णयों तथा ठहरावों के क्रियान्वयन तथा पालन में भूल करने पर दायित्व उस उपयुक्त ट्रिबूनल्स पर होना चाहिये जिसके प्रति पक्षकारों की प्रत्यक्ष पहुँच होती है । Standing Joint Consultative Machinery की प्रभावोत्पादकता में भरोसा दोहराया गया ।

योजना में Work Committees तथा ट्रेड यूनियनों के कार्यों के उचित वर्गीकरण को स्पष्ट किया गया ताकि यूनियन में समिति के संदेह को हटाया जा सके ।

योजना में श्रम तथा प्रबन्ध के बढ़ते सहयोग जिनमें, प्रबन्ध तकनीशियनों तथा श्रमिको के प्रतिनिधि होते हैं, की भी सिफारिश की गई जिनको प्रबन्ध की परिषदों द्वारा प्राप्त किया जा सकता था । इनसे उद्योग में अनुशासनहीनता को समाप्त करने पर जोर दिया, तथा इसकी सामील में उद्योग में एक Code Discipline पर 1958 में समझौता हुआ ।

दूसरी योजना में सुझाव दिया गया जो कि एक उद्योग में एक यूनियन रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वैधानिक प्रावधान यूनियनों की मान्यता हेतु बनाये जाने चाहिए ।

यह सुझाया गया कि बाहरी लोगों की संख्या पर सीमा लगाई जानी चाहिए जो यूनियनों के पदाधिकारियों के रूप में काम करते हैं, कि वे श्रमिक जो पदाधिकारी बने हैं, उनको शोषण के विरुद्ध अतिरिक्त संरक्षण मिलना चाहिये तथा कि ट्रेड यूनियनों के वित्तों को स्वस्थ बनाया जाना चाहिये ।

तीसरी पंचवर्षीय योजना (Third Five Year Plan):

तीसरी पंचवर्षीय योजना ने विवादो के निपटारे हेतु कानूनी मार्यादाओं की अपेक्षा नैतिक मर्यादाओं पर जोर दिया इसने उपयुक्त चरणों पर सामाजिक कार्यवाही द्वारा अशान्ति के निदान पर तथा मूल कारणों के प्रति पर्याप्त ध्यान देने पर जोर दिया । इसमें पक्षकारों के रुझानों तथा दृष्टिकोणों में एक मौलिक परिवर्तन तथा उनके पारस्परिक सम्बन्धों में पुन: समायोजनों के एक नये समुच्चय का समावेश होता है ।

योजना ने ‘स्वैच्छिक पंचनिर्णय’ की व्यापक लोकप्रियता में अपना विश्वास प्रकट किया जो न्यायीकरण को धीरे-धीरे प्रतिस्थापित कर सके । इसमें बताया गया ”स्वैच्छिक पचनिर्णय के सिद्धान्त को लागू करने की वृद्धि के लिए तरीके खोजे जायेंगे । इस मामले में कार्यवाही के प्रति वैसा ही संरक्षण लागू किया जाना चाहिये जो वर्तमान में अनिवार्य न्यायीकरण पर लागू है ।

सेवायोजकों को अभी तक मामलों को निपटाने के तरीके की अपेक्षा उनको पंचनिर्णयों की सौंपने में और अधिक तत्परता दिखानी चाहिए । यह Code Of Discipline के अन्तर्गत पक्षकारों द्वारा स्वीकृत एक महत्वपूर्ण प्रयोग के रूप में सामान्य व्यवहार होना चाहिये ।

योजना ने सुझाया कि प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी को एक आधारभूत सिद्धान्त तथा तात्कालिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिये ।

इसकी महत्ता को देखते हुए योजना के दौरान नये उद्योगों तथा इकाइयों के प्रति संयुक्त प्रबन्ध परिषदों की योजना के क्रमिक विस्तार के व्यापक कार्यक्रम को लागू किया ताकि कुछ ही वर्षों में यह औद्योगिक प्रणाली का एक सामान्य लक्षण बन सके । समय के साथ-साथ प्रबन्ध कैडर्स की वर्किंग श्रेणी से उठाना चाहिये ।

इसने सभी ऐसे संस्थानों में श्रमिकों की शिक्षा के सघन कार्यक्रम पर भी जोर दिया जहाँ ऐसी परिषदों की स्थापना की गई । यह आशा की गई कि ”ट्रेड यूनियन नेतृत्च श्रमिकों की श्रेणियों में सतत् तौर पर उभरना चाहिये तथा जैसे-जैसे कर्मचारियों की शिक्षा का कार्यक्रम जोर पकड़ता जाये । यह प्रक्रिया तेजी से आगे बढ़ायी जानी चाहिये ।”

औद्योगिक संधि प्रस्ताव, 1962 (Industrial Truce Resolution, 1962):

