Read this article in Hindi to learn about the nature of organisation.

संगठन एक प्रक्रिया है (Organisation is a Process):

अनेक प्रबन्ध विद्वान् संगठन को एक प्रक्रिया मानते हैं ।

संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत:

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(i) आवश्यक क्रियाओं की पहचान की जाती है;

(ii) विभिन्न क्रियाओं को उनकी समानता के आधार पर कुछ समूहों में बाँटा जाता है;

(iii) योग्य एवं कुशल व्यक्तियों को चुनकर उन्हें उप-कार्यों को सौंपा जाता है;

(iv) इन व्यक्तियों को उपयुक्त अधिकार भी सौंपे जाते हैं ताकि वे सौंपे गए कार्यों को कुशलतापूर्वक कर सकें;

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(v) विभिन्न कर्मचारियों के बीच आपसी सम्बन्धों का निर्माण किया जाता है । संगठन-प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न पदों (Positions) व पदधारियों के बीच कार्यों तथा सम्बन्धों की एक पद-अनुक्रमता (Hierarchy) का विकास होता है । इसे निर्णय लेने तथा कार्य-निष्पादित करने का ढाँचा कहा जा सकता है । इसे औपचारिक संगठन भी कहते हैं ।

पीटर ड्रकर के अनुसार संगठन प्रक्रिया में तीन बातें करनी होती हैं:

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(i) कार्य विश्लेषण (Activity Analysis);

(ii) निर्णय विश्लेषण (Decision Analysis);

(iii) सम्बन्ध विश्लेषण (Relation Analysis) अर्थात् क्या कार्य किया जाता है ? कौन से निर्णय उपयुक्त है ? तथा कर्मचारियों के बीच आपसी सम्बन्ध क्या होंगे ?

अतएव उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि संगठन करना एक प्रक्रिया है । प्रक्रिया के रूप में संगठन एक गतिशील तत्व है क्योंकि संगठन का रूप परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के साथ बदलता रहता है । कर्मचारियों के दायित्व में हेर-फेर किया जाता है । संगठन की सम्प्रेषण-व्यवस्था को आवश्यकता के अनुसार बदला न्त्रा सकता है । नवीन परिस्थितियों के अनुसार कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जा सकता है ।

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संगठन प्रक्रिया के तत्व अथवा आवश्यक कदम (Elements of Organisation Process or Essential Steps):

प्रबन्धशास्त्र के विभिन्न विद्वानों ने संगठन के विभिन्न तत्वों का वर्णन किया है;

हॉज तथा जॉनसन ने संगठन में निम्नलिखित तत्व बताये हैं:

(i) उद्देश्य;

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(ii) समूह सदस्यता;

(iii) उचित कार्य विभाजन;

(iv) भौतिक साधन;

(v) नीतियाँ एवं कार्य विधियाँ ।

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कूण्ट्ज एवं ओ‘ डोनेल ने संगठन की प्रक्रिया में निम्न चरणों को सम्मिलित किया है:

(i) संस्था के उद्देश्यों को निर्धारित करना;

(ii) उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्रियाओं को निर्धारित करना;

(iii) क्रियाओं को अंकित करना एवं उनका वर्गीकरण करना;

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(iv) क्रियाओं का समूहीकरण (Grouping);

(v) प्रत्येक समूह को उनके अध्यक्ष के माध्यम से क्रियाओं को करने के लिए अधिकार प्रदान करना;

(vi) समय-समय पर इन समूहों के कार्यों का परीक्षण करना तथा यह देखना कि वे निर्धारित योजना के अनुसार कार्य कर रहे हैं अथवा नहीं; तथा

(vii) मोर्चाबन्दी, नीतियों तथा योजनाओं का निर्माण करना ।

सार रूप में, संगठन प्रक्रिया में निम्नलिखित तत्वों या चरणों को शामिल किया जाता है, इन्हें संगठन निर्माण की क्रमिक अवस्थाएँ भी कहा जाता है:

(1) श्रम-विभाजन (Division of Labour):

