Read this essay in Hindi to learn about the various aspects of macro environment of business.

व्यवसाय के व्यापक वातावरण में उप गतिविधियों को सम्मिलित किया जाता है । जिनका विशिष्ट घटकों की तुलना में नियन्त्रण रखना कठिन होता है । अतः व्यवसाय द्वारा उनका पूरा ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है ।

निम्नलिखित शक्तियाँ व्यापक पर्यावरण के अन्तर्गत आती है:

Essay # 1. आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment):

भारत में ब्रिटिश शासन से पूर्व आर्थिक पर्यावरण अधिक उन्नत एवं अच्छा था । देश में कृषि की प्रधानता थी । खाद्यान्न की पर्याप्त मात्रा में पैदावार होती थी । हस्तकला एवं लघु उद्योग काफी विकसित अवस्था में थे तथा इनकी वस्तुएँ दूर-दूर तक विदेशों को निर्यात की जाती थीं ।

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जहाजरानी व्यवसाय काफी उन्नतशील अवस्था में था तथा इसका विदेशी व्यापार में महत्वपूर्ण योगदान था । परन्तु ब्रिटिश शासन के आते ही देश का आर्थिक विकास अवरुद्ध हो गया तथा भारतीय अर्थव्यवस्था गतिहीन अवस्था में आ गयी ।

स्वतन्त्रता से पूर्व व उसके पश्चात् देश के आर्थिक पर्यावरण को निम्न प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है:

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment before Indian Independence):

(i) ब्रिटिश हित में सरकारी नीति (Government Policy in British Interest):

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स्वतन्त्रता से पूर्व भारत में ब्रिटिश शासन लगभग दो सौ वर्षों तक स्थापित रहा । इस काल में उन्होंने ब्रिटिशहितों का पोषण करने वाली व्यापारिक नीतियाँ ही बनायीं । इससे ब्रिटिश शासन को अधिकाधिक लाभ मिला ।

(ii) सरकार की निष्क्रियता एवं उद्योगों का पतन (Inaction of Government & Failure of Industry):

ब्रिटिश शासन काल में भारत के परम्परागत उद्योगों का पतन होता रहा, परन्तु सरकार इस ओर निष्क्रिय बनी रही । उसने न तो स्थापित उद्योगों को बचाने का प्रयत्न किया और न ही नवीन उद्योगों की स्थापना में कोई रुचि दिखाई ।

(iii) कृषि पर ध्यान न देना (No Attention to Agriculture):

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भारत में परम्परागत उद्योगों के पतन के कारण जनसंख्या का दबाव कृषि पर तीव्र गति से बढ़ा जिससे कृषि में उपविभाजन व अपखण्डन की गम्भीर समस्या उत्पन्न हुई तथा खेत छोटे होते चले गये । दूसरी ओर कृषि के सुधार हेतु सरकार ने कोई रुचि नहीं ली ।

उसने न तो उपकरणों, खाद व अच्छे बीजों को उपलब्ध कराने का प्रयत्न किया और न ही सिंचाई सुविधाओं को बढ़ाने का प्रयास किया । साथ ही जमींदार प्रथा भी लागू कर दी, जिससे जमींदार कृषकों को बेदखल करने लगे, फलतः किसान कृषि से दूर भागने लगा ।

(iv) औद्योगिक विकास में ब्रिटिश हित (Industrial Growth in British Interest):

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भारत में औद्योगिक विकास का प्रारम्भ 1850 से हुआ, परन्तु इसमें भी ब्रिटिश हित विद्यमान था । उस समय अधिकांश उद्योगों को स्थापित करने वाले व्यक्ति ब्रिटेन के निवासी थे । उस लोगों ने सर्वप्रथम उपभोक्ता वस्तुओं से सम्बन्धित उद्योगों को स्थापित किया । बाद में कुछ भारतीय उद्यमी भी इस दिशा में आगे बढ़े परन्तु वे विदेशी प्रतिस्पर्धा, सरकारी हस्तक्षेप, सरकारी असहयोग, आधारभूत संरचना के अभाव आदि के कारण आगे बढ़ने में असफल रहे ।

स्वतन्त्रता के पश्चात् आर्थिक पर्यावरण (Economic Environment after Independence):

हमारे देश को ब्रिटिश शासन से 15 अगस्त, 1947 को स्वतन्त्रता मिली । अतः भारत को स्वतन्त्रता मिलने पर अपनी सरकार बनाने का अवसर मिला । इससे बिगड़े आर्थिक पर्यावरण को बनाने के लिए आर्थिक नीति के माध्यम से देश के सन्तुलित आर्थिक विकास का लक्ष्य रखा गया ।

अतः देश में नियोजन प्रक्रिया शुरू की गयी और भारतीय अर्थव्यवस्था ने स्वतन्त्र भारत के निर्माण के मूल उद्देश्यों, आत्म-निर्भरता, समता तथा न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की ओर तीव्र एवं सन्तुलित प्रगति की ।

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स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् आर्थिक पर्यावरण के प्रमुख घटकों को निम्न शीर्षकों के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सकता है:

i. आर्थिक नियोजन (Economic Planning):

आर्थिक नियोजन अनिवार्य रूप से सामाजिक उद्देश्यों के अनुरूप साधनों के अधिकतम लाभ के लिए संगठित एवं उपयोग करने का एक मार्ग है । इसके अन्तर्गत उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु अपनायी गयी नीति एवं उपलब्ध साधनों तथा उसके अधिकतम आबंटन के सम्बन्ध में ज्ञान है ।

नियोजन का प्रमुख उद्देश्य आय की असमानता को कम करना, पूर्ण रोजगार की प्राप्ति, सन्तुलित क्षेत्रीय विकास, प्राकृतिक संसाधनों का उचित विदोहन, आत्मनिर्भरता, अधिकतम कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा, गरीबी निवारण आदि हैं । वर्तमान समय तक देश नियोजन के इन उद्देश्यों को काफी हद तक प्राप्त करने में सफल रहा है तथा जिन उद्देश्यों को पूर्ण-रूपेण नहीं प्राप्त किया जा सका है, उनके लिए देश प्रयत्नशील है ।

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ii. आधारभूत संरचना का विकास (Development of Infrastructure):

गतिहीन आधारभूत संरचना को गतिशील बनाने के लिए स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् सरकार द्वारा अनेक आर्थिक उपाय करने के ही कारण अर्थव्यवस्था को गति प्राप्त हुई । आधारभूत संरचना के अन्तर्गत परिवहन, संचार, विद्युत, कोयला, लोहा आदि उद्योग शामिल होते हैं । इन उद्योगों का विकास अपेक्षा के आस-पास ही हो । वर्ममान में इन उद्योगों का भारतीय अर्थव्यवस्था के समग्र विकास में महत्वपूर्ण योगदान हैं ।