चीन के आक्रमण के समय से यह आवश्यक समझा गया कि उत्पादन में किसी भी किस्म की बाधा न आये । अत: दूसरा औद्योगिक संधि प्रस्ताव 3 नवम्बर 1962 को नई दिल्ली में सेवायोजकों तथा श्रमिको के प्रतिनिधियों की एक संयुक्त सभा में पास किया गया ।

प्रस्ताव में बताया गया:

”अधिकतम उत्पादन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कोई लापरवाही नहीं बरती जायेगी तथा प्रबन्ध एव श्रमिक देश के रक्षा प्रयासों को विकसित करने के लिए सभी सम्भव तरीकों में सहयोग से आगे बढ़ेंगे ।”

प्रस्ताव जोर देता है की:

(a) अधिकतम उत्पाद बढ़ाने के लिए महत्वपूर्ण आवश्यकता व धैर्य तथा शान्ति बनाये रखने के प्रति सेवायोजकों तथा श्रमिकों के कर्तव्यो पर जोर दिया गया ।

(b) किसी भी प्रकार के कार्य व्यवधान की आज्ञा नहीं दी जानी चाहिए ।

(c) सभी विवादों को स्वैच्छिक पंचनिर्णयों द्वारा हल किया जाना चाहिये, विशेषत: ऐसे विवाद जो निष्कासन, सेवा समाप्ति तथा श्रमिकों की छँटनी से सम्बन्ध रखते हैं;

(d) यूनियनों को श्रमिकों की ओर से अनुपस्थितिवाद तथा लापरवाही को हतोत्साहित करना चाहिये;

(e) संयुक्त आपातकालीन उत्पादन समितियों की स्थापना की जानी चाहिये ।

चतुर्थ पंचवर्षीय योजना (Fourth Five Year Plan):

चौथी योजना में सरकार की ओद्योगिक सम्बन्ध नीति में कोई नई दिशा या कोई मुड़ाव नहीं देखा गया ।

इसने औद्योगिक सम्बन्धों का एक लघु संदर्भ लिया इसमें बताया गया कि:

(i) औद्योगिक सम्बन्धों के क्षेत्र में, एक स्वस्थ ट्रेड यूनियन आन्दोलन के विकास को प्राथमिकता दी जायेगी ताकि यह और अच्छे श्रम-प्रबन्ध सम्बन्धों की स्थापना हो सके;

(ii) सामूहिक सौदेबाजी को और अधिक महत्व दिया जाना चाहिये तथा उत्पादकता को श्रम-प्रबन्ध सहयोग के माध्यम से बढाया जाना चाहिये;

(iii) औद्योगिक विवादों को स्वैच्छिक पंचनिर्णयों द्वारा हल किया जाना चाहिए ।”

योजना में आशा की गई कि ”ट्रेड यूनियन न केवल अपने सदस्यों के लिए उचित मजदूरी तथा उचित रहन-सहन एवं कार्यदशाओं की माँग हेतु एजेन्सियों के रूप में काम करेगी वरन् राष्ट्रीय विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी ।”

यह सुझाव दिया गया कि श्रम अदालतों को शक्ति सम्पन्न बनाया जाए । संयंत्र पर पृथक्‌पृथक् कार्य-समितियों की स्थापना की जानी चाहिये तथा संयुक्त प्रबन्ध परिषदों के प्रभावी कामकाज को सुनिश्चित किया जाना चाहिये ताकि सुखद औद्योगिक सम्बन्धों द्वारा देश का विकास तथा प्रगति सुनिश्चित की जा सके ।

पंचम पंचवर्षीय योजना (Fifth Five Year Plan):

पाँचवीं योजना ने औद्योगिक संगठनों में उसकी लम्बवत् गतिशीलता को सुनिश्चित करके श्रम की ओर अधिक भागीदारी की आवश्यकता पर बल दिया ।

इसमें बताया गया:

”औद्योगिक सम्बन्धों तथा समझौता तंत्र को मजबूत करने पर जोर दिया जायेगा, श्रम सन्नियमों का सुचारु क्रियान्वयन, श्रम सम्बन्धों तथा श्रम सन्नियमों में शोध, श्रम अधिकारियों को प्रशिक्षण देना श्रम, कड़ी का सुधार तथा मजदूरी तथा उत्पादकता के श्रेत्र में अध्ययन पर जोर दिया जायेगा । अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में उत्पादकता में सुधार लाने पर विशेष ध्यान दिया जायेगा ।”

छठी पंचवर्षीय योजना (Sixth Five Year Plan):

छठी योजना ने घोषित किया, एक देश के लिए औद्योगिक सामंजस्य अत्याज्य होता है, यदि उसको स्वस्थ औद्योगिक सम्बन्धों के माध्यम से आर्थिक प्रगति करनी है, जिन पर औद्योगिक शान्ति आधारित है, को केवल सेवायोजकों तथा श्रमिकों के प्रति ही रुचि का विषय नहीं समझा जा सकता है, वरन् सम्पूर्ण समाज के प्रति यह महत्वपूर्ण चिन्ता का विषय रहा है ।