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श्रम अवस्था कार्य-विमान संगठन का एक विवेकशील कार्य है । ऐलन लिखते हैं कि किसी भी समूह के प्रयासी को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है कि श्रम का विभाजन किया जाए, जिससे प्रत्येक व्यक्ति उसी कार्य को करें जिसके लिए वह सबसे अधिक योग्य हो । इस प्रकार श्रम-विभाजन के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यता के अनुसार कार्य सौंपा जाता है । इससे व्यक्तियों की कार्यकुशलता बढ़ती है । साथ ही यह तत्व कार्यों को दोहराव को भी रोकता है । कार्य-विभाजन कुछ निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर किया जाता है ।

(2) सम्बन्ध-स्थापना (Establishment of Relationships):

इस तत्व के अनुसार संस्था के विभिन्न स्तरों तथा विभिन्न विभागों के मध्य क्या सम्बन्ध होंगे, इनको निर्धारित किया जाता है । सम्बन्धों का निर्धारण इस प्रकार किया जाना चाहिए कि विभिन्न स्तरों के मध्य सन्देशवाहन का कार्य बिना किसी रुकावट के चलता रहे ।

(3) अधिकार स्त्रोत (Sources of Authority):

ऐलन का मत है कि अधिकार सत्ता स्त्रोत संगठन का अन्य प्रमुख तत्व है । इसके अन्तर्गत यह तय करना होता है कि कौन व्यक्ति किससे आदेश लोग तथा किसको आदेश देगा । चूंकि अधिकार के साथ दायित्व भी उत्पन्न होते हैं अत: अधिकार सत्ता स्रोत के रूप में विभिन्न स्तरों पर कार्यरत व्यक्तियों को अधिकार हस्तान्तरित कर उनका दायित्व निर्धारित करना भी संगठन का महत्वपूर्ण तत्व है ।

(4) संगठन का उद्देश्य (Object of Authority):

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संगठन का उद्देश्य ऐसा होना चाहिए जिसे उचित प्रयास के बाद प्राप्त किया जा सके उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सभी स्तरों तथा क्रियाओं में प्रभावशाली समन्वय स्थापित किया जाता है । संगठन के उद्देश्य स्पष्ट निर्धारित किए जाने चाहिए ।

(5) संचार व्यवस्था (Communication):

प्रत्येक संगठन में प्रभावशाली संचार व्यवस्था का होना आवश्यक तत्व माना गया है सन्देश वाहन की व्यवस्था प्रत्येक स्तर पर होनी चाहिए ताकि आदेश निर्देश, प्रार्थना तथा सुझावों का निर्बाध गति से आदान-प्रदान किया जा सके । यह तत्व समन्वय के कार्य को आधार प्रदान करता है तथा नियन्त्रण को प्रभावी बनाता है ।

(6) कुशल कर्मचारियों का चुनाव (Selection of Efficient Employee):

किसी भी संस्था के कुशल कर्मचारी उस संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक होते है । अत: उचित तथा कराल कर्मचारियों का चुनाव किया जाना चाहिए ।

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(7) समन्वय (Coordination):

कार्यों को उप-कार्यों में विभाजित कर देना ही पर्याप्त नहीं होता, बल्कि उन विभिन्न कार्यों व विभागों में समन्वय स्थापित करना भी अत्यन्त आवश्यक है ।

(8) संगठन का संरचनात्मक पहलू (Structural Side of Organisation):

संस्था के ढाँचे को निर्धारित करते समय अधिकारों की सीमा कर्मचारियों की योग्यता संगठन की लागत तथा संसाधनों को पूरी तरह से ध्यान में रखना चाहिए । साथ में यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि व्यावसायिक संगठन दीर्घ जीवी हों क्योंकि इनकी रचना में बार-बार परिवर्तन करना घातक सिद्ध हो सकता है ।

उपरोक्त क्रियाओं के करने से संस्था में एक कुशल संगठन का निर्माण होता है जिसमें सभी व्यक्ति एक-दूसरे को सहयोग देते हुए संगम की क्रियाओं को संगठन के उद्देश्यों की ओर ले जाने में सफलता प्राप्त करते हैं ।

संगठन सम्बन्धों का ढाँचा है (Organisation is a Structure of Relationships):

अनेक विद्वान संगठन को आपसी सम्बन्धों को दर्शाने वाला ढाँचा मानते हैं । एक ढांचे के रूप में संगम विभिन्न अधिकारियों के आपसी सम्बन्ध, सम्पर्क, अधिकार व उत्तरदायित्वों को प्रकट करता है । इस तरह, ढाँचे के अन्तर्गत संस्था के प्रशासनिक सम्बन्ध स्थापित तथा विकसित किए जाते हैं । अतएव संगठन एक ढाँचे के रूप में, प्रबन्धकों, अधिकारियों तथा कर्मचारियों की संस्था में स्थिति (Position) तथा उनके आपसी सम्बन्धों को व्यक्त करता है ।

