Read this article in Hindi to learn about the five main types of standing use plans in an organisation. The types are: 1. Objectives 2. Policies 3. Procedures 4. Rules 5. Strategy.  

Type # 1. उद्देश्य (Objectives):

उद्देश्य का निर्धारण करना नियोजन का प्रथम कार्य है । जिस परिणाम की प्राप्ति के लिए कोई संस्था प्रयत्नशील रहती है, वह उसका उद्देश्य अथवा लक्ष्य-बिंदु कहलाता है ।

एल.ए.ऐलन के अनुसार- “उद्देश्य वे लक्ष्य हैं जो कम्पनी और प्रत्येक विभाग को पद्य-प्रदर्शित करने के लिए निश्चित किए जाते हैं ।”

इस प्रकार उद्देश्य प्रबन्धकों के लिए पथ-प्रदर्शन का काम करते है । प्रबन्ध के सारे कार्य संस्था के उदेश्यों को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं । इसलिए कुछ विद्वानों ने तो “प्रभावपूर्ण प्रबन्ध को उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध” (Management by Objectives or M.B.O.) कहा है ।

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अतएव उद्देश्य स्पष्ट, लोचपूर्ण तथा वास्तविक होने चाहिए उद्देश्य संस्था के कार्यों को दिशा प्रदान करते है, नियोजन को आसान बनाते हैं तथा कर्मचारियों को अभिप्रेरित तथा नियन्त्रित करते हैं । अन्तत: उद्देश्य ही वे मूल आधार होते हैं जिनके अन्तर्गत प्रबन्ध के सभी कार्यों, नियोजन, संगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन तथा नियन्त्रण को नियन्त्रित किया जाता है । जो प्रबन्ध अपने उद्देश्यों को परिभाषित नहीं करता, वह यह नहीं जानता कि उसे कहाँ जाना है । इसलिए, “प्रत्येक प्रबन्धक को यह जानना चाहिए और सदैव प्रश्न करते रहना चाहिए कि वह क्या प्राप्त करने का प्रयत्न कर रहा है ।” इस तरह से उद्देश्यों द्वारा किसी संस्था के गन्तव्यों का पता चलता है ।

यद्यपि किसी भी उपक्रम अथवा व्यावसायिक संस्था की स्थापना लाभ कमाने के उद्देश्य से की जाती है परन्तु यह उसका एक मात्र उद्देश्य नहीं होता । अतएव किसी भी उपक्रम के उद्देश्य एक न होकर अनेक होते है । इन विभिन्न उद्देश्यों के बीच पर्याप्त सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए ।

उद्देश्यों की विशेषताएं (Special Features or Characteristics of Objectives):

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(i) नियोजन के आधार (Basis of Plans):

किसी भी योजना का प्रथम चरण उद्देश्यों को निर्धारित करना होता है । अत: उद्देश्यों के अभाव में नियोजन करना सम्भव नहीं होता है । किसी व्यवसाय की नीतियाँ, कार्यविधियां, कार्यप्रणाली व इसके नियम सभी कुछ उद्देश्यों पर ही निर्भर करते हैं । उद्देश्य प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करते हैं । आजकल उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध को प्रभावशाली प्रबन्ध माना जाता है ।

(ii) उद्देश्यों की बहुलता (Multiplicity of Objectives):

किसी भी व्यावसायिक संस्था के उद्देश्य एक न होकर अनेक होते है । इसका कारण यह है कि किसी संस्था में अनेक दावेदार (जैसे- लेनदार, ग्राहक, कर्मचारी, सरकार व समाज) होते हैं । इन दावेदारों की अपेक्षाएं परस्पर विरोधी होती हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए अनेक उद्देश्यों की आवश्यकता होती है अत: विभिन्न उद्देश्यों के बीच आवश्यक सन्तुलन स्थापित किया जाना चाहिए ।

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पीटर ड्रकर के अनुसार– किसी व्यावसायिक संस्था के निम्नलिखित 8 उद्देश्य हो सकते हैं:

(a) बाजार में अपनी साख स्थापित करना;

(b) नव-प्रवर्तन;

(c) उत्पादकता;

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(d) भौतिक एवं वित्तीय संसाधनों का अच्छा एवं अनुकूलतम प्रयोग;

(e) लाभदायिकता में वृद्धि;

(f) कर्मचारियों की कार्य-प्रगति व उनके साथ अच्छा व्यवहार;

(g) प्रगति और विकास तथा;