अन्तिम समीक्षा में औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या अनिवार्यत: रुझानों की तथा सम्बद्ध पक्षकारों की पहुँच की समस्या है । सहयोग की भावना यह स्पष्ट करती है, कि सेवायोजक तथा कर्मचारी यह मान्यता लेते हैं, कि वे अपने-अपने अधिकारों तथा हितों के बचाव में पूरी तरह उचित हैं, तथा उनको यह भी ध्यान है कि समाज के व्यापक हित क्या हैं । अपने त्रिआयामात्मक पहलू में औद्योगिक एकता के सिद्धान्त में यह सच्ची महत्ता की बात है ।

जबकि सम्बद्ध पक्षकारों के बीच असहमति के क्षेत्रों को न्यूनतम करने के लिए प्रयास जारी रखे जाने चाहिए और कानून तथा मशीनरी में स्वीकार्य सुधार किये जाने चाहिये, विद्यमान कानूनों तथा ट्रेड यूनियनों में कुछ परिवर्तन होने चाहिये, औद्योगिक विवाद तथा स्थायी आदेश जिनको सामान्यत: औद्योगिक सम्बन्धों के विकास हेतु आवश्यक माना जाता है, रोकने की आवश्यकता नहीं है तथा इसको आगे बढ़ाया जाना चाहिये ।

योजना आगे बताती है, ”यदि पर्याप्त परामर्शदात्री तंत्र तथा शिकायत प्रक्रिया प्रतिपादित की जाती है, तथा प्रभावी बनायी जाती है तो हड़ताल तथा तालाबन्दी व्यर्थ हो जायेंगे । अंत: यूनियन विवादों के समाधान हेतु तथा अनुचित व्यवहारों तथा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार को हतोत्साहित करने के लिए प्रभावी प्रबन्ध बनाये जाने चाहिए ।”

प्रबन्ध में श्रमिकों की भागीदारी के सम्बन्ध मे इसमें बताया गया, ”उपक्रम स्तर पर यह आधुनिक प्रबन्ध का एक प्रभावी तंत्र के रूप में निर्वहन हेतु औद्योगिक सम्बन्ध तंत्र का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनाना चाहिए । परामर्शदात्री तथा संयुक्त निर्णयन संस्था को एक तंत्र विभिन स्तरों पर तनाब-मुक्त परिचालन को सुनिश्चित करेगा, कार्य संतुष्टि प्रदान करेगा, श्रमिकों की छिपी प्रतिभा को सामने लायेगा, उनका कटाव घटायेगा तथा श्रमिकों की तथा रेखीय प्रबन्ध की कटिबद्धता को बढ़ायेगा ताकि और अच्छी निष्पत्ति का सामान्य पाया जा सके ।”

(National Commission on Labour and Industrial Relations Policy) औद्योगिक सम्बन्धों के विभिन्न पहलुओं पर The National Commission on Labour ने अनेक सिफारिशें दी हैं ।

इनका नीचे वर्णन किया जा रहा है:

(1) सामूहिक सौदेबाजी (Collective Bargaining):

इस तथ्य को समझाते हुए कि सामूहिक सौदेबाजी ठहरावों ने भारत में बहुत कुछ नहीं किया है, NCL ने सौदाकारी के उद्देश्य हेतु एक एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में एक यूनियन की अनिवार्य मान्यता सिफारिश की है ।

(i) कुछ मामलों को छोड़कर यूनियनों की वैधानिक मान्यता के लिए प्रबन्ध के अभाव में, तथा ऐसे प्रावधानों के अभाव में जो सेवायोजकों तथा श्रमिकों को सद्‌भावना में सौदेबाजी करने के लिए अपेक्षा करते हैं, यह कोई आश्चर्य नहीं है, कि सामूहिक सौदेबाजी ठहरावों की पहुँच भारत में कोई विशेष नहीं हो पायी है ।

यही नहीं सामूहिक ठहरावों की पहुँच के रिकॉर्ड भी संतोषजनक नहीं रहे हैं, जैसा कि आम तौर पर विश्वास किया जाता है, कि एक व्यापक क्षेत्र तक इसका विस्तार निश्चय ही वांछनीय है ।

(ii) सामूहिक सौदेबाजी के बढ़ते क्षेत्र तथा विश्वास व इस पर जोर देने में निश्चय ही औचित्य है । कोई भी यकायक परिवर्तन जो सामूहिक सौदेबाजी के एक तंत्र द्वारा समायोजन को प्रतिस्थापित करें उसको क्रमिक होना चाहिए । ऐसे तरीके से सामूहिक सौदेबाजी के प्रति एक दौर चलाया जाना चाहिए कि यह औद्योगिक विवादों के निदान हेतु प्रविधि में वर्चस्व पा सके ।