परिवहन क्षेत्र में जहाँ हम सड़क मार्ग के माध्यम से स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के द्वारा सम्पूर्ण देश से जुड़ गये हैं, वहीं रेलवे देश का सबसे बड़ा रोजगार उपलब्ध कराने वाला उपक्रम बन गया है । संचार के क्षेत्र में अविश्वसनीय क्रान्ति आयी है, जहाँ पूरे विश्व को एक जाल से जोड़ दिया गया है । विद्युत उपलब्धता में हम आत्मनिर्भरता की तरफ अग्रसर हो रहे हैं, वहीं लोहा उत्पादन में देश विश्व में प्रथम स्थान रखता है ।

iii. पूँजी निर्माण (Capital Formation):

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पूँजी निर्माण से अर्थ पूँजी वस्तुओं जैसे औजार व उपकरण, मशीन, परिवहन सुविधाओं, सयन्त्र व साज-सज्जा आदि वस्तुओं की मात्रा में वृद्धि होने से है । स्वतन्त्रता-प्राप्ति के समय भारत में निर्धनता, तीव्र जनसंख्या वृद्धि, निम्न प्रति व्यक्ति आय, निम्न उत्पादकता आदि प्रमुख समस्याएँ देश के समक्ष विद्यमान थीं, इससे पूँजी निर्माण में बाधा उत्पन्न होती थीं ।

तत्पश्चात् नियोजन प्रक्रिया अपनाने से पूँजी निर्माण में काफी प्रगति हुई है । वर्ष 1950-51 में जहाँ निर्माण की दर मात्र 10.5 प्रतिशत प्रतिवर्ष थी, वहीं उसमें 50 वर्षों बाद 115 प्रतिशत की वृद्धि हुई है । तथा वर्ममान में पूँजी निर्माण की दर लगभग दुगुनी (20%) के स्तर पर पहुँच गयी है ।

iv. संस्थागत ढाँचा (Institutional Structure):

स्वतन्त्रता-प्राप्ति के पश्चात् देश में संस्थागत ढाँचे में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है । अनेक वित्तीय संस्थाएँ, प्रशिक्षण संस्थाएँ, शिक्षण संस्थाएँ, प्रबन्ध संस्थाएँ, तकनीकी संस्थाएँ आदि की स्थापना हुई हैं । इन्हीं के परिणामस्वरूप आज शिक्षा के क्षेत्र में विश्व स्तर पर भारत को काफी ख्याति प्राप्त हुई है ।

v. कृषि विकास (Agricultural Development):

स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय भारतीय कृषि की स्थिति अत्यन्त ही दयनीय रही है, परन्तु इसके पश्चात् नियोजन प्रक्रिया द्वारा कृषि में सन्तोषजनक सुधार भी हुआ । कृषि उत्पादकता में वृद्धि प्रत्येक दशा में सामान्य आर्थिक विकास की दृष्टि से उपयोगी है ।

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कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था उसी समय गतिशील अवस्था में स्वपोषित आर्थिक विकास की अवस्था को प्राप्त करती है, जब कृषि का पर्याप्त विकास होता है । भारतीय कृषि ने लगभग सभी आर्थिक क्षेत्रों में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान कुल आय के आधे से अधिक था परन्तु वर्तमान में यह घटकर 20% से भी कम हो गया है, वास्तव में जो देश जितना ही अधिक विकसित होगा राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान उतना ही कम होगा ।

इस समय देश की लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है । इस समय कृषि पदार्थों का निर्यात् Rs. 50 हजार करोड़ से अधिक का है । अधिकतर कृषि वस्तुओं के उत्पादन व उपभोग के मामले में आज देश आत्मनिर्भर है । कृषि विकास के करण ही अनेक उद्योग-धन्धों का विकास हुआ है ।

vi. आर्थिक समानता (Economic Equality):

सरकार ने आर्थिक पर्यावरण की दृष्टि से आर्थिक विषमता को कम करने का प्रयत्न किया है जिसके अन्तर्गत जमींदारों की समाप्ति हुई भूमि की अधिकतम सीमा निश्चित की गयी है, करारोपण प्रगतिशील बनाया गया है, पिछले एवं गरीब तथा बेरोजगार लोगों को विभिन्न योजनाओं, नीतियों के माध्यम से आर्थिक सहायता, रोजगार, ऋण आदि प्रदान करने का प्रयत्न किया जा रहा है ।

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परिणामस्वरूप देश की प्रतिव्यक्ति आय में सुधार है तथा लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठा है ।

vii. मुद्रा एवं पूँजी बाजार का विकास (Development of Money and Capital Market):

मुद्रा बाजार के अन्तर्गत वह समस्त व्यक्ति एवं संस्थाएँ शामिल हैं, जो अल्पकाल के लिए मुद्रा उपलब्ध कराते हैं । वह पूँजी बजार में दीर्घकालीन वित्त उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं को शामिल किया जाता है । भारत का मुद्रा एवं पूँजी बाजार विश्व के पुराने में से एक है । 1875 ई. में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (बी. एस. ई.) अस्तित्व में आया तथा इसका कारोबार निरन्तर फलता-फूलता रहा है ।

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एन. एस. ई.) जो 1990 के मध्य में स्थापित हुआ और सतत प्रगति की । भारत में 12 जनवरी, 2007 की स्थिति के अनुसार 834 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बाजार पूँजीकरण था, जो देश के सकल घरेलू उत्पाद के 91.5 प्रतिशत के बराबर था ।

भारत की पूँजी एवं मुद्रा बाजार विश्व की अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं के साथ अच्छी तरह फल-फूल रहा है । साथ ही साथ भारत का कुछ विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मुद्रा एवं पूँजी बाजार की श्रेणी में पहुँचने के संकेत भी नजर आ रहे हैं ।

(A) आर्थिक विकास का स्तर या अवस्था (Stage of Economic Development):

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आर्थिक विकास की अवस्था ही स्थानीय अथवा घरेलू बाजार का आकार निर्धारित करती है तथा व्यवसाय को प्रभावित करती है ।

विकास के स्तर के आधार पर सम्पूर्ण विश्व की अर्थव्यवस्था विकसित तथा विकासशील अर्थव्यवस्था में विभाजित है । अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, इटली, जर्मनी, ब्रिटेन तथा जापान इत्यादि देशों की अर्थव्यवस्था विकसित मानी जाती है तथा एशियाई, अफ्रीकी एवं लेटिन अमेरिकी देशों की अर्थव्यवस्था विकासशील मानी जाती है ।