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किसी भी संस्था में जब एक से अधिक व्यक्ति काम करते हैं तो उनके बीच पाए जाने वाले आपसी सम्बन्धों की समस्या सामने आती है । ये अन्तर-सम्बन्ध अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं । अधिकार सम्बन्ध ऐसा महत्वपूर्ण तथ्य है जो संगठन में जीवन फूँक देता है विभागीय स्तर पर सामूहिक, प्रयत्नों को प्रेरित करता है तथा उपक्रम में समन्वय लाता है ।

इन सम्बन्धों के आधार पर संगठन को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

(1) औपचारिक सम्बन्ध;

(2) अनौपचारिक सम्बन्ध ।

ये औपचारिक व अनौपचारिक सम्बन्ध:

(1) औपचारिक संगठन;

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(2) अनौपचारिक संगठन भी कहलाते है ।

(1) औपचारिक संगठन (Formal Organisation):

औपचारिक संगठन का निर्माण संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए किया जाता है । इस संगठन के अन्तर्गत प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर व्यक्तियों के कार्य क्षेत्र व स्थिति (Position) को निर्धारित करके, उनके कार्यों, अधिकारों, उत्तरदायित्वों तथा पारस्परिक सम्बन्धों की सीमाओं की स्पष्ट रूप से व्याख्या की जाती है ।

इस संगठन में प्रत्येक व्यक्ति निर्धारित पद्धतियां, नियमों कार्यप्रणालियों एवं नीतियों का पालन करता है । कोई भी व्यक्ति इनका उल्लंघन नहीं कर सकता । ऐसे संगठन में सत्ता का भारार्पण ऊपर से नीचे की ओर किया जा सकता है । इस संगठन को संगठन चार्ट व संगक-पुस्तिकाओं के द्वारा आसानी से जाना जा सकता है ।

लुइस ए.ऐलन (Louis A.Allen) के शब्दों में- ”औपचारिक संगठन सुपरिभाषित कार्यों की एक पद्धति है, प्रत्येक (कार्य) में अधिकार, उत्तरदायित्व और जवाबदेही का निश्चित मापदण्ड होता है, सम्पूर्ण चेतना पूर्वक इस प्रकार अभिकल्पित होता है कि उपक्रम के व्यक्ति अपने मेश्यों को प्राप्त करने के लिए एक साथ मिलकर बहुत प्रभावशीलता से कार्य कर सकें ।”

चेस्टर आई. बर्नार्ड (Chester Barnard) के शब्दों में “जब दो या से अधिक व्यक्तियों की क्रियाओं को किसी निश्चित लक्ष्म की प्राप्ति के लिए चेतनापूर्वक सबन्धित किया जाता है तो ऐसे संगठन को औपचारिक संगठन कहते हैं ।”

सारांश में, “औपचारिक संगठन में कर्मचारियों के कार्यों, अधिकारों, दायित्वों तथा पारस्परिक सम्बन्धों को पहले से ही उच्च स्तरीय प्रबन्ध द्वारा निश्चित कर दिया जाता है ।”

बिशेषताएँ (Characteristics):

इस संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) औपचारिक संगठन सोच समझकर स्वेच्छा से निर्धारित लक्ष्यों एवं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए बनाया जाता है ।

(ii) इसमें प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर विभिन्न व्यक्तियों के अधिकारों, कार्यों तथा उत्तरदायित्वों की स्पष्ट व्याख्या की जाती है और इनकी सीमाएँ निर्धारित रहती हैं ।

(iii) इसमें अधिकारों का भारार्पण ऊपर से नीचे की ओर किया जाता है ।

(iv) इसमें आदेश की एकता (Unity of Command) का पालन किया जाता है ।

(v) यह संगठन चार्ट एवं संगक-पुस्तिकाओं (Organisation Charts and Manuals) के द्वारा प्रदर्शित किया जाता है ।