आयोग ने भी देखा कि:

(a) सामूहिक सौदेबाजी प्रक्रिया को सुचारु बनाने के लिए प्रबन्ध के साथ सौदाकारी के उद्देश्य हेतु एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में एक यूनियन की अनिवार्य मान्यता एक आवश्यक कदम होता है ।

(b) कर्मचारियों को सामूहिक सौदेबाजी की प्रक्रिया में प्रभावी तौर पर भाग लेने में समर्थ बनाने के लिए उनको सुसंगठित होना चाहिए तथा ट्रेड यूनियनों को दृढ़ तथा स्थिर होना चाहिए ।

(c) वह स्थान जो औद्योगिक सम्बन्धों की सर्वांगीण योजना में हडताल/तालाबन्दी में आना चाहिए उसकी परिभाषा करने की आवश्यकता है । सामूहिक सौदेबाजी हड़ताल या तालेबन्दी के अधिकार के बिना विद्यमान हो ही नहीं सकती ।

(2) हड़ताला/तालाबन्दी तथा घिराव (Strikes/Lockouts and Gheraos):

NCL ने उद्योगों को हड़ताल, तालेबन्दी तथा घिरावों के उद्देश्य से ‘अनिवार्य’ तथा ‘गैर-अनिवार्य’ के रूप से वर्गीकृत किया है, तथा देखा है कि प्रत्येक हड़ताल/तालाबन्दी से पूर्व एक नोटिस दिया जाना चाहिए ।

(i) अनिवार्य उद्योगों/सेवाओं में, जहाँ काम की समाप्ति समाज के लिए हानि उत्पन्न कर सकती है, अर्थव्यवस्था या स्वयं राष्ट्र की सुरक्षा गड़बड़ा सकती है, हड़ताल का अधिकार प्रतिबन्धित किया जा सकता है, लेकिन विवादों के समाधान हेतु प्रभावी विकल्पों जैसे पचनिर्णय या न्यायीकरण की साथसाथ व्यवस्था के साथ ।

(ii) गैर अनिवार्य उद्योगों में हडताल या तालेबन्दी के चलते रहने के लिए एक माह की अधिकतम अवधि को तय करना पड़ेगा । इस अवधि के समापन पर विवाद को स्वत: ही पंचनिर्णय हेतु IRC के सामने जाना होगा ।

आवश्यक उद्योगों में हड़ताल/तालेबन्दी का अधिकार व्यर्थ जाना चाहिए । IRC से न्यायीकरण हेतु अपेभा करते हुए जब पारस्परिक समझौते असफल हो जायें तथा पक्षकार पचनिर्णय में जाने के प्रति सहमत न हों ।

(iii) प्रत्येक हड़ताल/तालाबन्दी से पूर्व नोटिस दिया जाना चाहिए । एक हड़ताल का नोटिस एक मान्य यूनियन द्वारा दिया जाना चाहिए तथा एक हड़ताल से पूर्व यूनियन के सभी सदस्यों के सामने मतदान का विकल्प रखा जाना चाहिए, तथा हड़ताल का निर्णय मत दे रहे विद्यमान सदस्यों के कुल 2/3 भाग द्वारा समर्थित होना चाहिए ।

(iv) घिरावों को श्रम अशान्ति के रूप में लिया नहीं जा सकता है, क्योंकि इसमें आर्थिक दबाव की तुलना में शारीरिक उत्पीड़न का समावेश होता है, तथा यह वर्किंग वर्ग के प्रति तथा दीर्घकाल में राष्ट्रीय हितों के प्रति घातक माना जाता है ।

(v) दण्ड, जिनको अनुचित हड़तालों/तालेबन्दी के लिए व्यवस्थित किया गया है, अन्तत: इसको विमुक्त कर देंगे तथा यथाविधि तौर पर पक्षकारों को मना पायेंगे कि ईमानदारी के साथ बैठें तथा पारस्परिक विचार विनिमय से विवादों को हल करें ।

(vi) अनावश्यक हड़तालों/तालेबन्दी को भड़काने से रोकने के लिए क्षतिपूर्ति तथा मजदूरी का हरण, एक हड़ताल/तालेबन्दी के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए ।

(3) पंचनिर्णय (Arbitration):

आयोग ने देखा कि सामूहिक सौदाकारी के विकास तथा प्रतिनिधिक यूनियनों की मान्यता एवं परिष्कृत प्रबन्धकीय रुझानों को सामान्य स्वीकृति के साथ स्वैच्छिक पचनिर्णय के माध्यम से विवादों के समाधान को स्वीकार किया जायेगा ।

(4) अनुचित श्रम व्यवहार (Unfair Labour Practices):