विकासशील देश में वस्तु विशेष की कम माँग का मुख्य कारण अल्प आय है । चूँकि विक्रय तथा माँग आय की लोच पर आधारित होते हैं, आय की वृद्धि के साथ आय बढ़ती है परन्तु वस्तु की माँग में वृद्धि करने के लिये क्रेता की क्रय-शक्ति में वृद्धि करने में फर्म असमर्थ होती है । अतः फर्म लागत व्यय में कमी करके विक्रेता मूल्य को नीचे स्तर पर रखने का प्रयत्न करती है ।

यहाँ तक कि नई खोज एवं अनुसंधान द्वारा कम लागत उत्पादित वस्तु कम आय वाले बाजार (Low Income Market) के लिये तैयार की जाती है । उदाहरणार्थ प्रसिद्ध कम्पनी कोलगेट ने कम आय बाजार के लिये (विकासशील एवं अविकसित राष्ट्रों) कम मूल्य की कपड़े धोने की मशीन का निर्माण किया है ।

ऐसे देशों में जहाँ विनियोग एवं आय के स्तरों में निरन्तर वृद्धि होती है, वहाँ व्यवसाय और विनियोग की सम्भावनाएँ अधिक आवश्यक होती हैं परन्तु अर्थशास्त्रियों व व्यवसायियों के बीच अब यह धारणा सुदृढ़ होती जा रही है कि विकसित देश विनियोग के दृष्टिकोण से अधिक उपयुक्त नहीं है क्योंकि वहाँ अर्थव्यवस्था विकास के अधिकतम बिन्दु (Saturation Point) तक पहुँच चुकी है ।

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अतः आर्थिक विकास की अवस्था व्यवसाय की प्रकृति, पैमाने आदि को प्रभावित करती है ।

(B) आर्थिक नीतियाँ (Economic Policies):

आर्थिक नीति वह सरकारी नीति होती है जो किसी देश की समस्त आर्थिक गतिविधियों के निर्देशन, नियन्त्रण तथा नियमन से सम्बन्ध रखती है ।

आर्थिक नीति भी किसी एक नीति का नाम नहीं होता है बल्कि औद्योगिक, व्यापारिक, मौद्रिक, राजकोषीय, साख, कीमत, कृषि तथा श्रम इत्यादि क्षेत्रों से जुड़ी विशिष्ट सरकारी नीतियाँ, एकीकृत स्वरूप में आर्थिक नीति के नाम से सम्बोधित की जाती हैं सरकार की आर्थिक नीति का प्रभाव-व्यवसाय पर अधिक एवं प्रत्यक्ष होता है ।

अब हम संक्षेप में यह अध्ययन करेंगे कि किस प्रकार विभिन्न आर्थिक नीति के उपकरण व्यवसाय व उद्योग को प्रभावित करते हैं:

i. औद्योगिक नीति (Industrial Policy):

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इसके अन्तर्गत उद्योगों का वर्गीकरण, सरकारी एवं निजी क्षेत्र की भूमिका, उद्योगों की स्थापना, उद्योगों पर छूट या प्रतिबन्ध, ऋण तथा प्रोत्साहन, उत्पादन, परमिट, लाइसेंस, कोटा, कच्ची सामग्री, प्रबन्धन तथा पंजीकरण इत्यादि से सम्बन्धित प्रावधान शामिल होते हैं ।

वस्तुतः किसी भी देश की औद्योगिक नीति ही औद्योगिक विकास की तकदीर का निर्धारण करती है । लाइसेंस नीति तथा लधु उद्योग नीति इसकी उप या सहायक नीतियाँ हो सकती हैं ।

औद्योगिक इकाई बाह्य अर्थव्यवस्था के लाभों को प्राप्त करने के लिए शहरों एवं औद्योगिक क्षेत्रों में स्थापित होती है । परन्तु भारत सरकार ऐसे उद्योगों को शहरों में केन्द्रित होने के लिए प्रोत्साहन नहीं देती है ।

इस प्रकार पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित उद्योगों को अनेक प्रकार की समस्याएँ और हानियाँ हैं परन्तु सरकार ऐसे पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित उद्योगों को विभिन्न प्रकार के प्रोत्साहन देकर सम्भावित हानियों को कुछ हद तक कम करने का प्रयत्न करती है ।

ऐसे उद्योग जो प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्रों में आते हैं, उन्हें सरकार की नीति के अन्तर्गत अनेक प्रकार के प्रोत्साहन प्राप्त होते हैं, जबकि ऐसे उद्योग जिन्हें प्राथमिकता क्षेत्र से बाहर रखा जाता है, उन्हें विभिन्न समस्याओं से अवगत होना पड़ता है ।

भारत में आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण के विरुद्ध अपनाई गई सरकार की नीति के कारण बड़े उद्योगों तथा विदेशी कम्पनियों की भूमिकाएँ आधारभूत उद्योगों, गहन विनियोग, निर्यात तथा पिछड़े क्षेत्रों (Backward Regions) तक सीमित हैं ।

ii. राजकोषीय या बजट नीति (Fiscal or Budget Policy):

राजकोषीय नीति का संचालन वित्त मन्त्रालय करता है तथा इसमें सरकारी आय-व्यय, सार्वजनिक ऋण (सरकार पर विदेशी एवं देशी ऋण) तथा घाटे की वित्त व्यवस्था इत्यादि भाग शामिल हैं । किसी भी राजकोषीय नीति के प्रमुख उद्देश्यों में पूँजी-निर्माण, विनियोग निर्धारण, राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि, रोजगार के अबसरों में वृद्धि, स्थिरता के साथ विकास तथा आर्थिक समानता लाना इत्यादि सम्मिलित होते हैं ।

कुशल बजट नीति के माध्यम से सरकार उद्योगों के विभिन्न प्रकार की रियायतें व उत्पेरणाएँ देती हैं, आर्थिक स्थायित्व लातीं है जिसका व्यावसायिक पर्यावरण पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है ।

iii. मौद्रिक नीति (Monetary Policy):

”मौद्रिक नीति का अर्थ केन्द्रीय बैंक की उस नियन्त्रण नीति से है जिसके द्वारा केन्द्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्यों से मुद्रा की पूर्ति पर नियन्त्रण करता है ।” भारत में सामान्यः रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया मौद्रिक एवं साख नीति जारी करता है जिसमें साख (क्रेडिट) नियन्त्रण के उपाय किये जाते हैं ।

आर्थिक विकास तथा कीमतों की स्थिरता रखना इस नीति के उद्देश्य माने जाते हैं । पूँजी-निर्माण (बचत, वित्तीय क्रियाशीलता तथा विनियोग द्वारा), ऋण प्रबन्धन, भुगतान सन्तुलन, मुद्रा आपूर्ति, रोजगार अवसरों का सृजन तथा भुगतान सुविधा सहित आर्थिक समानता लाना इनके प्रमुख तत्व माने जा सकते हैं । वित्तीय प्रणाली के विकास हेतु नई वित्तीय संस्थाओं का निर्माण भी इसी नीति में शामिल है ।

