Here is an essay on ‘Industrial Disputes’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Industrial Disputes’ especially written for school and college students in Hindi language.

Essay on Industrial Disputes


Essay Contents:

  1. औद्योगिक विवाद की अवधारणा (Concept of Industrial Disputes)
  2. औद्योगिक विवाद के तत्व अथवा विशेषताएँ (Characteristics of Industrial Disputes)
  3. औद्योगिक विवादों के कारण (Causes of Industrial Disputes)
  4. औद्योगिक विवादों के प्रभाव या परिणाम (Effects of Industrial Disputes)
  5. औद्योगिक विवादों की रोकथाम व निवारण (Prevention and Settlement of Industrial Disputes)

Essay # 1. औद्योगिक विवाद की अवधारणा (Concept of Industrial Disputes):

ADVERTISEMENTS:

आधुनिक युग में औद्योगीकरण के विकास के कारण जहाँ एक तरफ मानव का कल्याण हुआ है, वहीं दूसरी तरफ इससे कई तरह की समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं । आज के युग में औद्योगिक सम्बन्धों की समस्या बड़े पैमाने पर उत्पादन का परिणाम है ।

औद्योगीकरण के कारण आज समाज दो वर्गों में बंट गया है- एक सर्वसम्पन्न पूँजीपति वर्ग और दूसरा उपेक्षित व असहाय श्रमिक वर्ग । नियोक्ता/पूँजीपति अपने औद्योगिक विकास के लिए भारी मात्रा में पूँजी विनियोजित करता है ।

वह मशीनीकरण, विशिष्टीकरण एवं वैज्ञानिक प्रबन्ध को उद्योग में अपनाता है, लेकिन वह श्रमिकों के विकास एवं उनके हितों के बारे मे ध्यान नहीं देता । पूँजीपति वर्ग अपने लाभ को अधिकतम करना चाहता है । वह श्रमिक वर्ग की उपेक्षा करता है ।

ADVERTISEMENTS:

परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के बीच अन्तर बढ़ता जाता है, जो दोनों पक्षों में असन्तोष का कारण बनता है । श्रमिक वर्ग अपने आपको उपेक्षित व शोषित महसूस करते हैं, और संगठित होकर आवाज उठाते हैं, और विवादों की उत्पत्ति होनी शुरू होती है ।

आज औद्योगिक जगत में ये विवाद हड़ताल, नारेबाजी,, घिराव, बन्द, तालाबन्दी आदि रूपों में अक्सर दिखाई देते हैं । इससे देश की अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुँचता है, एवं उसके विकास पर भी इसका विपरीत असर होता है । अत: यह आवश्यक हो जाता है कि इसकी रोकथाम हेतु आवश्यक उपाय किए जाएँ ।

मानव पहले है, संसाधन बाद में । संसाधन भी मानव द्वारा प्रयोग किये जाते हैं । मानव मस्तिष्क में असंख्य विचार होते हैं, जिनमें कुछ अच्छे, बुरे और कुछ अमानवीय हो सकते हैं । उद्योग एक ऐसा स्थान है, जहाँ हजारों/लाखों मस्तिष्क कार्य करते हैं वे अलग-अलग सोचते हैं ।

स्वार्थ का टकराव विवाद उत्पन्न कर देता है । ये विवाद कार्य स्थान अथवा उद्योग से सम्बन्धित होते हैं । विवाद होने में कुछ क्षण का समय लगता है, परन्तु इन्हें निपटाने में काफी समय लग जाता है । तीव्र औद्योगिक विकास हेतु शान्ति आवश्यक है ।

ADVERTISEMENTS:

यह केवल प्रबन्धक और कर्मचारियों के बीच आपसी सौहार्द्र पर स्थापित हो सकती है । परन्तु व्यवहार में प्रबन्ध एवं कर्मचारियों के बीच इतनी कड़वाहट बढ़ती जाती है, कि औद्योगिक विवाद उत्पन्न हो जाते हैं । औद्योगिक विवाद, हड़ताल, धरना, घिराव, तालाबन्दी, काम रोको, आदि किसी भी रूप में हो सकता है ।