आयोग ने सिफारिश दी कि अनुचित श्रम व्यवहार जो सेवायोजकों तथा श्रमिकों की यूनियन दोनों की ओर से किये जाते हैं, स्पष्ट किये जाने चाहिए तथा ऐसे व्यवहारों को करने के अपराधी पाये गये लोगों के लिए औद्योगिक सम्बन्धों के कानून में व्यवस्था की गई है । अनुचित श्रम व्यवहारों के सम्बन्ध में शिकायतों को निपटाने के लिए श्रम अदालतें उपयुक्त अधिसत्ता होंगी ।

(5) समझौता (Conciliation):

NCL की सिफारिशों के अनुसार समझौतों को प्रस्तावित Industrial Relations Commission का एक भाग बनाया गया । NCL ने देखा कि स्वैच्छिक पंचनिर्णय द्वारा विवादों का समाधान स्वीकार किया जायेगा ।

आयोग ने देखा कि ”समझौता तंत्र व्यवस्था का कामकाज सन्निहित देरियों, कार्यवाही के प्रति एक या अन्य पक्षकार की उदासीनता शामिल महत्वपूर्ण मुद्दों को समझने के लिए स्वयं अधिकारी में पर्याप्त पृष्ठभूमि की कमी तथा तत्र व्यवस्था को तदर्थ प्रकृति एवं विवाद हेतु संदर्भ के विषयों मे सरकार में निहित विवेक के कारण संतोषजनक नहीं रहा है ।”

अत: यह स्पष्ट किया गया कि:

(i) समझौता कहीं अधिक प्रभावी हो सकता है, यदि इसको बाहरी प्रभाव से मुका रखा जाता है, तथा समझौता तत्र व्यवस्था पर्याप्तत: स्टाफशुदा है, तत्र व्यवस्था का स्वतंत्र चरित्र ही एकमात्र तौर पर अत्यधिक विश्वास पैदा करेगा तथा पक्षकारों में सहयोग जगायेगा ।

अत: समझौता तंत्र व्यवस्था की प्रस्तावित औद्योगिक सम्बन्ध आयोग का भाग होना चाहिए । यह अन्तरण महत्वपूण संरचनात्मक क्रियात्मक तथा तंत्र के कामकाज में प्रक्रियागत परिवर्तनों को प्रारम्भ करेगा जैसा कि आज विद्यमान है ।

(ii) मशीनरी का प्रयोग कर रहे अधिकारी वर्ग को प्रभावी तौर पर काम करना होगा यदि उचित चयन, पर्याप्त कार्य-पूर्व प्रशिक्षण तथा अवधिगत in-services प्रशिक्षण रहता है ।

(6) Works Committees and Joint Management Councils:

NCL के अनुसार Work Committees को ऐसी यूनिटों में स्थापित किया जाना चाहिए जिनमें मान्य यूनियन हैं ।

Work Committees के सम्बन्ध में आयोग ने सिफारिशें दी हैं:

उनको केवल ऐसी यूनिटों में स्थापित किया जाना चाहिए जिनमें मान्यता प्राप्त यूनियन हैं । यूनियन को Work Committee के कर्मचारी-सदस्यों को नामजद करने का अधिकार दिया जाना चाहिए ।

‘Work Committee’ तथा मान्य यूनियनों के कार्यों का एक स्पष्ट विभाजन सेवायोजक तथा मान्य यूनियन के बीच पारस्परिक ठहराव के आधार पर समिति को एक श्रेष्ठ कामकाज के लिए आधार बनायेगा ।

Joint Management Councils के बारे में आयोग कहता है:

”जब प्रबन्ध तथा यूनियन ऐसे मामलों में सहयोग देने के लिए इच्छुक होते हैं, जिनको वे पारस्परिक लाभ का समझते हैं तो एक JMC की स्थापना कर सकते हैं । इस बीच जब भी प्रबन्ध तथा एक यूनिट में मान्य यूनियन ऐसा चाहती है, एक ठहराव द्वारा वे Works Committee की शक्तियों तथा क्षेत्र को व्यापक बना सकते हैं, ताकि सहयो/परामर्श की एक बड़ी मात्रा सुनिश्चित हो सके । बाद वाली स्थिति में दोनों के कार्यों का भली प्रकार एकीकरण किया जा सकता है ।”

(7) शिकायत प्रक्रिया (Grievance Procedure):

आयोग का विश्वास है कि ”वैधानिक समर्थन एक प्रभावी शिकायत प्रक्रिया के सृजन हेतु दिया जाना चाहिए जो सरल, लोचपूर्ण तथा कम जटिल हो तथा लगभग विद्यमान Model Grievance Procedure पर आस्पारित हो यह समयबद्ध होना चाहिए तथा इसमें सीमित मात्रा में चरण हों, जैसे Approach to the Supervisor, फिर Departmental Heads को, तथा तत्पश्चात् Grievance Committee को एक संदर्भ जिसमें प्रबन्ध तथा यूनियन के प्रतिनिधि शामिल हों ।

अत: आयोग ने सिफारिश की:

(i) शिकायत प्रक्रिया सरल होनी चाहिए तथा उसमें कम-से-कम अपील का एक प्रावधान होना चाहिए ।

प्रक्रिया को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि यह एक भाव दे:

(a) व्यक्तिगत श्रमिकों की संतुष्टि का,

(b) प्रबन्धक को अधिसत्ता के उचित उपयोग का, तथा

(c) यूनियनों के भागीदारों का । एक औपचारिक शिकायत प्रक्रिया को 100 या अधिक श्रमिकों वाली यूनिटों में लागू किया जाना चाहिए ।

(ii) एक शिकायत प्रक्रिया को सामान्यत: तीन चरणों की व्यवस्था करनी चाहिए:

(a) अपने निकट सुपरवाइजर के प्रति पीड़ित श्रमिक द्वारा शिकयत की प्रस्तुति;

(b) विभागीय अध्यक्ष/प्रबन्धक के प्रति अपील;

(c) प्रबन्ध तथा मान्य यूनियन के प्रतिनिधित्व वाली द्विपक्षीय शिकायत समिति के समक्ष अपील । अद्‌भूत मामलों में, जहाँ समिति में मतैक्य नहीं बनता विषय को एक पंच को सौंपा जा सकता है ।”

(8) अनुशासन प्रक्रिया (Discipline Procedure):

सेवायोजकों तथा श्रमिकों दोनों के विचारों को सुनने के बाद आयोग ने सुझाव दिया कि अनुशासन प्रक्रिया में निम्न परिवर्तन किये जायें:

(i) विभिन्न प्रकार के दुराचरणों के लिए दण्ड का प्रमापीकरण;

(ii) घरेलू जाँच समिति में श्रमिकों के प्रतिनिधियों का समावेश;

(iii) एक घरेलू जाँच में अपना निर्णय देने के लिए एक पचनिर्णायक का होना;

(iv) एक कर्मचारी को पर्याप्त Show Cause का अवसर;

(v) जाँच कार्यवाही के दौरान एक कर्मचारी केस का प्रतिनिधित्व करने के लिए यूनियन अधिकारी की मौजूदगी;

(vi) पीड़ित श्रमिक को कार्यवाही के रिकॉर्ड सजाई करना;

(vii) स्थगन अविध के दौरान जीवन-यापन भत्ते का भुगतान;

(viii) इस उद्देश्य हेतु स्थापित प्रशासनिक ट्रिब्यूनल्स को अपील का अधिकार; तथा

(ix) ट्रिब्यूनल्स कार्यवाही हेतु एक समय सीमा का निर्धारण तथा मामले के नये सिरे से परीक्षण, संशोधन या सेवायोजक द्वारा आदेशित किसी दण्ड के निरस्तीकरण हेतु उसको अबोध शक्तियाँ देना ।

प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए आयोग ने निम्न सिफारिशें दी हैं:

(a) घरेलू जाँच में पीड़ित कर्मचारियों को मान्य यूनियन के एक अधिकारी द्वारा या अपनी इच्छा के एक कर्मचारी द्वारा प्रतिनिधित्व करने का अधिकार होना चाहिए;

(b) घरेलू जांच के रिकॉर्ड एक ऐसी भाषा में बनाये जाने चाहिये जिसे पीड़ित कर्मचारी या उसकी यूनियन समझ सकें;

(c) घरेलू जाँच को निर्धारित समय में पूरा किया जाना चाहिये जो अनिवार्यत: छोटा होना चाहिए;

(d) निष्कासन के सेवायोजक के आदेश के विरुद्ध अपील नियत अवधि के भीतर दाखिल की जानी चाहिए;

(e) श्रमिक को ठहराव के अनुसार बर्खास्तगी की अवधि के दौरान जीवन-यापन भत्ता मिलना चाहिए ।

(9) औद्योगिक एकता (Industrial Harmony):

जबकि औद्योगिक शान्ति की नकारात्मक तथा सकरात्मक दोनों ही विचारधाराएँ हैं, औद्योगिक एकता की प्राप्तियाँ अनिवार्यत: औद्योगिक विवादों के समाधान के प्रति एक धनात्मक तथा रचनात्मक पहुँच की व्यवस्था करती है ।

अत: आयोग ने औद्योगिक सम्बन्धों की तंत्र व्यवस्था को राजनीतिक प्रतिद्वन्द्विता के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त करने पर जोर दिया । यह बहुदलीय दृष्टि से जरूरी था जो देश में उभर रही थीं ।

आयोग ने विद्यमान औद्योगिक सम्बन्धों की तंत्र व्यवस्था के कामकाज में कुछ कमजोरियों का संदर्भ लिया है, जिनमें शामिल है: देरी खर्चा तंत्र व्यवस्था की व्यापक तदर्थ प्रकृति तथा विवादों के लिए संदर्भ के मुद्दों में सरकार में निहित विवेक ।