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(h) सामाजिक उत्तरदायित्व ।

(iii) उद्देश्यों का कम निर्धारित करना (Fixing the Sequence of Objectives):

किसी व्यावसायिक संस्था का एक उद्देश्य नहीं होता बल्कि अनेक उद्देश्य होते हैं । लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सभी उद्देश्य समान महत्व वाले होते हैं । इनमें से कुछ उद्देश्यों को दूसरी की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है, अतएव उद्देश्यों के महत्व को ध्यान में रखते हुए उन्हें प्राप्त करने का क्रम निर्धारित किया जाना चाहिए । उद्देश्यों की क्रमबद्धता का एक रूप यह हो सकता है कि उन्हें मूल उद्देश्यों तथा सहायक उद्देश्यों में वर्गीकृत किया जाए ।

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(iv) दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन उद्देश्य (Long-Term and Short-Term Objectives):

किसी भी व्यावसायिक संस्था को दीर्घकालीन तथा अल्पकालीन दोनों प्रकार के उद्देश्यों को निर्धारित करना चाहिए । अल्पकालीन उद्देश्यों की अवधि प्राय: एक वर्ष तक की होती है ये दीर्घकालीन उद्देश्यों को ध्यान में रखकर बनाए जाते है ।

इस प्रकार ये दीर्घकालीन उद्देश्यों की प्राप्ति में योगदान देते है दीर्घकालीन उद्देश्यों की अवधि पाँच से दस वर्ष तक हो सकती है । प्रत्येक संस्था के लिए दीर्घकालीन उद्देश्य निर्धारित करना आवश्यक होता है । दीर्घकालीन उद्देश्यों को अनुमान के आधार पर निर्धारित किया जाता है इसलिए ये प्राय: अस्पष्ट (Vague) होते हैं, जबकि अल्पकालीन उद्देश्य निश्चित व स्पष्ट होते हैं ।

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(v) उद्देश्यों की क्रमबद्धता को निर्धारित करना (To Fix Sequence of Objectives):

उद्देश्यों के महत्व को ध्यान में रखते हुए उनको किस क्रम से प्राप्त करना चाहिए, यह निर्धारित करना जरूरी है ।

(vi) उद्देश्यों की समीक्षा (Review of Objectives):

उद्देश्यों की समय-समय पर समीक्षा अवश्य करते रहना चाहिए ऐसा करते रहने से उद्देश्यों की प्राप्ति में कहाँ तक सफलता मिली है, मूल्यांकन करना सरल हो जाता है तथा उनमें आवश्यकता पड़ने पर परिवर्तन किया जा सकता है ।

उद्देश्यों के निर्धारण की आवश्यकता तथा महत्व (Need and Importance of Objectives Determination):

उद्देश्यों के निर्धारण की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से है:

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(i) नियोजन में निश्चितता (Certainty in Planning):

उद्देश्यों के निर्धारित हो जाने पर संस्था के नियोजन में निश्चितता आ जाती है, उसे दिशा निर्देश मिल जाता है । उद्देश्यों के अनुरूप ही संस्था की नीतियाँ, कार्यविधियां, कार्यक्रम तथा नियम आदि बनाए जाते हैं ।

(ii) उद्देश्य व्यवसाय के विकास में योगदान करते हैं (Objectives Contribute to the Growth of Business):

उद्देश्य किसी संस्था के कार्यकलापों का क्षेत्र निर्धारित करते हैं, निर्णयों को सुदृढ़ बनाते है, निष्पादन (Performance) को मापने का आधार पेश करते है तथा निष्पादन में सुधार लाते हैं, जिससे व्यवसाय का विकास तीव्र गति से होता है ।

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(iii) संसाधनों का कुशलतम उपयोग (Efficient Utilization of Resources):

निर्धारित किए गए उद्देश्यों के आधार पर जब कोई संस्था कार्य करेगी तो निश्चय ही उसके संसाधनों का उपयोग कुशलतम होगा इससे अधिकतम उत्पादन, न्यूनतम व्यय पर सम्भव हो सकेगा ।

(iv) कार्य की प्रगति पर नियन्त्रण (Control over Performance):

उद्देश्य संस्था के कार्य-क्षेत्र को निर्धारित करते हैं तथा निष्पादन (Performance) को मापने का आधार पेश करते है तथा कार्य की दिशा निर्धारित करते हैं । इस प्रकार उद्देश्य प्रत्येक क्षेत्र में कार्य की प्रगति व निष्पादन पर उचित नियन्त्रण रखने में सहायक सिद्ध होते हैं ।