सामान्य रूप में औद्योगिक अशान्ति का अर्थ उद्योगों में शान्ति के अभाव से है, यदि श्रमिक असन्तुष्ट रहता है, तो उद्योग में हड़ताल तालेबन्दी घिराव प्रदर्शन व नारेबाजी होती है जो औद्योगिक अशान्ति का प्रतीक है । औद्योगिक अशान्ति श्रमिकों के असन्तोष का प्रदर्शन है, जो उस समय उत्पन्न होती है, जब नियोक्ता श्रमिकों की माँगे पूरी करने में असमर्थ रहते हैं ।

सामान्यत:

श्रमिक उच्च मजदूरी, कम कार्य व सुविधाएँ चाहते हैं, जबकि नियोक्ता कम मजदूरी तथा अधिक कार्य घण्टों के साथ श्रमिकों को कार्यरत रखना चाहते हैं । ऐसी स्थिति में जब दोनों पक्षों की आवश्यकताओं में विरोधाभास होता है तो विवाद उत्पन्न हो जाते हैं ।

ADVERTISEMENTS:

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (K) के अनुसार औद्योगिक विवाद हैं जो ”नियोक्ता और नियोक्ता के मध्य नियोक्ता तथा कर्मचारियों के मध्य एवं श्रमिक तथा श्रमिक के मध्य विवाद अथवा मतभेद के रूप में प्रकट होते हैं, तथा जो रोजगार की शर्तों, कार्य की दशाओं तथा बेरोजगारी से सम्बन्धित होते हैं ।

औद्योगिक विवाद किसी समय हो सकता है । यह कर्मचारियों की असन्तुष्टि का परिणाम है । यह औद्योगिक अशान्ति का स्वरूप है, जब प्रबन्धक एवं कर्मचारियों के बीच स्वस्थ सम्बन्धों की गिरावट औद्योगिक विवाद को जन्म देती है । यह संगठित अथवा असंगठित हो सकता है ।

संगठित औद्योगिक विवाद हड़ताल, घिराव, धरना, कार्य छोड़ना, आदि स्वरूप मे होते हैं, परन्तु असंगठित विवाद के मुद्दे उत्पादकता में कमी, कार्य, से घुटन, आदि होते हैं । किसी प्रकार का विवाद औद्योगिक विकास को बाधित करता है । इसलिए विवादों का जितना जल्दी सम्भव हो सके निपटारा कर लेना चाहिए ।


Essay # 2. औद्योगिक विवाद के तत्व अथवा विशेषताएँ (Characteristics of Industrial Disputes):

ADVERTISEMENTS:

औद्योगिक विवाद में मुख्यत: निम्नलिखित विशेषताएँ अथवा तत्व होते है:

(1) पक्षकार (Parties):

औद्योगिक विवाद विभिन्न पक्षकारों के मध्य हो सकता है ।

ये सामान्यत निम्न पक्षकारों के मध्य होता है:

ADVERTISEMENTS:

(i) नियोक्ता एवं नियोक्ता,

(ii) नियोक्ता एवं श्रमिक, तथा

(iii) श्रमिक एवं श्रमिक ।

(2) सम्बन्ध (Relation):

ADVERTISEMENTS:

विवाद का विषय श्रमिक या नियोक्ता या दोनों से सम्बन्धित हो सकता है । सामान्यत: यह किसी व्यक्ति की नियुक्ति या सेवामुक्ति, रोजगार की शर्तो या कार्य करने की दशाओं से सम्बन्धित होता है ।

(3) रूप (Forms):

औद्योगिक विवाद विभिन्न रूपों में हो सकता है जैसे हडताल (Strikes), तालाबन्दी (Lockout), घिराव (Gheraos), धीरे काम करो (Go Slow Tactics), कलम छोड़ हड़ताल (Pen Down Strikes) आदि ।

(4) लिखित अथवा मौखिक (Oral or Written):

औद्योगिक विवाद लिखित होना आवश्यक नहीं है, यह मौखिक रूप से भी हो सकता है ।

(5) वास्तविक (Real):

ADVERTISEMENTS:

विवाद वास्तविक होना चाहिए । इसका सम्बन्ध श्रमिक के रोजगार, रोजगार समाप्ति, रोजगार की शर्तों, रोजगार की दशाओं आदि से होना चाहिए । व्यक्तिगत जीवन से सम्बन्धित मामले औद्योगिक विवादों से सम्बन्धित नहीं होते ।