मौद्रिक उपकरणों के माध्यम से आर्थिक व व्यावसायिक गतिविधियों को वांछित दिशा देने का प्रयत्न किया जाता है । अतः मौद्रिक नीति का आर्थिक पर्यावरण में महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है ।

iv. व्यापार नीति (Trade Policy):

सामान्यतः व्यापार नीति दो प्रकार की होती है । ‘संरक्षणवादी व्यापार नीति’ में कोई भी सरकार अपने नये एवं छोटे उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से बचाने के लिए आयात पर प्रतिबन्ध लगा देती है । जबकि ‘स्वतन्त्र व्यापार नीति’ के अन्तर्गत निर्यात या सरकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है ।

दिनांक 1 अप्रैल, 2001 से भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू. टी. ओ.) की शर्तों के अनुसार स्वतन्त्र व्यापार नीति घोषित कर दी है । इससे देश में बाहर से ऐसी सभी प्रकार की वस्तुएँ आयात की जा सकेंगी जिन पर पूर्व में प्रतिबन्ध लगा हुआ था ।

आम उपभोक्ता तथा कृषि से सम्बन्धित कतिपय उत्पादों पर सरकार भारी आयात शुल्क आरोपित करेगी, ताकि स्थानीय लघु उद्योगों एवं कृषकों के हितों पर कुठाराघात न हो । स्पष्टतः देश के व्यवसाय पर सरकार की व्यापार नीति का महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है ।

इसके अतिरिक्त, किसी राष्ट्र की आर्थिक नीति में निम्नांकित भी महत्वपूर्ण मानी जाती हैं:

1. ऊर्जा नीति

2. कम्प्यूटर नीति

3. वन नीति

4. राजसहायका (सब्सिडी नीति)

5. परमाणु नीति

6. जल नीति

7. खाद्य नीति

8. सहकारी नीति

9. खनिज नीति

10. ईंधन नीति

11. उर्वरक नीति

12. वस्त्र नीति

13. जल परिवहन नीति

14. परिवहन नीति

15. संचार नीति |

अतः सरकार की आर्थिक नीति में किसी भी परिवर्तन का गहरा प्रभाव पड़ता है । कुछ नीतियों से सुअवसर अथवा चुनौतियाँ सामने आती हैं । दूसरे शब्दों में, किसी विशेष परिवर्तन से एक फर्म की व्यावसायिक सम्भावनाएँ अधिक उज्जवल हो जाती हैं और किसी फर्म के लिए गम्भीर खतरा बन जाती हैं ।

उदाहरणार्थ, जहाँ उदार औद्योगिक नीतियों (Liberalisation) से उद्योगों को विकसित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ, वहीं पर कुछ उद्योगों के लिए गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है ।

केन्द्र सरकार, राज्य सरकार तथा स्थानीय निकायों द्वारा बनाये गये नियम भी व्यवसाय के आर्थिक वातावरण का अंश होते हैं ।

व्यवसाय से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण अधिनियम निम्नलिखित हैं:

1. फैक्टरी एक्ट, 1948

2. इंडस्ट्री डिस्प्यूट एक्ट, 1947

3. फॉरेन एक्सचेंज एण्ड रेगुलेशन एक्ट, 1947

4. इम्पोर्ट एण्ड एक्सपोर्ट (कंट्रोल) एक्ट, 1947

5. कम्पनीज एक्ट, 1956

6. इंडस्ट्रीज (डिवेलपमेंट एण्ड रेगुलेशन) एक्ट, 1951

7. विदेशी मुद्रा प्रबन्धन अधिनियम (फेमा), 1999 आदि ।

(C) आर्थिक प्रणाली (Economic System):

किसी देश में विद्यमान आर्थिक प्रणाली का अत्यधिक प्रभाव व्यवसाय पर पड़ता है ।

किसी देश में निम्न प्रकार की आर्थिक प्रणाली हो सकती हैं:

i. पूँजीवादी अर्थव्यवस्था (Capitalist Economy):

पूँजीवाद या पूँजीवादी आर्थिक प्रणाली से आशय उस आर्थिक संगठन से है जिसमें उत्पादन के सभी साधनों का निजी स्वामित्व होता है । सरकार केवल आन्तरिक और बाह्य सुरक्षा का कार्य करती है यही कारण है कि उस समाज को ‘पुलिस राज्य’ (Police State) के नाम से पुकारते थे । सभी आर्थिक क्रियाओं का संचालन और नियमन पूँजीपतियों द्वारा किया जाता है ।

सभी निर्णय पूँजीपति स्वतन्त्रतापूर्वक लेते हैं । इसीलिए पूँजीवाद को स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था (Free Economy), ‘अनियोजित अर्थव्यवस्था’ (Unplanned Economy) भी कहा जाता है । इसे ‘बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था’ (Market-Oriented Economy) भी कहा जाता है ।

जी-7 समूह के देशों – अमेरिका, जापान, जर्मनी, फ्रान्स, ब्रिटेन, इटली तथा कनाडा (अब जी-8 कहलाता है । रूस आठवाँ सदस्य बना है), चार एशियाई टाइगर्स – हांगकांग, दक्षिणी, कोरिया, सिंगापुर, ताइवान तथा तीन एशिया कब्स – इण्डोनेशिया, मलेशिया तथा थाईलैण्ड की अर्थव्यवस्थाएँ पूँजी मानी जाती हैं ।

चीन में सन् 1979 से शुरू हुए उदारीकरण, निजीकरण तथा बाजारीकरण से समाजवादी ढाँचा अपना स्थान छोड़ रहा है तथा ऐसी ही स्थिति रूस सहित अनेक पूर्वी यूरोपीय देशों की है । सन् 1991 के पश्चात् भारत भी इसी दिशा पर अग्रसर है ।

ii. साम्यवादी तथा समाजवादी अर्थव्यवस्था (Communist and Socialist Economy):

इन दोनों प्रकार की अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों पर समूचे समाज का स्वामित्व पाया जाता है और सामान्यतः आर्थिक निर्णय किसी एक केन्द्रीय सत्ता द्वारा किये जाते हैं । समाजवादी विचारधारा के विकास का श्रेय समाजशास्त्री कार्ल मार्क्स को है जिन्होंने अपनी पुस्तकों ‘कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो’ तथा ‘दास केपिटल’ में क्रान्तिकारी विचार प्रस्तुत किये थे ।