(v) प्रबन्धकों की कार्यकुशलता में वृद्धि (Increase in Managerial Efficiency):

स्पष्ट उद्देश्य निर्धारित करने से प्रबन्धकों की कार्यकुशलता में वृद्धि होती है तथा वे उचित निर्णय ले सकते हैं ।

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(vi) उद्देश्य व्यक्तियों को अभिप्रेरित करते हैं (Consideration for Setting Objectives):

उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों को अधिक मेहनत व लगन से कार्य करने के लिए प्रेरित करती है । उनका ध्यान अपने उद्देश्य की प्राप्ति पर केन्द्रित हो जाता है । उद्देश्य इन्हें इन सवालों का जवाब देता है कि हम क्यों कर रहे हैं “हम क्या प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं” ?

उद्देश्यों के निर्धारण में ध्यान देने योग्य बातें (Consideration for Setting Objectives):

उद्देश्यों को निर्धारित करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना चाहिए:

(i) उद्देश्य वास्तविक हों (Objectives Should be Realistic):

निर्धारित किए जाने वाले उद्देश्य वास्तविक तथा व्यावहारिक हों ताकि उनको आसानी से प्राप्त किया जा सके उद्देश्य निर्धारित करते समय सरकारी नीति संस्था के संसाधनों कर्मचारियों के व्यवहार बाजार की स्थिति तथा अन्य आन्तरिक एवं बाह्य घटकों को अवश्य ध्यान में रखना चाहिए ।

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(ii) उद्देश्यों की सीमित संख्या (Limited Number of Objectives):

उद्देश्यों की सफलतापूर्वक प्राप्ति के लिए इनकी संख्या सीमित रखना आवश्यक है । अनेक उद्देश्य होने से सभी पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सकता ।

(iii) उद्देश्यों के निर्धारण में कर्मचारियों से परामर्श (Objectives Should be Based on Employees Participation):

उद्देश्यों का निर्धारण करते समय सम्बन्धित कर्मचारियों से परामर्श अवश्य कर लेना चाहिए । इस प्रकार जब वे उद्देश्यों के निर्धारण में भाग लेते हैं तब उनको प्राप्त करना उनका कर्तव्य बन जाता है या वे उन्हें प्राप्त करने में अधिक उत्साह दिखाएं ।

(iv) उद्देश्यों नव-प्रवर्तनशील हों (Objectives Should be Innovative):

संस्था व समाज परिवर्तनशील हैं, अत: उद्देश्य ऐसे होने चाहिए जो बदलती परिस्थितियों के अनुकूल हों । उद्देश्यों को आधुनिकतम रखा जाए । आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन किया जाए ।

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(v) उद्देश्यों की प्राथमिकता (Priority of Objectives):

उद्देश्यों को उनके महत्व के अनुसार प्राथमिकता दी जानी चाहिए ताकि उन उद्देश्यों की प्राप्ति पर अपेक्षित ध्यान दिया जा सके ।

(vi) उद्देश्यों की विस्तृत जानकारी (Full Information about Objectives):

उद्देश्यों की पूर्ण जानकारी संस्था में काम करने वाले सभी कर्मचारियों को करा दी जानी चाहिए ताकि वे इन उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकें ।

(vii) उद्देश्यों की समीक्षा (Review of Objectives):

उद्देश्यों की निरन्तर समीक्षा की जानी चाहिए ताकि यह ज्ञात हो सके कि कौन-कौन से उद्देश्य प्राप्त हो चुके हैं और कौन-कौन से नहीं ?

Type # 2. नीतियाँ (Policies):

उद्देश्य बताते हैं कि कहाँ पहुँचना है और क्या करना है, जबकि नीतियाँ बतलाती है कि उन्हें कैसे प्राप्त करना है । इस प्रकार उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नीतियाँ बनाई जाती हैं । नीतियां लक्ष्य प्राप्ति में प्रबन्धकों का मार्गदर्शन करने वाले सैद्धान्तिक कथन होती है ।

ये व्यावसायिक संस्था के कार्यों अथवा निर्णयों का मार्गदर्शन करती हैं । कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार- “नितियाँ एक क्षेत्र की सीमा का निर्धारण करती हैं जिसमें निर्णय लेना होता है और इस बात को भी सुनिश्चित करती हैं कि लिया गया निर्णय उद्देश्य की पूर्ति में सहायक होगा ।”