(6) सारवान हित (Substantial Interest):

विवाद सम्बन्धी मामले में श्रमिक या नियोक्ता का हित होना अत्यन्त अनिवार्य है ।

(7) उद्योग से सम्बन्धित (Related to Industry):

विवाद को औद्योगिक विवाद में तभी शामिल किया जाता है जब वह उद्योग से सम्बन्धित हो । आमतौर पर विवाद ऐसे उद्योगों में प्रस्तुत किए जाने चाहिए जो कार्यरत हैं । बन्द हो चुके उद्योगों के विवाद इसमें शामिल नहीं किए जाने चाहिए ।

(8) स्पष्टीकरण (Clarification):

ADVERTISEMENTS:

औद्योगिक विवाद के मामले पूर्णत: स्पष्ट होने चाहिए । विवाद के मामले पर स्पष्टता होने पर उसका निवारण करना आसान होता है । स्पष्टता होने से सम्बन्धित पक्ष अपने हित की रक्षा कर सकते हैं ।

(9) उत्पत्ति (Origin):

विवाद आमतौर पर तब उत्पन्न होते हैं, जब श्रमिक या श्रमिक संघ मामले को नियोक्ताओं के समक्ष प्रस्तुत करते हैं, और नियोक्ता उन पर विचार नहीं करते ।

संक्षेप में हम कह सकते हैं, कि औद्योगिक विवाद का अर्थ उद्योगों में शान्ति के अभाव से है । जब किसी उद्योग में दो पक्षों की आवश्यकताओं का विरोधाभास होता है, तो औद्योगिक विवाद उत्पन्न हो जाते हैं ।


Essay # 3. औद्योगिक विवादों के कारण (Causes of Industrial Disputes):

ADVERTISEMENTS:

नियोक्ताओं एवं श्रमिकों के हितों में हमेशा से ही विरोधाभास रहा है । नियोक्ता वर्ग द्वारा श्रमिकों के प्रति उपेक्षापूर्ण रवैया अपनाया जाता रहा है । श्रमिकों को शोषण करने की प्रवृत्ति भी इस वर्ग द्वारा अपनाई जाती है ।

श्रमिकों के साथ मानवीय व्यवहार की कमी, कार्य की उचित दशाएँ प्रदान न करना कम मजदूरी देना तथा श्रमिकों के हितों की उपेक्षा करना नियोक्ताओं के लिए कोई नई बात नहीं है । नियोक्ताओं की यह कोशिश रहती है, कि वह अपने लाभ का मुख्य अंश अपने पास रख सकें ।

दूसरी तरफ श्रमिक वर्ग यह चाहता है, कि उन्हें अच्छी कार्य दशाएँ मिलें, विकास के अधिक अवसर प्राप्त हों, प्रबन्ध में उनकी सलाह ली जाए तथा लाभों में उन्हें भी हिस्सा प्राप्त हो । श्रमिक वर्ग अपनी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति नियोक्ताओं से करना चाहता है ।

जब नियोक्ताओं द्वारा श्रमिकों के प्रति सहयोगपूर्ण एवं न्यायपूर्ण रवैया नहीं अपनाया जाता तो श्रमिकों में असन्तोष उत्पन्न होता है । यहीं से विवादों की उत्पत्ति होनी शुरू होती है ।

जब नियोक्ताओं द्वारा अपने हित पर अधिक ध्यान और श्रमिकों की न्यायोचित माँगों पर आवश्यक ध्यान नहीं दिया जाता तो श्रमिक वर्ग ऐसी कार्यवाहियाँ करते हैं, जो विवाद को बढ़ावा देती हैं । औद्योगिक विवादों के कारणों को कई हिस्सों में बाँटा जा सकता है ।

ADVERTISEMENTS:

इन सभी कारणों की व्याख्या निम्न प्रकार से की गई है:

(A) आर्थिक कारण (Economics Causes):

अधिकांश औद्योगिक विवाद आर्थिक कारणो से ही उत्पन्न होते हैं । औद्योगिक विवादों से आर्थिक कारण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जरूरी विद्यमान होता है ।

आर्थिक कारणों के मुख्य तत्व निम्नलिखित हैं:

(1) कम मजदूरी (Low Wages):