मार्क्सवादी विचारों से प्रभावित होकर सन् 1917 में रूस की क्रान्ति हुई तथा पहली समाजवादी अर्थव्यवस्था का जन्म हुआ । कालान्तर में यह विचारधारा चीन, क्यूबा, हंगरी, पोलैण्ड, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, युगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, बुल्गारिया तथा रोमानिया में लोकप्रिय हुई किन्तु अब यह विचारधारा सभी जगह दम तोड़ रही है ।

iii. मिश्रित अर्थव्यवस्था (Mixed Economy):

मिश्रित अर्थव्यवस्था का अर्थ सार्वजनिक तथा निजी उपक्रमों का एक साथ होने से है । मिश्रित अर्थव्यवस्था में दोहरे बाजार (ड्‌यूकल मार्केट) की स्थिति मिलती है अर्थात् कुछ कीमतें माँग तथा आपूर्ति के आधार पर बाजारी ताकतें तय करती हैं तो कुछ वस्तुओं पर सरकार राशनिंग एवं नियन्त्रण भी रखती है ।

ए. एच. हेन्सन मिश्रित अर्थव्यवस्था को बाहरी अर्थव्यवस्था (ड्‌यूकल इकोनोमी) नाम देते हैं । भारत, स्वीडन, नार्वे, ऑस्ट्रिया तथा इजरायल में सन् 1991 के पश्चात् खुली अर्थव्यवस्था तथा उदारीकरण के परिप्रेक्ष्य में निजीकरण को बढ़ावा दिया जा रहा है ।

यह स्पष्ट है कि भारत ‘नियोजित समाजवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था’ से ‘पूँजीवादी मिश्रित अर्थव्यवस्था’ की ओर अग्रसर है ।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किसी देश में विद्यमान आर्थिक प्रणाली भी व्यवसाय के स्वरूप व प्रगति की बहुत सीमा तक प्रभावित करती है ।

आर्थिक पर्यावरण की समृद्धि को बढ़ावा देने वाले घटक (Promotional Factors of Economic Environment):

देश के समग्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए आर्थिक पर्यावरण को आधुनिक सरकारें विभिन्न उपायों के माध्यम से प्रोत्साहित करती रहती हैं ।

इन उपायों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

(A) प्रत्यक्ष उपाय

(B) अप्रत्यक्ष उपाय

इन उपायों का विवरण निम्नलिखित रूप से है:

A. प्रत्यक्ष उपाय (Direct Measures):

आर्थिक पर्यावरण की समृद्धि के लिए सरकार द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निम्न उपाय किये जाते हैं:

(i) पूँजी उपलब्ध कराना (Arrangement of Capital):

सरकार द्वारा देश के सन्तुलित आर्थिक विकास के लक्ष्य की सफलतापूर्वक प्राप्ति हेतु आर्थिक व सामाजिक उपरिव्यय को पूरा करने के लिए पर्याप्त पूँजी की व्यवस्था की जाती है ।

(ii) आर्थिक विकास हेतु कार्यक्रम तैयार करना (Ascertainment of Programme for Economic Development):

देश के तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु सरकार द्वारा ठोस एवं उपयोगी कार्यक्रम तैयार किये जाते हैं । इन कार्यक्रमों के अन्तर्गत आर्थिक विकास के लक्ष्य प्राप्त करने की रूपरेखा तथा समय सीमा निर्धारित की जाती है ।

(iii) पूँजी निर्माण सहयोग देना (Facilitating Capital Formation):

सरकार समय-समय पर देश में पूँजी निर्माण को बढ़ावा देने के लिए अनेक वित्तीय उपाय करती है ।

प्रायः पूँजी निर्माण के चार स्रोत माने जाते हैं:

a. Internal Saving

b. मुद्रा स्फीति (Inflation)

c. विदेशी व्यापार (Foreign Trade) तथा

d. विदेशी सहायता (Foreign Aid) |

करारोपण नीति के माध्यम से बचत में वृद्धि करके पूँजी निर्माण को गति प्रदान की जाती है ।

(iv) सन्तुलित आर्थिक विकास करना (Balanced Economic Growth):

सरकार का प्राथमिक उद्देश्य देश का सन्तुलित आर्थिक विकास करना है । अतः इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार पंचवर्षीय योजनाओं, एक वर्षीय योजनाओं, अन्य आर्थिक व कल्याणकारी योजनाओं का संचालन करती है ।

(v) औद्योगीकरण को प्रोत्साहित करना (Encouragement of Industrialisation):

कोई भी देश तब तक विकसित नहीं हो सकता है जब तक कि देश का तीव्र औद्योगिक विकास सम्भव नहीं होता है । अतः सरकार द्वारा औद्योगिक विकास की गति को तीव्र करने के लिए अनेक आर्थिक उपाय किये जाते हैं ।

(vi) कृषि विकास को प्रोत्साहित करना (Encouragement of Agricultural Development):

देश के आर्थिक पर्यावरण की संवृद्धि के लिए सरकार कृषि विकास एवं प्रगति के लिए विभिन्न योजनाएँ बनाती है एवं उनका क्रियान्वयन करती है । इन योजनाओं में भूमि संरक्षण, भूमि-विकास, कृषि वित्त, कृषि विपणन, कृषि शोध, भूमि-सुधार, अधिक उपजाऊ किस्म के बीज, रासायनिक उर्वरक, पौध संरक्षण, सिंचाई, उन्नत कृषि यन्त्र की उपलब्धता आदि को सुनिश्चित करके कृषि विकास के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु प्रयत्न करती है ।

(vii) आय का समान व न्यायपूर्ण वितरण (Adequate and Lawful Distribution of Income):

किसी भो देश की सरकार देश के अन्दर रहने वाले व्यक्तियों की आय समान एवं न्यायसंगत बनाने के लिए सदैव प्रयासरत रहती है । प्रति व्यक्ति निम्न आय व पिछड़े क्षेत्रों की आय में वृद्धि के लिए सरकार पंचवर्षीय व अन्य योजनाओं के माध्यम से विशेष व्यवस्था करती है । करारोपण नीति के माध्यम से आय के न्यायपूर्ण वितरण पर भी जोर दिया जाता है ।

(viii) श्रम बाजार को संगठित करना (Organised Labour-Market):

किसी भी देश की सरकार का सदैव प्रयत्न रहता है कि निम्नस्तर का जीवन यापन कर रहे व्यक्तियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना ताकि सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके । इसी परिप्रेक्ष्य में श्रमिकों के लिए सरकार विभिन्न अधिनियम, नियम एवं कानून के माध्यम से उन्हें संगठित करने का प्रयास करती है । इसके लिए श्रम संघ अधिनियम, 1926 आदि प्रमुख प्रयत्न उल्लेखनीय हैं ।