(vi) इसमें व्यक्तियों के सम्बन्ध पूर्णत: अव्यक्तिगत (Impersonal) होते है अर्थात् इसमें व्यक्तियों की भावनाओं तथा विचारों को महत्व नहीं दिया जाता ।

(vii) यह श्रम विभाजन (Division of Labour) के सिद्धान्त पर आधारित है ।

(viii) इसमें सभी व्यक्ति एक-दूसरे के साथ मिल-जुलकर कार्य करते हैं ।

औपचारिक संगठन के सिद्धान्त (Principles of Formal Organisation):

संगठन के निर्माण का प्रमुख तत्व मानव है जिसका व्यवहार अनिश्चित है, अत: मार्गदर्शन हेतु कुछ सिद्धान्तों की आवश्यकता होती है जिनमें से कुछ प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार हैं:

(i) आदेश की एकता का सिद्धान्त (Principle of Unity of Command):

प्रत्येक व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि वह किसके नीचे कार्य कर रहा है । उसको आदेश केवल एक अधिकारी से प्राप्त होने चाहिए एवं उसे यह पता होना चाहिए कि उसके किसको रिपोर्ट देनी है ।

(ii) सोपानिक शृंखला का सिद्धान्त (Principle of Scalar Chain):

इस सिद्धान्त के अनुसार- संगठन में कार्य करने वाले सभी व्यक्ति ऊपर से नीचे तक एक क्रम अथवा शृंखला में एक-दूसरे से बँधे होने चाहिए ।

(iii) नियन्त्रण के विस्तार का सिद्धान्त (Principle of Span of Control):

इस सिद्धान्त के अनुसार, एक अधिकारी के नीचे काम करने वाले अधीनस्थों की संख्या से है । इस सिद्धान्त के अनुसार एक अधिकारी के नीचे 5 या 6 से अधिक व्यक्ति नहीं होने चाहिए ।

(iv) कार्य-विभाजन का सिद्धान्त (Principle of Division of Work):

कार्य-विभाजन औपचारिक संगठन का प्रमुख सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण कार्य को अनेक विभागों में बाँटा जाता है तथा प्रत्येक कार्य एक पृथक व्यक्ति के द्वारा सम्पन्न किया जाता है । ऐसा करने से जहां विशिष्टीकरण का लाभ प्राप्त होता है वहां दूसरी ओर काम न्यूनतम लागत पर होने लगता है ।

लाभ (Advantages):

औपचारिक संगठन के निम्नलिखित लाभ हैं:

(i) आपसी मतभेदों की कम सम्भावना:

अधिकारों तथा उत्तरदायित्व की स्पष्ट व्याख्या होने के कारण आपसी मतभेदों के पैदा होने की सम्भावना नहीं के बराबर होती है ।

(ii) कार्यों का दोहराव न होना:

पूर्णतया नियोजित होने के कारण इसमें किसी कार्य का दोहराव (Overlapping) नहीं होता ।

(iii) संस्था को विशिष्टीकरण के लाभ:

औपचारिक संगठन श्रम-विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित होता है । इसलिए विशिष्टीकरण के लाभ संस्था को प्राप्त होते हैं ।

(iv) उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक:

औपचारिक संगठन संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने में बहुत सहायक सिद्ध होते है ।

(v) पक्षपात की कम सम्भावनाएँ:

इस संगठन में अव्यक्तिगत सम्बन्ध होने के कारण पक्षपात किए जाने की सम्भावनाएँ कम हो जाती हैं ।

(vi) कर्मचारियों की कुशलता को मापना आसान:

प्रत्येक व्यक्ति के कार्य व उत्तरदायित्व पूर्व-निर्धारित होने के कारण कर्मचारियों की कुशलता को आसानी से मापा जा सकता है ।

(vii) उत्तरदायित्व निर्धारित करना आसान:

प्रत्येक व्यक्ति जो अपने कार्य को निष्ठा व लगन से नहीं करते हैं, आसानी से जिम्मेदार ठइराए जा सकते हैं ऐसे कर्मचारी अपनी अकार्यकुशलता तथा असफलता का दोष किसी अन्य कर्मचारी के माथे नहीं पड़ सकते ।

(viii) सहयोग की भावना का विकास:

औपचारिक संगठन में आपसी सहयोग की भावना विकसित होती है ।

(ix) समन्वय तथा अधिकार सौंपने में सुविधा:

इस संगठन में सभी सम्बन्धों की स्पष्ट व्याख्या होने के कारण विभिन्न क्रियाओं में समन्वय स्थापित करने तथा अधिकार सोंपने में सुविधा रहती है ।

(x) विकास की योजना बनाना सम्भव:

इस संगठन में प्रबन्ध के उच्च स्तर से निम्न स्तर तक की सोपान शृंखला (Scalar Chain) पदोन्नति के रास्ते को स्पष्ट दर्शाती है, जिस कारण प्रत्येक व्यक्ति अपने विकास की योजना बना सकता है ।

हानियाँ (Disadvantages) औपचारिक संगठन के दोष निम्नलिखित हैं:

(i) पहल-शक्ति का विकास न होना:

इसका सबसे बड़ा दोष यह है कि इसमें यान्त्रिक रूप से (Mechanically) कार्य किया जाता है तथा मानव तत्व की अवहेलना की जाती है । जिसके फलस्वरूप इसमें कार्य करने वाले व्यक्तियों की पहल-शक्ति (Initiative) का विकास नहीं होता ।

(ii) समन्वय स्थापित करने में कठिनाई:

कर्मचारियों की हठधर्मी के कारण कई बार इस संगठन में समन्वय स्थापित करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है ।

(iii) अधिकारों के दुरुपयोग की सम्भावना:

इस प्रकार के संगठन में अधिकारी अपने अधिकारों को अनावश्यक रूप से अपने ही हित में प्रयोग करते है ।

(iv) अनौपचारिक सन्देश-वाहन में बाधक:

यह संगठन केवल औपचारिक सन्देशवाहन को मानता है । इस तरह यह अनौपचारिक सन्देशवाहन को लागू करने में बाधाएँ उत्पन्न करता है ।

(v) अन्य संगठनों की मान्यताओं तथा भावनाओं की उपेक्षा:

इन सगठनों में काम करने वाले व्यक्ति सामाजिक सगठनों की मान्यताओं तथा भावनाओं पर किसी प्रकार का ध्यान नहीं देते हैं ।

(vi) दृढ़ता (Rigidity) का विभाजन होना:

इस संगठनों में दृढ़ता पाई जाती है अर्थात् इन संगठनों में नियमों, नीतियों, कार्यप्रणालियों तथा कार्यक्रमों का कठोरता से पालन किया जाता है । इस कारण इन संगठनों को परिस्थितियों के अनुकूल बदलना कठिन हो जाता है ।

(vii) अव्यक्तिगत संगठन:

औपचारिक संगठन अव्यक्तिगत होता है । इसमें मानवीय भावनाओं की अनदेखी की जाती है ।

(2) अनौपचारिक संगठन (Informal Organisation):

इस संगठन का निर्माण संस्था के प्रबन्धकों द्वारा नहीं किया जाता । इसे कर्मचारियों द्वारा स्वयं विकसित किया जाता है । इस संगठन की स्थापना सोच-समझकर तथा जानबूझ कर नहीं की जाती बल्कि आपसी सम्बन्धों, रुचियों तथा समान हितों के कारण हो जाती है ।

इस संगठन का निर्माण संस्था में काम करने वाले व्यक्तियों के प्राकृतिक तथा सामाजिक सम्बन्धों के आधार पर होता है । कीथ डेविस मानते हैं कि- ”अनौपचारिक संगठन व्यक्तिगत एवं सामाजिक सम्बन्धों का ऐसा जाल है जिसे स्थापित करने के लिए किसी औपचारिक संगठन की स्थापना की आवश्यकता नहीं पड़ती ।”

अर्ल पी.स्ट्राँग के शब्दों- “अनौपचारिक संगठन वह सामाजिक ढाँचा है जिसका निर्माण व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है ।”

जोसेफ एल.मेसी के अनुसार- ”अनौपचारिक संगठन मानवीय अन्तक्रियाओं का वह समूह है जो स्वत: स्वाभाविक तौर से लम्बे समय तक साथ रहने से उत्पन्न हो जाता है ।”

बर्नार्ड के शब्दों में- “यह संगठन अनौपचारिक है जिसमें आपसी सम्बन्ध अनजाने में संयुक्त उद्देश्य के लिए स्थापित हो जाते हैं ।”