नीतियाँ विस्तृत ढाँचा (Frame Work) स्थापित करती हैं जिनके भीतर प्रबन्धकों को निर्णय लेना होता है । वास्तव में नीतियों-प्रबन्धकों की निर्णय सीमाओं को निर्धारित करती हैं । अतएव, नीतिया-निरन्तर चलने वाला निर्णय निर्देश है जो उच्च-प्रबन्धकों द्वारा मध्य स्तरीय तथा निम्न स्तरीय प्रबन्धकों की सहायता के लिए शुरू से ही तय कर दी जाती है ।

नीतियों के कुछ उदाहरण हैं:

(i) उधार बिक्री न करना;

(ii) अंकित मूल्य पर वस्तुएँ बेचना;

(iii) नकद बिक्री पर कितने प्रतिशत दी जाए एवं

(iv) खाली उच्च पदों की पूर्ति संस्था के कर्मचारियों की पदोन्नति द्वारा करना;

नीतियाँ स्पष्ट, लोचशील, स्थाई तथा वैज्ञानिक होनी चाहिए ।

नीतियों की विशेषताएँ (Characteristics of Policies):

नीतियों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) नीतियाँ नियोजन को दिशा प्रदान करती हैं (Policies Direct the Course of Planning):

नीतियाँ नियोजन का आवश्यक तत्व मानी जाती हैं । ये भावी नियोजन में मार्गदर्शन करती हैं । इनका मुख्य कार्य नियोजन को एक पूर्व-निर्धारित दिशा प्रदान करना है ।

(ii) नीतियाँ निरन्तर चलने वाले निर्णय निर्देश हैं (Policies are Continuous Guidelines for Decision-Making):

एक बार नीति निर्धारित कर देने के पश्चात् ये नीतियाँ निरन्तर चलने वाले निर्देश बन जाते हैं । सभी प्रबन्धक इन्हीं का अनुसरण करते हुए निर्णय लेते रहते हैं इस प्रकार निर्णयों में एकरूपता आती है ।

(iii) नीतियाँ निर्णय लेने की सीमा निर्धारित करती हैं (Policies Delimit the Decision Area):

नीतियों उन सीमाओं को निर्धारित करती हैं जिनके अन्तर्गत प्रबन्धकों को अपना निर्णय लेना होता है । इस प्रकार नीतियाँ प्रबन्धकी को निर्णय लेने में पथ-प्रदर्शन करती हैं ।

(iv) नीतियाँ उद्देश्यपूरक होती हैं (Policies are Subsidiaries to Objectives):

नीतियाँ उद्देश्यों पर आधारित होती हैं अर्थात् नीतियों का निर्धारण संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है । इस प्रकार ये उद्देश्यपूरक होती है ।

(v) नीतियों की अभिव्यक्ति (Expression of Policies):

नीतियाँ लिखित अलिखित अथवा गर्भित हो सकती हैं । गर्भित नीतियाँ प्रबन्धकों द्वारा अपने हाव-भाव तथा व्यवहार द्वारा स्पष्ट की जाती है । नीतियाँ सामान्यतया लिखित होनी चाहिए ।

(vi) नीतियाँ निर्णयन में चिन्तन का मार्गदर्शन करती हैं (Policies are Guides to Thinking in Decision Making):

कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल ने ठीक कहा है कि नीतियाँ वे सामान्य विवरण हैं जो निर्णयन में चिन्तन का मार्गदर्शन करते हैं । इस प्रकार नीतियाँ विचारविमर्श तथा कार्य सम्बन्धी निर्णयों की पथ-प्रदर्शक हैं जो अधीनस्थों को निर्णय लेने में मार्ग-दर्शन करती हैं ।

नीतियों के प्रकार (Types of Policies) अथवा नीतियों का वर्गीकरण (Classification of Policies):

नीतियाँ निम्न प्रकार की हो सकती हैं:

(i) आधारभूत नीतियाँ (Basic Policies):

यह नीतियाँ दीर्घकालीन उद्देश्यों की प्राप्ति को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं ये नीति संस्था के प्रत्येक विभाग को प्रभावित करती है और इनका उपयोग आमतौर पर उच्च प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है । इनका निर्माण संचालक मण्डल करता है हम प्रकार आधारभूत नीतियाँ उच्च प्रबन्धकों का मार्ग-दर्शन करती हैं ।

(ii) सामान्य अथवा सहायक नीतियाँ (General or Subsidiary Policies):

ये नीतियाँ मध्यस्तरीय तथा निम्नस्तरीय प्रबन्धकों के उपयोग के लिए बनाई जाती हैं । ये नीतियाँ आधारभूत नीतियों को लागू करने में सहायता देती हैं ।