(ix) पूँजी बाजार को सुदृढ़ बनाना (Strengthening of Capital Market):

देश की सरकार देश के वित्तीय ढाँचे व स्थिति को मजबूत करने के लिए पूँजी बाजार को सुदृढ़ करने का प्रयत्न करती है । पूँजी बाजार के अन्तर्गत दीर्घकालीन वित्त उपलब्ध कराने वाली संस्थाओं को शामिल किया जाता है । इन संस्थाओं के माध्यम से सरकार वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति विभिन्न परियोजनाओं एवं योजनाओं हेतु करती है । अतः सरकार ऐसे नियम एवं कानून का निर्माण करती है, जिससे देश का पूँजी बाजार सुदृढ़ हो ।

(x) श्रम कल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा (Labour Welfare and Social Security):

भारत जैसे विकासशील देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग कार्य में सलंग्न है एवं देश के निर्माण एवं विकास में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है । अतः देश की सरकार श्रम कल्याण व सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए विभिन्न अधिनियम, नियम व समय-समय पर आवश्यकतानुसार उपाय करती रहती है ।

इस सम्बन्ध में भारतीय कारखाना अधिनियम, 1914 (Indian Factories Act, 1914), औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 (Industrial Dispute Act, 1947), कर्मचारी क्षतिपूर्ति अधिनियम, 1923 (Workmen’s Compensation Act, 1923), न्यूनतम मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1948 (Minimum Wages Payment Act, 1948), मजदूरी भुगतान अधिनियम, 1928 (Payment of Wages Act, 1936) आदि प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं ।

B. अप्रत्यक्ष उपाय (Indirect Measures):

ये उपाय सरकार द्वारा सीधे न करके अप्रत्यक्ष तरीके से किये जाते हैं ।

इन उपायों में मुख्यतया निम्नलिखित हैं:

(i) प्रशुल्क नीति (Tariff Policy):

प्रशुल्क नीति के माध्यम से सरकार ऐसी आयात नीति तैयार करती है, कि घरेलू व्यवसाय पर सकारात्मक प्रभाव पड़े तथा आर्थिक विकास को भी गति मिले ।

(ii) मौद्रिक नीति (Monetary Policy):

अर्थव्यवस्था के सन्तुलित आर्थिक विकास, पूँजी निर्माण, पूँजी बाजार आदि को सुदृढ़ बनाने के लिए देश की सरकार उपयुक्त मौद्रिक नीति तैयार करती है । इसके अन्तर्गत मुद्रा स्फीति पर नियन्त्रण, विनियोग एवं बचत को प्रोत्साहित करना आदि प्रयत्न प्रमुख हैं ।

(iii) मूल्य नीति का निर्धारण एवं क्रियान्वयन करना (Determination and Implementation of Price Policy):

कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, असामान्य वस्तुओं एवं सेवाओं की कीमतों में उतार-चढ़ाव आदि तत्वों को ध्यान में रखते सरकार मूल्य नीति का निर्धारण एवं क्रियान्वयन इस प्रकार करती है, कि देश के अन्दर वस्तुओं एवं सेवाओं में मूल्य स्थिरता व उनका न्यायोचित वितरण सुनिश्चित हो सके ।

(iv) तटकर व विदेशी नीति (Tariff and Foreign Policy):

देश के उद्योग-धन्धों के पर्याप्त एवं सन्तुलित विकास, विदेशी उद्योग-धन्धों को आकर्षित करने, विदेशी पूँजी विनियोग को बढ़ावा देने आदि के उद्देश्य से सरकार द्वारा तटकर एवं विदेशी नीति का निर्माण किया जाता है ।

(v) राजकोषीय व कर नीति (Fiscal and Taxation Policy):

देश के आधारभूत ढाँचे के अपेक्षित विकास, विभिन्न योजनाओं एवं परियोजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार को बहुत अधिक वित्त की आवश्यकता होती है । अतः इस वित्त की प्राप्ति हेतु सरकार देश हित में राजकोषीय व कर नीति का निर्धारण करती है, जिसमें समयानुसार व आवश्यकतानुसार परिवर्तन भी होता रहता है ।

(vi) औद्योगिक व अनुज्ञापन नीति (Industrial and Licensing Policy):

देश में औद्योगिक वातावरण के विकास एवं निर्माण के लिए सरकार औद्योगिक नीति व अनुज्ञापन नीति का सहारा लेती है । इसके अन्तर्गत सरकार नये-नये उद्योगों की स्थापना व उनके विकास के लिए अनुज्ञापन में ढील, हानिकारक उद्योगों के लिए कठोर नीति तथा स्थापित उद्योगों के विकास के लिए पर्याप्त वित्त एवं आर्थिक सहायता प्रदान करती है ।

अतः स्पष्ट है कि किसी भी देश की सरकार देश के समग्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उचित आर्थिक पर्यावरण का निर्माण करती है, जिसमें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष उपाय शामिल होते हैं । अतः इन उपायों के माध्यम से कोई भी देश निश्चित रूप से अपेक्षित आर्थिक विकास की तरफ अग्रसर हो सकता है ।

Essay # 2. सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण (Socio-Cultural Environment of Business):

व्यवसाय के गैर-आर्थिक वातावरण पर सामाजिक व सांस्कृतिक कारकों का भी पर्याप्त रूप से प्रभाव पड़ता है । सांस्कृतिक का अर्थ है – एक समाज में कुछ व्यक्तियों द्वारा किया जाने वाला साम्य आचरण । सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण से हमारा अभिप्राय उन प्रेरक शक्तियों से है जो कम्पनी के द्वारा बाहर से कार्य करती हैं ।

रीति-रिवाजों, परम्पराओं, रुचियों तथा प्राथमिकताओं जैसे सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारकों की उपेक्षा करने के भयंकर दुष्परिणाम होते हैं और उसकी ऊँची लागत सहन करनी पड़ती है । लोगों की व्यय तथा उपभोग की आदतें, भाषा, विश्वास, शिक्षा तथा अन्य मान्यताएँ व्यवसाय पर व्यापक प्रभाव डालते हैं । अतः एक सफल व्यवसाय की रणनीति सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण से मेल खाने वाली होनी चाहिए ।

जड़ता तथा ‘कलंक’ जैसे तत्व परिवार नियोजन की वस्तुओं के विपणन में बाधाएँ उत्पन्न करते हैं । इस परिस्थिति में विपणन की सफलता सामाजिक स्वभाव पर निर्भर करती है ।

वस्तु का रंग भी लोगों के विश्वास, सामाजिक मूल्यों तथा विभिन्न संस्कृतियों के साथ जुड़ा होता है । जैसे चीन तथा कोरिया में ‘सफेद’ रंग मृत्यु तथा विलाप का प्रतीक है, जबकि अन्य देशों में यह शान्ति का प्रतीक माना जाता है ।