उद्योग में श्रमिकों की मजदूरी दरें कम होती हैं । इसके कारण श्रमिकों को अपनी न्यूनतम आवश्यकताएँ पूरी करना मुश्किल हो जाता है । इसके अतिरिक्त श्रमिक कार्य के अनुसार मजदूरी की माँग करते हैं जिससे विवादों को जन्म मिलता है । औद्योगिक विवादों का यह सबसे महत्वपूर्ण कारण माना जाता है ।

ADVERTISEMENTS:

(2) महँगाई भत्ता (Dearness Allowances):

विवाद का एक अन्य महत्वपूर्ण कारण श्रमिकों के जीवन निर्वाह की बढ़ती हुई लागत है । जिसके परिणामस्वरूप वे अधिक महँगाई भत्ते की माँग करते हैं । यह भी एक सही तथ्य है, कि बढ़ती हुई महँगाई, महँगाई भत्ते को जन्म देती है, और महँगाई भत्ता में वृद्धि करता है । इस प्रकार यह क्रम चलता रहता है, और विवाद उत्पन्न होते रहते हैं ।

(3) औद्योगिक लाभ (Industrial Profits):

श्रमिक उत्पादन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं । श्रमिकों के अथक् परिश्रम के कारण ही नियोक्ता के लाभों में वृद्धि होती है । श्रमिकों की माँग रहती है कि उन्हे एक मशीन की तरह न समझकर उत्पादन में हिस्सेदारी माना जाना चाहिए । इस धारणा के कारण वे बढ़ते हुए लाभों मे नियोक्ता से हिस्से की माँग करते हैं । उचित हिस्सा न दिए जाने के कारण औद्योगिक विवाद उत्पन्न हो जाते हैं ।

(4) बोनस (Bonus):

बोनस की माँग भी औद्योगिक विवादों का एक विषय है । श्रमिक वर्ग बोनस को स्थगित मजदूरी मानते हैं । समय-समय पर बोनस की माँग भी औद्योगिक विवाद को जन्म देती है ।

(5) कार्य की दशाएँ (Working Conditions):

भारत में श्रमिकों की कार्य की दशाएँ सन्तोषजनक नहीं हैं । मशीनों का पुराना होना, सुरक्षा प्रावधानों का अभाव, अपर्याप्त रोशनी, स्थानों की कमी एवं अन्य आवश्यक सुविधाओं की कमी औद्योगिक इकाइयों में एक साधारण बात है । श्रमिकों द्वारा अच्छा कार्य की दशाओं की माँग भी विवाद का कारण होती है ।

(6) कार्य घण्टे (Working Hours):

श्रमिकों से कार्य के घण्टों के विषय में भी नियोक्ताओं का मतभेद बना रहता है । अधिनियम बनने के बावजूद भी नियोक्ता श्रमिकों से अधिक घण्टे कम मजदूरी पर कार्य करवाना चाहता है, जबकि श्रमिक वर्ग इसका विरोध करता है ।

(7) अन्य कारण (Other Causes):

(i) कार्य की सुरक्षा (Safety of Work),

(ii) मशीनों का आधुनिकीकरण (Modernisation of Machines),

(iii) पेंशन, ग्रेच्युटी, भविष्य निधि व अन्य लाभकारी योजनाएँ (Pension Gratuity, Provident Fund and Other Beneficiary Schemes),

(iv) चिकित्सा व आवास सुविधा (Medical and Accommodation Facilities),

(v) छुट्टियाँ एवं वेतन सहित अवकाश (Leaves and Leaves with Pay),

(vi) लाभों में हिस्सेदारी (Share in Profits) |

(B) प्रबन्धकीय कारण (Managerial Causes):

किसी भी संस्था की सफलता उसकी प्रबन्धकीय क्षमता पर निर्भर करती है । संस्था का विकास प्रबन्ध की नीतियों के आधार पर होता है । यदि संस्था में प्रबन्धक सही नीतियाँ अपनाते है, तो औद्योगिक इकाई का विकास स्वयमेव होता जाता है । परन्तु कई बार प्रबन्धकों की गलत नीतियों के कारण विवादों को बढ़ावा मिलता है ।

विवादों के प्रबन्धकीय कारण मुख्यत: निम्नलिखित होते है:

(1) श्रम संघों को मान्यता न देना (Non-Recognition of Unions):