वास्तविक जीवन में यह देखा गया है कि जब एक ही विभाग में काम करने वाले अथवा समान कार्य करने वाले अथवा एक ही भाषा, जाति, धर्म अथवा एक ही स्थान पर रहने वाले व्यक्ति एक लम्बे समय तक आपस में मिलते-जुलते रहते हैं तो उनमें स्वत: ही स्वाभाविक रूप से औपचारिक सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं, जो बाद में अनौपचारिक संगठन का रूप धारण कर लेते हैं ।

विशेषताएँ (Characteristics):

अनौपचारिक संगठन की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) ये संगठन स्वत: उत्पन्न होते हैं अर्थात् इन संगमों का निर्माण अपने-आप होता है ।

(ii) ये सामाजिक संगठन होते है जिनका निर्माण व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किया जाता है ।

(iii) ये संगठन प्रबन्ध के प्रत्येक स्तर पर पाए जाते हैं ।

(iv) इन संगठनों में पाए जाने वाले सम्बन्ध लोचपूर्ण तथा परिवर्तनशील होते है ।

(v) इन संगठनों की उत्पत्ति आकस्मिक होती है । इनके निर्माण में नियोजन की आवश्यकता नहीं होती ।

(vi) इन संगठनों को चार्टों द्वारा नहीं दिखाया जाता ।

(vii) इन संगठनों का निर्माण आपसी सम्बन्धों, रीति-रिवाजों, स्वभावों, विचारों आदतों आदि के कारण होता है ।

(viii) इन संगठनों के अपने कुछ नियम एवं परम्पराएँ होती हैं जो कि लिखित नहीं होतीं, परन्तु फिर भी इनका पालन किया जाता है ।

(ix) ये संगठन औपचारिक संगठनों के पूरक होते हैं ।

(x) यह संगठन अनिश्चित होते हैं ।

लाभ (Advantages):

अनौपचारिक संगठनों के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:

(i) मधुर सम्बन्धों की स्थापना:

ये संगठन कर्मचारियों में आपसी मधुर सम्बन्धों की स्थापना करने में महत्त्वपूर्ण योगदान करते है । इन संगठनों में सहयोग की भावना प्रबल होती है ।

(ii) प्रभावी सन्देशवाहन:

इन संगठनों में सन्देशवाहन प्रणाली काफी कुशल और प्रभावशाली बन जाती है इनके अन्तर्गत संचार की विधि अनौपचारिक रहती है, जिससे स्वतन्त्रतापूर्वक विचारों का आदान-प्रदान किया जा सकता है ।

(iii) कार्य की सन्तुष्टि:

इन संगठनों में कर्मचारी अपने-आप को सम्मानित सुरक्षित तथा स्वतन्त्र महसूस करते हैं । अत: इन्हें कार्य की सन्तुष्टि प्राप्त होती है ।

(iv) प्रबन्धकों को सतर्क करना:

ये संगठन प्रबन्धकों को अधिक सावधानी से कार्य करने के लिए प्रेरित करते हैं तथा प्रबन्धकीय योग्यता की कमियों की पूर्ति करने में बड़े उपयोगी सिद्ध होते हैं । ये प्रबन्धकों के कार्यभार में कमी लाते हैं ।

(v) संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करना:

इन संगठनों से सम्बद्ध व्यक्ति स्वेच्छा से मिलकर संस्था के उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयास करते है । इसके अतिरिक्त उनकी कार्य के प्रति रुचि तथा पहलपन की क्षमता में वृद्धि होती है ।

(vi) ये संगठन कर्मचारियों के हितों की रक्षा करते हैं ।

(vii) ये संगठन औपचारिक संगठन के पूरक होते है तथा उनकी कमियों को दूर करते हैं ।

हानियाँ (Disadvantages):

अनौपचारिक संगठनों की हानियाँ निम्नलिखित हैं:

(i) अफवाहों को फैलाना:

ये संगठन अफवाहें फैलाते है जिसके कारण संगठन के कार्य-संचालन तथा समूहों के सम्बन्धों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है ।

(ii) परिवर्तनों का विरोध:

ये संगठन सुरक्षावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं जिसके कारण ये परिवर्तनों का विरोध करते हैं । परिणामस्वरूप, संस्था बदलती हुई आधुनिक तकनीकों का लाभ नहीं उठा सकती ।

(iii) अकुशल कर्मचारियों को संरक्षण:

ये संगठन भीड़-प्रवृत्ति (Mob Psychology) को बढ़ावा देते हैं जिससे संस्था अकुशल कर्मचारियों को संरक्षण मिलता है ।

(iv) अस्थायी:

ये संगठन अस्थायी तथा अल्प आयु वाले होते हैं ।

(v) प्रमापों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करना:

ये संगठनों के सदस्य प्राय: अपने प्रमाप (Norms) निर्धारित कर लेते है तथा अन्य कर्मचारियों को इन प्रमापों को स्वीकार करने के लिए बाध्य करते हैं तथा उन पर दबाव डालते हैं ।

(vi) उत्तरदायित्व निर्धारित करना कठिन:

इन संगठनों में कार्यों को पूरा न करने पर उत्तरदायित्व निर्धारित करना कठिन होता है क्योंकि इनमें कार्य पूर्व-परिभाषित नहीं होते ।

(vii) समन्वय तथा नियन्त्रण में कठिनाई:

ओपचारिक व्यवस्था में तो समन्वय होता है लेकिन यहाँ यह व्यवस्था न होने के कारण इसे प्रभावशाली बनाना कठिन हो जाता है । इसके अतिरिक्त प्रभावशाली नियन्त्रण के लिए पूर्व-निर्धारित प्रमापों का होना आवश्यक है । जिससे उनका वास्तविक प्रमाप से मिलान करके विचलनों अथवा त्रुटियों का पता लगाया जा सकता है तथा उन्हें सुधारा जा सकता है । परन्तु इन संगठनों में प्रमापों का अभाव पाया जाता है, जिससे नियन्त्रण में कठिनाई आती है ।

अनौपचारिक संगठन के उपरोक्त दोषों को देखते हुए कुछ विद्वानों का मत है कि इनको समाप्त कर देना चाहिए, परन्तु वास्तविकता यह है कि ऐसे अनौपचारिक संगठनों से छुटकारा पाना सम्भव नहीं है क्योंकि ये प्राकृतिक है एवं स्वत: उत्पन्न होते हैं । प्रबन्ध को इनके साथ चलना तथा कार्य करना सीखना होगा ऐसा देखा गया है कि प्राय: औपचारिक संगठन आकस्मिक संकट से नहीं निकल पाते, अल्पकालीन परिस्थितियों में नये तरीके से व्यवहार करने की आवश्यकता रहती है जिसके लिए अनौपचारिक सम्बन्ध आवश्यक होते हैं ।

आज प्रबन्ध के सामने यह महत्वपूर्ण कार्य है कि अनौपचारिक संगठन के हितों व लक्ष्यों को संस्था के हितों एवं लक्ष्यों के साथ समन्वित (Co-Ordinate) करें ताकि दो समूह आपस में मिलकर काम कर सकें । वास्तव में यही प्रभावी प्रबन्ध है ।

निष्कर्ष:

औपचारिक व अनौपचारिक दोनों प्रकार के संगठन प्रत्येक संस्था के लिए आवश्यक हैं । प्रबन्ध की प्रभावशीलता तथा उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए दोनों प्रकार के संगठनों का एकीकरण बहुत आवश्यक है ।

उपरोक्त चित्र से स्पष्ट है कि औपचारिक संगठन के अन्तर्गत मुख्य प्रबन्धक क्रय प्रबन्धक एवं क्रय अधीक्षक के मध्य शृंखलाबद्ध सम्बन्ध हैं एवं इन्हें इसी संखला में रहते हुए व्यवहार करना है । क्रय अधीक्षक अपनी बात केवल क्रय प्रबन्धक (Purchase Manager) को ही कह सकता है ठीक इसी प्रकार उत्पादन एवं वित्त अधीक्षक अपनी-अपनी बात अपने-अपने विभाग के प्रबन्धक को ही कह सकते हैं ।

इसके विपरीत, अनौपचारिक संगठन में क्रय अधीक्षक अपने आपसी सम्बन्धों के कारण उत्पादन प्रबन्धक से समय-समय पर विचारविमर्श कर सकता है, इसी तरह, वित्त अधीक्षक सीधे ही (जैसा: कि डौटेड लाइन से दिखाया गया है) मुख्य प्रबन्धक (General Manager) के सामने अपनी समस्या रख कर उसका हल निकाल सकता है ।

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