(iii) लिखित अथवा अलिखित नीतियाँ (Written or Oral Policies):

लिखित नीतियाँ अच्छी मानी जाती है क्योंकि ये प्रमाणिक स्थायी स्पष्ट एवं दीर्घकालीन प्रकृति की होती हैं । परन्तु इनमें लोच का अभाव होता है । इसके विपरीत मौखिक (अलिखित) नीतियों लोचशील होती हैं तथा इनमें आवश्यकतानुसार कभी भी परिवर्तन किया जा सकता है ।

(iv) संगठन के स्तर के अनुसार नीतियाँ (Policies According to Organisational Levels):

संगठन के स्तर के अनुसार बनाई गई नीतियाँ तीन प्रकार की होती हैं:

(a) उच्च प्रबन्ध की नीतियाँ (Top Management Policies):

ये नीतियाँ समूचे संगठन को प्रभावित करती है । इनका निर्माण संस्था के विभिन्न विभागों में समन्वय स्थापित करने के लिए किया जाता है इनका निर्माण उच्च प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है ।

(b) क्षेत्रीय नीतियाँ (Regional Policies):

क्षेत्र विशेष की समस्याओं का समाधान करने के लिए क्षेत्रीय नीतियाँ बनाई जाती हैं ।

(c) विभागीय नीतियाँ (Department Policies):

विभागीय नीतियाँ, विभागीय प्रबन्धकों द्वारा अपने-अपने विभाग की विशेष समस्याओं को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं ।

(v) गर्भित नीतियाँ (Implied Policies):

गर्भित नीतियाँ वे होती हैं जिनका निर्माण प्रबन्धकों द्वारा नहीं किया जाता और न ही उसके पीछे कोई औपचारिक स्वीकृति होती है, किन्तु फिर भी उनके आधार पर निर्णय लिए जाते है ये नीतियाँ न तो लिखित होती हैं और न ही अलिखित ।

बल्कि ये प्रबन्धकों के व्यवहार और उनके निर्णयों को ध्यान में रखते हुए स्वीकार कर ली जाती है । जब किसी मामले के सम्बन्ध में कोई नीति नहीं होती और किसी समस्या के समाधान के लिए कोई प्रबन्धक कोई निर्णय लेता है तब इस विषय पर भावी निर्णयों को लेने में इस प्रबन्धक द्वारा लिया गया निर्णय मार्गदर्शन का काम करेगा जब गर्भित नीति का लम्बे समय तक प्रयोग किया जाता है तब वह परम्परा बन जाती है इसलिए, इसे परम्परागत नीति भी कहते है ।

(vi) आन्तरिक बनाम बाह्य नीतियाँ (Internal vs External Policies):

आन्तरिक नीतियाँ संस्था के प्रबन्धक बनाते है । ये नीतियाँ प्रबन्धकों के विभिन्न स्तरों पर बनाई जाती हैं । अत: ये उच्चस्तरीय, मध्यस्तरीय नीतियाँ होती हैं । उच्चस्तरीय नीतियाँ, मध्यस्तरीय तथा निम्नस्तरीय नीतियों का, आधारभूत होती हैं ।

बाह्य नीतियाँ, किसी संस्था को अपने ऊपर पड़ने वाले बाहरी दबावों के कारण बनानी पड़ती है । ये दबाव सरकार, श्रमिक संघों समाज तथा चैम्बर ऑफ कामर्स की ओर से हो सकते हैं ।

नीतियों के लाभ (Advantages of Policies):

नीतियों से अनेक लाभ हैं:

(i) ये प्रबन्धकों का भावी नियोजन में मार्गदर्शन करती हैं ।

(ii) ये प्रबन्धकों के लिए स्पष्ट सीमा निर्धारित कर देती हैं जिनके अन्तर्गत उन्हें निर्णय लेने होते हैं ।

(iii) ये समन्वय को सुविधाजक बनाती है जिससे संगठनात्मक संघर्ष नहीं होता ।

(iv) इनके निर्धारण से अधिकार सौंपना आसान हो जाता है ।

(v) निर्णय तत्परता से लिए जा सकते हैं ।

(vi) ये प्रबन्धकों में पहलशक्ति (Initiative) जागृत करती हैं ।

(vii) ये विचलनों को रोकती हैं तथा कार्यों में एकरूपता लाती है ।

एक आदर्श नीति की विशेषताएँ (Characteristics of a Ideal Policy):

एक आदर्श एवं सुदृढ़ नीति में निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए:

(i) सरल व स्पष्ट (Simple and Clear):