नियोक्ताओं का दृष्टिकोण श्रम संघों के प्रति शुरू से ही विरोधपूर्ण रहा है । नियोक्ता श्रमिकों को संगठित नहीं होने देना चाहते । अत: श्रमिकों को संगठित होने से रोकने के लिए वे श्रमिक संघों को मान्यता नहीं देते परिणामस्वरूप श्रमिक इसका विरोध करते हैं । कई बार नियोक्ता जानबूझकर भी श्रमिकों के विरोधी गुट के संघ को मान्यता दे देते हैं । जिससे विरोध उत्पन्न होता है ।

(2) समझौतों का उल्लंघन (Violation of Agreements):

श्रमिकों और नियोक्ताओं में विभिन्न मुद्दों पर समझौते होते रहते हैं । नियोक्ता वर्ग बाद में उन समझौतों को लागू नहीं करते या कई बार उसका सही पालन नहीं करते जिससे विवाद उत्पन्न होते हैं ।

(3) प्रबन्धकों या निरीक्षकों द्वारा दुर्व्यवहार (III-Treatment by Managers and Supervisors):

प्रबन्धक या निरीक्षक स्वयं को उच्च स्तर का समझते हैं । इसी मानसिकता के कारण वे कई बार श्रमिकों के साथ अमानवीय दुर्व्यवहार कर बैठते हैं । जिसका श्रमिक संघों द्वारा भरपूर विरोध किया जाता है ।

(4) दोषपूर्ण भर्ती पद्धति एवं कर्मचारी विकास नीतियाँ (Defective Recruitment Procedure and Employees Development Policies):

श्रमिकों को दोषपूर्ण भर्ती की प्रणाली भी विवादों को जन्म देती है । कई बार श्रमिकों की भर्ती मध्यस्थों द्वारा की जाती है, जो उनसे रिश्वत लेते हैं । श्रमिकों की मजबूरी का लाभ उठाकर वे उनका शोषण करते हैं । नियोक्ताओं द्वारा भी दोषपूर्ण विकास नीतियाँ जैसे पक्षपातपूर्ण पदोन्नति, अनावश्यक एवं पक्षपातपूर्ण स्थानान्तरण, प्रशिक्षण सुविधाओं पर पर्याप्त ध्यान न देना भी विवाद का कारण बनती हैं ।

(5) दोषपूर्ण छँटनी पदावनति एवं निष्कासन (Wrongful Retrenchment, Demotion and Termination):

नियोक्ताओं द्वारा कभी-कभी कार्यभार में कमी के कारण श्रमिकों को काम से हटा दिया जाता है । श्रमिकों के द्वारा श्रम संघों की गतिविधियों में सक्रिय भाग लेने पर उसकी पदावनति कर दी जाती है । नियोक्ता बिना किसी कारण के कई बार श्रमिको का निष्कासित कर देते हैं । इन सभी गतिविधियों का श्रम संघों द्वारा भरपूर विरोध किया जाता है, जो विवादों को जन्म देते हैं ।

(6) स्वार्थपूर्ण नेतृत्व (Selfish Leadership):

सही एवं प्रभावशाली नेतृत्व का न होना श्रमिक संघों को दुर्बल करता है जिसका नियोक्ता वर्ग लाभ उठाते हैं । ये नेता अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए श्रमिकों के हितों के विपरीत समझौता कर लेते हैं । कई बार यह भी विवाद का विषय बन जाता है ।

(7) स्वीकृत व्यवहार एवं अनुशासन संहिता का उलंघन (Violation of Accepted Code of Conduct):

आचार संहिता दोनों पक्षीं द्वारा मान्य शर्तें होती है, जिनका उन्हें पालन करना होता है, नियोक्ता कागजों पर तो सभी शतों को मान लेते हैं, परन्तु उन्हें लागू नहीं करते । परिणामस्वरूप श्रमिक उसका विरोध करते हैं ।

(8) सामूहिक सौदेबाजी एवं प्रबन्ध में सहभागिता हेतु (Collective Bargaining and Workers’ Participation in Management):

औद्योगिक जगत में श्रमिक वर्ग की जागृति हुई है, जिसके कारण वे आधुनिक प्रबन्ध की अवधारणा प्रबन्ध में सहभागिता की माँग करते हैं । सामूहिक सौदेबाजी से वे अधिकाधिक अपने हितों की रक्षा का प्रयत्न करते हैं । इनका नियोक्ताओं द्वारा विरोध किया जाता है, परिणामस्वरूप विवाद उत्पन्न होते हैं ।