बहुत-से देशों में ‘उपभोक्तावाद’ (Consumerism) एक सामाजिक आन्दोलन है जिसमें विक्रेताओं के प्रति क्रेताओं के सन्दर्भ में एक ‘शक्ति’ के रूप में उभरकर सामने आया है ।

बाजार एवं माँग को प्रभावित करके ही राष्ट्र की संस्कृति व्यवसायियों के निर्माण को प्रभावित करती है । सम्पूर्ण विश्व में बढ़ रहे नारी स्वतन्त्रता (Women’s Liberation) आन्दोलन, औषधि-संस्कृति (Drug Culture), युवा-केन्दित समाज (Youth–Oriented Society) आदि सांस्कृतिक मूल्य व्यावसायिक नीतियों को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करते हैं ।

Essay # 3. जनांकिकीय पर्यावरण (Demographic Environment of Business):

जनसांख्यिक तत्वों में निम्नलिखित बातें शामिल हैं:

(i) जनसंख्या का आकार, वृद्धि दर, आयु संरचना, लिंग संरचना

(ii) परिवार का आकार

(iii) जनसंख्या का आर्थिक स्तरीकरण

(iv) शिक्षा का स्तर

(v) जाति, धर्म इत्यादि |

ये सभी जनसांख्यिक तत्व व्यापार से सम्बन्धित हैं तथा ये सेवाओं तथा वस्तुओं की आपूर्ति करते हैं । बढ़ती हुई जनसंख्या तथा आय विकसित बाजार के द्योतक हैं ।

अधिक जनसंख्या श्रम आपूर्ति में वृद्धि उत्पन्न करती है । पश्चिमी देशों ने जब औद्योगिकरण की नीति अपनाई तो उन्हें श्रम की समस्या का सामना करना पड़ा क्योंकि वहाँ जनसंख्या की विकास दर काफी कम थी परन्तु बहुत-से विकासशील देश जनसंख्या विस्फोट, सस्ते श्रम तथा विकासशील बाजार ने बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को विकासशील देशों में विनियोग के लिये प्रोत्साहित किया है ।

यदि भिन्न-भिन्न व्यवसायों तथा क्षेत्रों में श्रम-शक्ति गतिशील रहती है तो इसकी आपूर्ति अपेक्षाकृत अच्छी होती है और इससे मजदूरी प्रभावित होती है । यदि जिस स्थान पर उत्पादन हो रहा हो, वहाँ के लिये श्रमिक बाहर से बुलाये गये हों तो उनकी भाषा, जाति व धर्म इत्यादि के मामले में सामंजस्य बिठाना बहुत ही कठिन हो सकता है । जनसंख्या की विविध रुचियों, वरीयताओं, विश्वासों इत्यादि ने विभिन्न माँग के तरीकों तथा विभिन्न मार्केटिंग योजनाओं को जन्म दिया है ।

Essay # 4. प्राकृतिक पर्यावरण (Natural Environment of Business):

प्राकृतिक पर्यावरण में भौगोलिक भू-गर्भीय सम्बन्धी तत्व शामिल रहते हैं । ये दोनों ही तत्व व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं ।

इसमें निम्नलिखित तत्व शामिल हैं:

(a) प्राकृतिक संसाधन तथा स्थायी निधि

(b) स्थान निर्धारण सम्बन्धी तत्व

(c) मौसम सम्बन्धी अवस्थाएँ

(d) बन्दरगाह सम्बन्धी सुविधाएँ

व्यवसाय के सभी तत्व प्रायः प्राकृतिक वातावरण पर निर्भर करते हैं ।

जैसे कि:

(i) उत्पादन की कच्चे माल पर निर्भरता

(ii) दो क्षेत्रों के बीच में व्यापार भौगोलिक स्थितियों पर निर्भरता

(iii) यातायात और संचार भौगोलिक स्थितियों पर निर्भर करता है

(iv) विभिन्न बाजारों की भौगोलिक स्थितियों में अन्तर होने के कारण बाजार में परिवर्तन होना

(v) भौगोलिक ओर भू-गर्भीय तत्व कई बार पूरे व्यवसाय के स्थान को प्रभावित कर सकते हैं

(vi) कृषि प्रकृति पर निर्भर करती है

(vii) खनन और उत्खनन की प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता ।

परिस्थितिकी कारक (Circumstantial Factors):

आधुनिक युग में एक महत्वपूर्ण कारक समझा जाने लगा है । प्राकृतिक संसाधनों का तीव्र गति से समाप्त होना, पर्यावरण प्रदूषण तथा असन्तुलन ने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया है । पर्यावरण परिरक्षण (Environmental Preservation), प्राकृतिक सन्तुलन तथा ऐसे संसाधनों, जिनकी पुनः पूर्ति (Replenishment) होना असम्भव है, को संरक्षण देना सरकार की नीति का मुख्य उद्देश्य है ।

इसके फलस्वरूप व्यवसायों के लिए अतिरिक्त उत्तरदायित्व उत्पन्न हो गये हैं । कुछ परिस्थितियों में तो इन उत्तरदायित्वों ने उत्पादन तथा विपणन लागत में वृद्धि की है । बाह्य परिस्थितियाँ व्यवसाय की मुख्य समस्या बन गयी है जिनका सामना करना व्यवसायों के लिए जरूरी हो गया है ।

Essay # 5. तकनीकी पर्यावरण (Technological Environment of Business):

तकनीकी से आशय उत्पादन के ढंग या तरीके से है । उत्पादन कैसे किया जाये अथवा किसी उत्पादन कार्य के लिए विभिन्न साधनों को किस ढंग से मिलाया या लगाया जाये तकनीक इसकी मात्रात्मक अभिव्यक्ति है ।

तकनीकी सुधार करते रहने से व्यवसाय के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) उत्पादन क्षमता में वृद्धि (Increase in Production Capacity):

उच्चस्तरीय तकनीक से उत्पादन-क्षमता या कुशलता बढ़ जाती है । ऐसी तकनीकी से उपलब्ध साधनों का श्रेष्ठतर उपयोग सम्भव बन जाता है । इससे साधनों की कोटि में सुधार होता है । कुल उत्पादन मात्रा पहले से अधिक होती है । इससे लागत घट जाती है और माल सस्ता हो जाता है ।

(ii) संसाधनों की बचत (Economy of Resources):

तकनीकी में सुधार कर उसी पूँजी से उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है । उत्पादन तकनीक में सुधार के फलस्वरूप प्रायः संसाधनों की बचत भी होती है । इसका कारण यह है कि बेहतर उत्पादन तकनीक से श्रेष्ठतर ढंग से संसाधनों का प्रयोग सम्भव बन जाता है इसके सहयोग से निश्चित उत्पादन मात्रा को कम संसाधनों के प्रयोग से तैयार किया जा सकता है ।