नीतियाँ सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिए ताकि उनको समझने व लागू करे में कठिनाई न आए ।

(ii) लोचशील (Flexible):

नीतियों में लोचशीलता तथा परिवर्तनशीलता का गुण होना चाहिए ताकि व्यवसाय की परिस्थितियों में परिवर्तन होने पर उनमें भी आवश्यक परिवर्तन किए जा सकें ।

(iii) व्यावहारिक (Practicable):

नीतियाँ व्यावहारिक होनी चाहिए जिन्हें व्यवहार में उपयोग में लाया जा सके ।

(iv) स्थिर (Stable):

नीति दीर्घकालीन प्रकृति की तथा स्थिर होनी चाहिए । अर्थात् नीतियों में जल्दी-जल्दी परिवर्तन नहीं किए जाने चाहिए ।

(v) उद्देश्य प्राप्ति के अनुकूल (Object Oriented):

नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए जिससे संस्था के पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके । उद्देश्य मंजिल होते हैं तो नीतियाँ उस मंजिल को प्राप्त करने का साधन होती हैं ।

(vi) विस्तृत (Comprehensive):

नीति विस्तृत होनी चाहिए जिसमें सभी भावी घटनाओं को शामिल किया जा सके ।

(vii) तथ्यों पर आधारित (Based Upon Facts):

नीति तथ्यों तथा सुदृढ़ निर्णय पर आधारित होनी चाहिए ।

(viii) समीक्षा (Review):

नीतियों की समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए ताकि आवश्यकता पड़ने पर इनमें आवश्यक परिवर्तन किया जा सके ।

Type # 3. कार्य विधियाँ (Procedures):

कार्यविधि एक तरीका है जिसके अनुसार कार्यवाही की जाती है । कार्यविधियाँ किसी कार्य को करने का तरीका तथा क्रम निर्धारित करती हैं । इस प्रकार कार्यविधियाँ, कार्यवाही (Action) की क्रिया का मार्गदर्शन करती हैं । जॉर्ज आर. टैरी के अनुसार- “कार्यविधि सम्बन्धित कार्य का क्रम है जो समय-क्रम बनाता है तथा किए जाने वाले कार्यों को पूरा करने के साधन का निश्चिय करता है ।

कार्यविधि के अन्तर्गत उन चरणों (Steps) का निश्चित क्रम होता है कि जिसके अनुसार कार्य को किया जाना है या कोई निर्णय लिया जाना है । इस तरह कार्यविधि यह दर्शाती है कि कार्य के प्रत्येक भाग को किस तरह से, कब और किस द्वारा किया जाएगा ।

उदाहरण के तौर पर कालेज में प्रवेश पाने के लिए, कॉलेज की विवरण पुस्तिका (Prospectus) खरीदना उसे पढ़कर तथा संलग्न फार्म को भरना उस पर अभिभावकों के हस्ताक्षर करवाना, प्रमाण-पत्र संलग्न करना तथा निश्चित तिथि तक कॉलेज में जमा करवाना, निर्धारित तिथि पर साक्षात्कार के लिए सम्बन्धित कमेटी के समक्ष उपस्थित होना तथा निर्धारित फीस जमा कराना आदि क्रियाएं कार्यविधियाँ कहलाती हैं ।

कार्यविधि के अन्तर्गत सम्पूर्ण कार्य को अनेक क्रियाओं में बाँटा जाता है और इन क्रियाओं को कब कैसे और कौन व्यक्ति करेगा आदि बातों का उल्लेख होता है । अतएव कार्यविधि में किसी काम को आरम्भ करने से लेकर उसके समाप्त होने तक की सभी क्रियाओं और उनका समय-क्रम दिया रहता है तथा सम्पूर्ण कार्य एक निश्चित क्रम से किया जाता है ।

संगठन के प्रत्येक स्तर पर कार्यविधियों का होना आवश्यक होता है । परन्तु संगठन के निचले स्तर पर ये अधिक विस्तृत तथा व्यापक होनी चाहिए । आमतौर पर कार्यविधियों के एक बार निर्धारित हो जाने के बाद प्रबन्धकों द्वारा व्यक्तिगत निर्णय लेने की सम्भावना समाप्त हो जाती है ।

एक अच्छी कार्यविधि की विशेषताएँ (Characteristics of a Good Procedure):

एक अच्छी कार्य-विधि में निम्नलिखित बातें होनी चाहिए:

(i) यह तथ्यों, अनुभवों एवं ज्ञान पर आधारित हो ।

(ii) यह स्थिर होने के साथ-साथ परिवर्तनशील भी हो ।

(iii) यह संस्था के उद्देश्यों तथा नीतियों के अनुरूप हो ।

(iv) यह उत्तरदायित्व निर्धारित करने वाली हो ।

(v) यह कार्य करने की सर्वोत्तम विधि होनी चाहिए । अर्थात् इसमें क्रियाओं का श्रेष्ठ क्रम निर्धारित किया गया हो ।

(vi) समय-समय पर कार्य-विधि की प्रासंगिकता व उपयोगिता की समीक्षा भी होनी चाहिए ।

कार्यविधि का महत्व (Importance of Procedures):

(i) कार्यवाही (Action) में समानता आती है ।

(ii) कर्मचारियों तथा विभागों के कार्यों में समन्वय करने में सुविधा रहती है ।

(iii) निर्णयों में सरलता आती है ।

(iv) कुशलता मापने में आसानी रहती है जिससे प्रभावशाली नियन्त्रण होता है ।

(v) उत्तरदायित्व को स्पष्ट करती है ।

Type # 4. नियम (Rules):

नियम किसी कार्यवाही का मार्गदर्शन करता है, जबकि नीतियाँ निर्णयों को मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए बनाई जाती हैं । नियम व्यवहार को निश्चित करता है तथा यह बतलाता है कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए ।

इस प्रकार, नियम एक ऐसा पूर्व-निर्णय है जो यह बतलाता है कि अमुक परिस्थितियों में क्या करना है और क्या नहीं करना है । कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के शब्दों में नियम यह बतलाता है कि किसी परिस्थिति के सम्बन्ध में एक निश्चित एवं स्पष्ट कार्यवाही की जानी चाहिए या नहीं ।

नियम एक निश्चित तथा कठोर व्यवस्था है, जिसका दृढ़ता से पालन करना पड़ता है नियम का पालन न करने पर दण्ड की व्यवस्था होती है । नियम का सीधा सम्बन्ध अनुशासन तथा निर्णय से है । इसके अन्तर्गत व्यक्तिगत निर्णय का कोई स्थान नहीं होता नियम धनात्मक तथा ऋणात्मर दोनों प्रकार के हो सकते हैं ।

उदाहरण के तौर पर, किसी संस्था में कर्मचारियों को वर्ष भर में बारह आकस्मिक अवकाश मिलेंगे, यह उस संस्था का नियम है, पाँच हजार रुपये से अधिक का माल खरीदने पर 5% व्यापारिक (Trade Discount) दी जाएगी, यह भी नियम का ही उदाहरण है । राष्ट्रीय गान के समय खड़े हो जाना एक नियम है ।

लाभ (Merits):

(i) नियम प्रबन्ध की प्रक्रिया को सरल बनाते हैं ।

(ii) इनसे कार्यों में एकरूपता आती है ।

(iii) ये नियन्त्रण को प्रभावशाली बनाते है ।

(iv) पर्यवेक्षकों के कार्य भार में कमी आती है ।

(v) कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों के कार्य करने की क्षमता में सुधार आता है ।

दोष (Demerits):

(i) नियमों से विचलन होने पर दण्ड का प्रावधान होता है तथा अप्रसन्नता का सामना करना पड़ता है ।

(ii) नियम पहल-शक्ति (Initiative) पर रोक लगाते हैं ।

Type # 5. मोर्चाबन्दी या कार्यनीति अथवा व्यूह-रचना (Strategy):

मोर्चाबन्दी, व्यूह-रचना आदि शब्द रणनीति एवं रणकौशल से सम्बन्ध रखते हैं । ये रण की वे युक्तियाँ होती हैं जिनका उपयोग शत्रु को हराने के लिए किया जाता है । व्यवसाय भी रणक्षेत्र ही होता है । यहाँ भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना होता है । अत: व्यवसाय में भी प्रतिद्वन्द्वियों पर सफलता पाने के लिए सेना की तरह मोर्चाबन्दी करनी पड़ती है ।

उदाहरण के लिए यदि एक संस्था विक्रयवृद्धि करने के लिए कीमतों में कमी कर देती है तो दूसरी प्रतियोगी संस्था को क्या करना चाहिए कि पहली संस्था की यह चाल बेकार हो जाए । क्या दूसरी संस्था को भी कीमत में कमी रहनी चाहिए या विज्ञापन पर अधिक ध्यान देना चाहिए अथवा किस्म में सुधार करना चाहिए । ये निर्णय ही व्यूह-रचना या मोर्चाबन्दी कहलाते हैं ।