(C) राजनीतिक कारण (Political Causes):

आर्थिक व सामाजिक कारणों के अतिरिक्त औद्योगिक विवादों के राजनीतिक कारण भी रहे हैं ।

कुछ प्रमुख राजनीतिक कारण निम्नलिखित हैं:

(1) राजनीति का प्रभाव (Influence of Politics):

भारत जैसे देश में श्रम सघों पर राजनीति का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है । श्रम संघों पर अपने प्रभाव का राजनीतिक दलों द्वारा स्वार्थ के लिए प्रयोग किया जाता है । वे श्रम संघों को बहकाते हैं और अशान्ति को बढावा देते हैं ।

(2) श्रम संघ आन्दोलन (Trade Union Revolution):

श्रम संघों को औद्योगिक जगत में मान्यता मिलने के पश्चात् औद्योगिक विवादों में वृद्धि हुई है । श्रम – संघ कई बार अपनी स्थिति का अनावश्यक लाभ उठाते हैं जिससे विवादों को बढ़ावा मिलता है ।

(3) सरकार के विरुद्ध हड़ताल (Strikes against the Government):

आजादी मिलने से पूर्व श्रमिक वर्ग ने आजादी के लिए संघर्ष में बढ़-चढ़कर भाग लिया था । आजादी के पश्चात् अब श्रमिक वर्ग संघर्ष को सरकार के विरुद्ध ही प्रयोग करते हैं, जिससे विवादों को बढ़ावा मिलता है ।

(D) अन्य कारण (Other Causes):

(1) सरकार द्वारा प्रबन्ध का अधिक समर्थन (Support to Management by Government),

(2) श्रम संघों में आन्तरिक विरोध (Internal Opposition in Trade Unions),

(3) स्वचालन का विरोध (Resistance of Autonomy),

(4) श्रमिकों पर साम्यवादी विचारधारा का प्रभाव (Effect of Communal Thinking),

(5) अमानवीय अवधारणा की अस्वीकृति का प्रभाव (Effect on Non-Acceptance of Human Relations) |


Essay # 4. औद्योगिक विवादों के प्रभाव या परिणाम (Effects of Industrial Disputes):

औद्योगिक विवाद आज के औद्योगिक जगत का एक हिस्सा बन चुका है । सभी तरह के उद्योगों व क्षेत्रो में विवाद हमेशा ही होते रहते हैं, चाहे वह निजी क्षेत्र हो या सार्वजनिक क्षेत्र ।

विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, अस्पतालों में भी अब लोग अपनी माँगे मनवाने के लिए हड़तालों का सहारा लेते हैं । विवाद कहीं भी हो या इससे सम्बन्धित कोई भी पक्षकर हो समाज के लिए आम तौर पर यह हानिप्रद ही होते हैं ।

समाज में अशान्ति, उत्पादन में रुकावट, कीमतों पर प्रभाव, श्रम सम्बन्धों में कटुता आदि बुरे प्रभाव औद्योगिक विवादों के कारण ही होते हैं ।

विवादों के समाज के विभिन्न वगों पर प्रभावों को निम्नलिखित शीर्षकों से समझा जा सकता है:

(1) श्रमिकों पर प्रभाव (Effects on Workers):

विवादों के परिणामस्वरूप श्रमिकों पर निम्न प्रभाव होता है:

(i) मजदूरी का नुकसान (Loss of Wages),

(ii) आन्दोलन के दौरान हुई हिसा से शारीरिक नुकसान या मृत्यु (Physical Loss or Death during Struggle),

(iii) नियोक्ताओं द्वारा अत्याचार (Exploitation of Employers),

(iv) हड़ताल समाप्ति के बाद नियोक्ता द्वारा दबाव (Pressure by Employers after Strikes)

(v) आर्थिक हानि (Economics Loss)

(vi) सम्बन्धों में कटुता (Bitterness in Relations)

(vii) कैरियर पर बुरा प्रभाव (Bad Effects on Career) |

(2) नियोक्ता/उद्योगपतियों पर प्रभाव (Effects on Employers/Industrialists):