(iii) नये-नये साधनों की खोज (New Discovery of Resources):

उच्चस्तरीय तकनीक नये-नये संसाधनों एवं उत्पादनों की खोज में भी सहयोगी होती है । नये संसाधनों की जानकारी व प्रयोग व पुराने और नये दोनों प्रकार के पदार्थ का अधिक मात्रा में उत्पादन सम्भव है और फिर नये पदार्थ पुरानी वस्तुओं का प्रतिस्थापन कर सकते हैं ।

(iv) प्रतियोगी शक्ति में वृद्धि (Increase in Competitive Efficiency):

तकनीकी प्रगति से वस्तुओं की किस्म में सुधार से राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय बाजार के माल के विक्रय में प्रतियोगी शक्ति में वृद्धि होती है जिससे आयात प्रतिस्थापन और निर्यात प्रोत्साहन में सहयोग मिलता है ।

(v) जीवन स्तर में सुधार (Improvement in Living Standard):

तकनीकी प्रगति से कम लागत पर अच्छे और नवीन उत्पादों से समाज के जीवन-स्तर में सुधार होता है ।

प्रौद्योगिकी में तीव्र गति से आने वाले परिवर्तनों के कारण उद्योगों में बहुत-सी समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं क्योंकि इससे उत्पादन बहुत जल्दी पुराने पड़ जाते हैं । उत्पादन की मार्केटिंग प्रौद्योगिकी के लिए अपनाये जाने वाले तरीके भी पहले की बजाय जल्दी पुराने पड़ जाते हैं ।

अतः जो व्यवसाय प्रौद्योगिकी परिवर्तनों के साथ नहीं चलते, उनका अस्तित्व जल्दी समाप्त हो सकता है ।

Essay # 6. राजनीतिक व प्रशासनिक पर्यावरण (Political and Administrative Environment of Business):

देश का राजनैतिक व प्रशासनिक पर्यावरण भी व्यावसायिक इकाइयों को बहुत प्रभावित करता है ।

राजनैतिक पर्यावरण में हम निम्नलिखित घटकों को शामिल कर सकते हैं:

i. देश में राजनैतिक स्थिरता

ii. देश में शान्ति तथा सुरक्षा

iii. सरकार की आर्थिक नीतियाँ

iv. सरकार का राजनैतिक दृष्टिकोण

v. अन्य राष्ट्रों के साथ सरकार का सम्बन्ध

vi. केन्द्र व राज्य के मध्य सम्बन्ध

vii. सरकार की कल्याणकारी क्रियाएँ

किसी भी देश के व्यापक विकास में राजनैतिक स्थिरता का भी बहुत योगदान है । शासन सत्ता में जितनी अधिक स्थिरता होगी और लोगों का जितना अधिक विश्वास सरकार में बना रहेगा, विकास की दीर्घकालीन योजनाएँ उतनी ही कुशलता व सफलता के साथ कार्यान्वित की जा सकेंगी, विकास बिना किसी अवरोध के होता रहेगा और लोगों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति में सुधार होने लगेगा ।

यदि देश में शान्ति और सुरक्षा है, व्यक्तिगत सम्पत्ति के संग्रह पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं है तथा जन-जीवन की सुरक्षा एवं न्याय के लिए प्रबन्ध है तो लोगों में आय को बचाने की अधिक इच्छा होगी, अधिक पूँजी संचयन होगा और व्यापार के विकास को प्रोत्साहन मिलेगा । विदेशी पूँजी भी देश में शान्ति व सुरक्षा रहने पर ही आकर्षित होगी ।

सरकार की उद्योग, सरकारी क्षेत्र व जनक्षेत्र इत्यादि से सम्बन्धित नीतियों पर भी आर्थिक विकास की गति निर्भर रहती है ।

किसी देश के अन्य देशों के साथ राजनैतिक सम्बन्ध यदि मैत्रीपूर्ण हैं, तो इससे इन देशों के व्यवसाय पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है । इसके अतिरिक्त यदि पड़ोसी देशों के साथ शान्तिपूर्ण सम्बन्ध हैं, तो इससे सुरक्षा-बजट (Defence budget) पर कम राशि खर्च की जाती है । सरकार द्वारा जितनी अधिक शान्ति, सुरक्षा व अन्य सुविधाएँ उपलब्ध करायी जायेंगी, उतनी ही अधिक व्यवसाय के विकास में गति आयेगी ।

व्यवसाय की सफलता व विकास के लिए स्वच्छ पर्यावरण अत्यन्त आवश्यक है । प्रशासनिक सेवाओं के अकुशल तथा भ्रष्ट होने से लाभ के बजाय हानि की अधिक सम्भावना होती है क्योंकि अधिकारी वर्ग के भ्रष्ट होने पर सरकारी नीतियों में बार-बार परिवर्तन होता रहता है । जिससे आर्थिक विकास में बाधा उपस्थित होती है ।

Essay # 7. अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण (International Environment of Business):

विगत वर्षों में परिवहन व संचार क्षेत्र में हुई क्रान्ति के परिणामस्वरूप विश्व बहुत छोटा हो गया । फलतः बहुत से व्यवसाय किसी एक देश की सीमा के अन्तर्गत सीमित न होकर विभिन्न देशों में फैले हुए हैं ।

ऐसे व्यवसाय जैसे – विभिन्न वस्तुओं, मशीनों व उपकरणों का आयात निर्यात आदि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण से अधिक प्रभावित होते हैं । अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण में भी आर्थिक, सामाजिक, तकनीकी, वैधानिक, राजनीतिक आदि सभी पर्यावरण सम्मिलित होते हैं ।

चूँकि अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण का सम्बन्ध विदेशी नीति, अन्तर्राष्ट्रीय सन्धियों व समझौतों, आर्थिक मन्दी व संरक्षण नीति आदि से है, इसलिए इसमें निरन्तर परिवर्तन होते हैं । फलतः व्यावसायिक उद्यमों को भी तद्‌नुरूप समायोजन करने की आवश्यकता पड़ती है ।

संक्षेप में अन्तर्राष्ट्रीय पर्यावरण के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:

i. विश्वव्यापारिकरण

ii. अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक समझौते

iii. अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा बनाए गए नियम

iv. विभिन्न देशों की आर्थिक नीति

v. तेल की कीमतों में वृद्धि

vi. अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद

vii. सांस्कृतिक आदान-प्रदान

viii. व्यापार चक्र की अवस्था (तेज व मन्दी) ।

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