अत: औद्योगिक तंत्र को और अधिक प्रभावी तथा स्वीकार्य बनाने के लिए विद्यमान तंत्र व्यवस्था में उपयुक्त संशोधनों को किया जाना चाहिए ।

(10) औद्योगिक सम्बध आयोग (Industrial Relations Commission):

आयोग ने सिफारिशों ”एक औद्योगिक सम्बना आयोग का गठन, स्थायी आधार पर राज्य तथा केन्द्र दोनों ही स्तरों पर ।”

”राज्य की IRC ऐसे उद्योगों के सम्बन्ध में विवादों का निपटारा करेगी जिसके लिए राज्य सरकार उपयुक्त अधिसत्ता है, जबकि राष्ट्रीय IRC राष्ट्रीय महत्व वाले प्रश्न को समावेश करने वाले विवादों से निपटेगा या ऐसे मामले जो एक से अधिक राज्यों में स्थित संस्थानों को प्रभावित कर सकते हैं । इन आयोगों को सुलझाने के लिए एक प्रधान कारण है, देश में औद्योगिक शान्ति को गड़बड़ने या भ्रमित करने वाले राजनीतिक प्रभाव की सम्भावना का निराकरण करने की इच्छा ।”

”आयोग में न्यायिक तथा गैर–न्यायिक दोनों ही प्रकार के सदस्य होंगे । न्यायिक सदस्य तथा राष्ट्रीय/राज्य IRC के सभापति, को उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति हेतु समर्थ लोगों के बीच से नियुक्त किया जायेगा । गैरन्यायिक सदस्यों को पदों पर रहने के लिए योग्यताएँ पाने की आवश्यकता नहीं है, यद्यपि उन्हें उद्योग श्रम या प्रबन्ध के क्षेत्र में दक्ष होना चाहिए ।”

IRCs प्रशासिका से पूर्णत: स्वतत्र उच्च शक्ति वाली संस्थाएँ होंगी ।

इन IRCs के मुख्य कार्य होंगे:

(a) औद्योगिक विवादों का न्यायीकरण,

(b) समझौता, तथा

(c) प्रतिनिधिक यूनियनों के रूप में यूनियनों का प्रमाणन ।

”समझौता प्रखण्ड में निर्धारित योग्यताओं तथा स्तर वाला एक समझौता अधिकारी होगा ।”

”यूनियनों के प्रमाणन सम्बन्धी कार्य राष्ट्रीय/राज्य IRC के एक पृथक् प्रखण्ड के पास रहेंगे ।”

”आयोग अपने सदस्यों/अधिकारियों में से पंचनिर्णायकों की व्यवस्था कर सकता है, यदि पक्षकार ऐसी सेवाएँ लेने के लिए सहमत हैं ।”

”सभी सामूहिक ठहरावों को IRC के पास पंजीकृत कराना चाहिए ।”

”मान्य यूनियनों द्वारा उठाये गये किसी विवाद के सम्बन्ध में IRC द्वारा दिया गया एक निर्णय संस्थानों में सभी श्रमिकों तथा सेवायोजकों पर बाध्य होना चाहिए ।”

(11) श्रम अदलतें (Labour Courts):

आयोग ने निम्न हेतु सिफारिशें कीं:

(i) श्रम अदालतों की स्थापना, उच्च न्यायालय की सिफारिशों पर सरकार द्वारा की जायेगी ।

(ii) श्रम अदालत के सदस्यों को उच्च न्यायालय की सिफारिशों पर सरकार द्वारा नियुक्त किया जायेगा ।

(iii) श्रम अदालत सन्नियमों या ठहरवों के सम्बद्ध प्रावधानों के अन्तर्गत उत्पन्न दावों तथा निर्णयों के क्रियान्वयन, समीक्षा, अधिकारों व दायित्वों के सम्बन्ध में विवादों तथा साथ ही अनुचित श्रम व्यवहारों के सम्बन्ध में विवादों का हल निकालेंगी ।

(iv) इस प्रकार श्रम अदालतें ऐसी अदालते होंगी जहां उपर्युका सभी विवाद सुने जायेंगे तथा उनके निर्णयों का क्रियान्वयन होगा । उक्त श्रेणियों के अन्तर्गत आने वाले अधिकारों के क्रियान्वयन हेतु पूछ रहे पक्षकारों द्वारा स्थापित कार्यवाही को इस सम्बन्ध में लिया जायेगा ।

(v) कुछ स्पष्टत: परिभाषित विषयों में श्रम अदालत के निर्णयों पर अपील उस उच्च न्यायालय में की जा सकती है, जिसके अधिकार क्षेत्र में न्यायालय आता है ।

Essay # 3. औद्योगिक सम्बन्ध एवं पंचवर्षीय योजनाएँ (Industrial Relations and Five Year Plan):

प्रथम पंचवर्षीय योजना (First Five Year Plan):