(i) उत्पादन में कमी (Reduction in Production),

(ii) लाभ में कमी (Reduction in Profits),

(iii) संगठन पर बुरा प्रभाव (Bad Effects on Organisation)

(iv) मानवीय सम्बन्धों पर बुरा प्रभाव (Bad Effects on Human-Relations)

(v) मशीनों व उपकरणों का खराब होना (Damages of Machines and Equipment’s),

(vi) विकास पर विपरीत असर (Adverse Impact on Development)

(vii) स्थायी खर्चों का नुकसान (Loss of Fixed Expenses) |

(3) सरकार पर प्रभाव (Effects on Government):

(i) आय का नुकसान (बिक्री कर, उत्पादन कर, आयकर आदि में कमी के कारण) (Loss of Revenue like sales tax, income tax etc.),

(ii) उत्पादन दर में कमी (Reduction in Production Rate),

(iii) समाज में अव्यवस्था का बोलबाला (Disturbance of System in Society),

(iv) विभिन्न पक्षों द्वारा आरोपित किया जाना (Blames from Various Parties) |

(4) उपभोक्ताओं पर प्रभाव (Effects on Consumers):

(i) कीमतों में वृद्धि (Increase in Prices),

(ii) वस्तुओं का अभाव (Scarcity of Goods),

(iii) वस्तुओं की किस्म पर विपरीत असर (Adverse Effects on Quality of Goods),

(5) अन्यप्रभाव (Other Effects):

(i) अन्तर्राष्ट्रीय बाजार पर बुरा प्रभाव (आयात में वृद्धि-निर्यात में कमी) (Loss to International Trade),

(ii) देश के आर्थिक विकास में बाधा (Hindrance in Economic Development of country),

(ii) समाज में अराजकता (Disturbance in Society),

(iv) अर्थव्यवस्था में अनिश्चितता (Uncertainty in Economy) |

उपर्युक्त लिखित दुष्प्रभावों के अतिरिक्त इन विवादों का कुछ अच्छा असर भी देखने को मिलता है । औद्योगिक विवाद से जहाँ विभिन्न पक्षों को नुकसान होता है । वहीं कुछ पक्ष इससे लाभान्वित होते हैं ।

औद्योगिक विवादों के सकारात्मक प्रभावों को निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत व्यक्त किया गया है:

(1) श्रमिकों की एकता में वृद्धि (Unity in Workers):

विवादों को निपटाने एवं अपने हितों की रक्षा के लिए श्रमिक वर्ग मिलकर आवाज उठता है । जिससे आपसी सहयोग व एकता की भावना को बढ़ावा मिलता है । श्रमिक जानते हैं उनकी सफलता उनकी एकता पर निर्भर है । अत: वे संगठित रहते हैं, जिससे वे अपने प्रति अन्यायपूर्ण व्यवहार को रोक सकते हैं ।

(2) अच्छी मजदूरी एवं अच्छी कार्य दशाओं की प्राप्ति (Good Wages and Working Conditions):

सामान्यत: विवादों का मुख्य विषय मजदूरी दर में वृद्धि एवं कार्यदशाओं में सुधार करने से ही सम्बन्धित होता है । विवादों में सफलता मिलने पर श्रमिक अच्छी मजदूरी एवं बेहतर कार्य दशाएँ प्राप्त करने में सफल होते हैं ।

(3) श्रम अधिनियम का लागू होना (Enactment of Labour Laws):

विवादों का एक मुख्य कारण यह होता है कि नियोक्ता श्रम-अधिनियमों को लागू नहीं करते । श्रमिक वर्ग दबाव डालकर व सरकार की सहायता से विभिन्न अधिनियमों को लागू करवाने में काफी हद तक सफल होते हैं ।

(4) नियोक्ता के व्यवहार में सुधार (Improvement in Industrial Relations):

श्रमिकवर्ग के आन्दोलन के डर से नियोक्ता को अपने व्यवहार एवं सोच में परिवर्तन करना पड़ता है ।

(5) श्रम संघों की मान्यता (Recognition to Labour Union):

श्रमिक वर्ग विवादों के दौरान संगठित होते हैं । हड़ताल एवं प्रदर्शन द्वारा वे श्रम संघ को मान्यता प्राप्त करवाने में भी सफल हो जाते हैं, जिससे उनका विश्वास बढ़ता है ।