सेना में मोर्चाबन्दी का अर्थ है शत्रु को हराना तथा विभिन्न परिस्थितियों में अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए व्यूह-रचना करना । व्यवसाय में कार्यनीति का अर्थ है प्रतिद्वन्द्वी की नीति और वर्तमान परिस्थितियों में अपने लाभ के लिए नीति का इस प्रकार विश्लेषण करना जिससे परिस्थितियों की तुलना में उच्च स्थान प्राप्त किया जा सके ।

मोर्चाबन्दी के अन्तर्गत प्रतिद्वन्द्वियों की नीतियों व योजनाओं को ध्यान में रखकर अपनी योजनाओं व नीतियों का निर्माण किया जाता है । इस प्रकार व्यूह-रचना एक व्यापक तथा विस्तृत योजना है जिसे अनिश्चित तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बनाया जाता है ।

थियो हैमेन के अनुसार- “मोर्चाबन्दी एक व्याख्यात्मक नीति है…यह वह नीति है जो उच्च प्रबन्धकों द्वारा दूसरी नीतियों का स्वरूप तथा व्याख्या करने के लिए बनाई जाती हैं ।” जब दो या दो से अधिक संस्थाएँ एक से उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न कर रही ही, वहाँ आपस में प्रतिस्पर्धा तो होगी ही और वे इसमें सफल होने के लिए अपने-अपने दाव-पेच भी चलेगी ।

इसी को कार्यनीति या मोर्चाबन्दी कहते हैं । यहां यह बता देना भी उचित होगा कि मोर्चाबन्दी केवल प्रतियोगी संस्था के विरुद्ध ही नहीं की जाती । इसकी आवश्यकता उद्योग व्यवसाय तथा अर्थव्यवस्था में उत्पन्न विशेष परिस्थितियों का सामना करने के लिए भी पड़ती है । इस प्रकार मोर्चाबन्दी की आवश्यकता संस्था के आन्तरिक कारणों से भी पड़ सकती है और बाह्य कारणों से भी ।

विशेषताएँ (Characteristics): मोर्चाबन्दी की कुछ विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

(i) यह चालों या दाव-पेचों का भण्डार नहीं है, बल्कि एक विश्लेषणात्मक विचार है ।

(ii) कार्यनीति एक प्रतियोजना (Counter Plan) होती है जिसका निर्माण प्रतिद्वन्द्वियों की योजनाओं को ध्यान में रखकर किया जाता है । इस तरह यह प्रतिद्वाच्यों की योजनाओं की काट करने के लिए बनाई जाती है ।

(iii) यह आमतौर पर दीर्घकालीन होती है । यह अल्पकालीन स्थितियों में भी कारगर होती है ।

(iv) इसे उच्च प्रबन्धकों द्वारा बनाया जाता है । इसमें मध्यस्तरीय तथा निम्नस्तरीय प्रबन्धकों को भी शामिल किया जा सकता है ।

(v) यह लोचशील तथा गतिशील (Dynamic) होती है । समय एवं परिस्थितियों के अनुसार इसमें परिवर्तन किया जा सकता है ।

(vi) इसे सम्भावित अवसरों तथा चुनौतियों को ध्यान में रखकर बनाया जाता है ।

(vii) यह एक प्रकार से संसाधन नियोजन (Resource Planning) है जिसमें इस बात का ध्यान रखा जाता है कि संस्था के सीमित संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग कैसे किया जाए ।

(viii) यह एक निश्चित दिशा में प्रेरित करने वाला निर्देशात्मक नियोजन (Directional Planning) है यह प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों को एक दिशा प्रदान करता है तथा मार्गदर्शन करता है ।

(ix) व्यूह-रचना आन्तरिक तथा बाहरी हो सकती है । उदाहरण के लिए- जब कोई प्रबन्धक मजदूरी भुगतान की किसी नई योजना का प्रयोग करना चाहता है, तो यह आन्तरिक व्यूह-रचना कहलाएगी । परन्तु जब प्रतिद्वन्द्वियों की योजना की काट करने के लिए कोई बिक्री सम्बन्धी या कमीशन सम्बन्धी या मूल्य सम्बन्धी प्रतियोजना बनाई जाती है, तो उसे बाहरी व्यूह-रचना कहते है ।

(x) इसकी सफलता केवल इसके निर्माण पर ही निर्भर नहीं करती बल्कि इसके ठीक प्रकार से क्रियान्वयन पर निर्भर करती है ।

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