प्रथम पंचवर्षीय योजना में आयोग (Planning Commission) ने ध्यान दिलाया कि औद्योगिक शान्ति की स्थापना के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए औद्योगिक विवादों के निपटारे में न्यायिक व्यवस्था अधिक सहायक नहीं हुई । विभिन्न विवादों में न्याय देने में अधिक देरी की गई ।

औद्योगिक एवं श्रम न्यायालयों ने विवादों को तेजी से नहीं निपटाया । आयोग, अपील न्यायाधिकरण (Appellate Tribunal) एवं औद्योगिक अदालतों या न्यायाधिकरण के निर्णयों के विरुद्ध अपील के हक में भी नहीं था । आयोग ने न्यायाधिकरणों के लिए आपसी सम्बन्धों को निर्धारित करने वाले एवं दिशा प्रदान करने वाले मानकों में एकरूपता लाने की सिफारिश की ।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना (Second Five Year Plan):

द्वितीय पंचवर्षीय योजना में आयोग ने औद्योगिक शान्ति के उद्देश्य की प्राप्तिकेलिए आपसी समझौता (Mutual Negotiation) मध्यस्थता और ऐच्छिकपंचनिर्णय (Voluntary Arbitration) व अनिवार्य पंचनिर्ण (Compulsory Arbitration) आदि के उपयोग करने पर जोर दिया ।

आयोग ने औद्योगिक शान्ति स्थापित करने के लिए औद्योगिक संघर्षों की रोकथाम के उपायों पर भी बल दिया आयोग ने औद्योगिक शान्ति की स्थापना के लिए संयुक्त परामर्शीय व्यवस्था (Joint Consultative Machinery), कार्य-समितियों (Works Committee), श्रम-प्रबन्ध सम्बन्धों के उपयोग का सुझाव भी दिया ।

तृतीय पंचवर्षीय योजना (Third Five Year Plan):

तृतीय पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विवादों की प्रारम्भिक अवस्था में ही उचित समय पर रोकथाम करने पर बल दिया गया । इस योजना के अनुसार औद्योगिक सम्बन्धों का विकास अनुशासन-संहिता (Code of Discipline) पर निर्भर करता हे । इस संहिता का पालन सभी कर्मचारियों एवं श्रमिकों को करना चाहिए ।

इस योजना में इस बात पर भी बल दिया गया कि संयुक्त प्रबन्ध समितियों को धीरेधीरे अधिक-से-अधिक नई औद्योगिक इकाइयों में लागू किया जाएगा जिससे कि यह औद्योगिक व्यवस्था का एक सामान्य अंग बन सके । इनके विकास से प्रबन्ध में सहभागिता को समर्थन मिलेगा ।

चौथी पंचवर्षीय योजना (Fourth Five Year Plan):

चौथी पंचवर्षीय योजना में औद्योगिक विवाद अधिनियम industrial Disputes Act) की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि औद्योगिक विवादों के समाधान के लिए मध्यस्थता, न्यायाधिकरण एवं ऐच्छिक पंचनिर्णय का उपयोग किया जाना चाहिए । इस योजना में इस अधिनियम में दिये गए प्रावधानों को अन्त में प्रयोग करने पर बल दिया गया ।

इस योजना में सामूहिक सौदेबाजी एवं श्रम-संघ आन्दोलन को मजबूत करने पर भी बल दिया गया जिससे मधुर श्रम-सम्बन्ध स्थपित हो सकें । इसमें अनुशासन संहिता (Code of Discipline), कार्य समितियों(Works Committees) की स्थापना एवं संयुक्त प्रबन्ध समितियों (Joint Management Councils) का प्रयोग औद्योगिक प्रणाली की स्थापना करने के लिएकहा गया ।

पांचवीं पंचवर्षीय योजना (Fifth Five Year Plan):

पांचवीं पंचवर्षीय योजना में रोजगार एवं श्रम-शक्ति पर अधिक बल दिया गया एवं श्रम-नीति में किसी परिवर्तन के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया ।

छठी पंचवर्षीय योजना (Sixth Five Year Plan):

छठी पंचवर्षीय योजना में इस बात की ओर ध्यान दिलाया गया कि किसी भी देश के आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक शान्ति अति आवश्यक है । स्वस्थ औद्योगिक सम्बन्ध, जिन पर कि औद्योगिक शान्ति निर्भर करती है, यह केवल श्रमिकों एवं नियोक्ताओं के ही हितों का मसला नहीं है ।

इन पक्षों को पूरे समाज के सम्पूर्ण हितों को भी ध्यान में रखना चाहिए । अच्छे औद्योगिक सम्बन्धों को बनाये रखने के लिए परामर्शीय व्यवस्था (Consultative Machinery) एवं शिकायतों प्रक्रियाओं (Grievance Procedure) को प्रभावी बनाया जाना चाहिए एवं हडताल और तालाबन्दी का आश्रय केवल अन्त में लिया जाना चाहिए ।

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