विवादों की रोकथाम (Prevention of Disputes):

औद्योगिक विवादों की रोकथाम के उपाय के अन्तर्गत वे सभी विस्पियाँ सम्मिलित की जाती हैं, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में औद्योगिक सम्बन्ध सुधारने में सहायक होती हैं ।

इन विधियों के अन्तर्गत औद्योगिक सम्बन्धों को पूर्ण क्षेत्र सम्मिलित किया जाता है, तथा निम्न उपाय किए जाते हैं:

(1) सुधरी हुई नियमन प्रणाली का प्रयोग,

(2) कार्य समितियों तथा संयुक्त प्रबन्ध समितियों का महत्व,

(3) मजदूरी बोर्ड तथा व्यापारिक बोर्ड,

(4) लाभ-भागिता तथा सहभागिता,

(5) त्रिपक्षीय श्रम प्रणाली,

(6) शिक्षा, आवास सम्बन्धी कल्याण कार्य,

(7) सामूहिक सौदेबाजी,

(8) श्रम कल्याण अधिकारी की नियुक्ति एवं

(9) ऐसे समस्त उपाय जो श्रमिकों एवं नियोक्ताओं के मध्य खाई को पाट सकें एवं सम्बन्ध अच्छे बना सकें ।

औद्योगिक विवादों का निवारण (Settlement of Industrial Disputes):

जब औद्योगिक विवाद की रोकथाम में सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं । अथवा अपर्याप्त सिद्ध होते हैं, तो वे हड़ताल या तालाबन्दी का रूप ले लेते हैं । हड़ताल एवं तालाबन्दी घोषित होने के उपरान्त विवादों के निवारक की विधियों का प्रयोगकिया जाता है ।

विवाद निवारण की दृष्टि से सामान्यत: निम्न उपाय अपनाए जाते हैं:

(1) जाँच-पड़ताल (Investigation) ऐच्छिक अथवा अनिवार्य,

(2) समझौता प्रणाली तथा पंच निर्णय प्रणाली का ऐच्छिक प्रयोग,

(3) मध्यस्थता,

(4) अनिवार्य समझौता, तथा

(5) अनिवार्य पंच निर्णय ।

औद्योगिक विवाद का निवारण करने में वैधानिक प्रणाली तथा ऐच्छिक पंच निर्णय प्रणाली का प्रयोग किया जाता है ।


Essay # 5. औद्योगिक विवादों की रोकथाम व निवारण (Prevention and Settlement of Industrial Disputes):

किसी भी राष्ट्र के औद्योगिक विकास में औद्योगिक शान्ति एक आधारशिला के रूप में कार्य करती है । यदि औद्योगिक अशान्ति निरन्तर बढ़ती रहती है, तो इससे समस्त राष्ट्र व समाज प्रभावित होता है । अत: राष्ट्रीय विकास व उच्च सामाजिक जीवन स्तर की प्राप्ति हेतु औद्योगिक शान्ति बनाए रखना आवश्यक है ।

भारत में औद्योगिक शान्ति की स्थापना हेतु औद्योगिक सम्बन्ध व्यवस्था उपलब्ध है, जिसके दो प्रमुख भाग निम्न प्रकार है:

(1) रोकथाम व्यवस्था (Preventive Machinery),

(2) निवारण व्यवस्था (Settlement Machinery) |

रोकथाम व्यवस्था के अन्तर्गत वे प्रणालियाँ सम्मिलित की जाती हैं, जो विवाद उत्पत्ति से पूर्व सम्भावित अशान्ति को दूर करने का कार्य करती हैं, जैसे कार्य समितियाँ, संयुक्त उत्पादन समितियाँ, सहभागिता व लाभभागिता, मजदूरी बोर्ड व अनुशासन संहिता आदि ।

निवारण व्यवस्था के अन्तर्गत वे प्रणालियाँ सम्मिलित की जाती हैं, जो विवाद उत्पत्ति के पश्चात् उनका निपटारा करती हैं, जैसे जाँच-पड़ताल, समझौता, मध्यस्थता, पंच निर्णय, आदि । औद्योगिक शान्ति के निर्माण की दृष्टि से दोनों ही महत्वपूर्ण हैं ।


Home››Hindi››Essays››