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मानवीय-सम्बन्ध विचारधारा, 1930 (Human Relation Approach, 1930):

हाथोर्न अध्ययन एवं एल्टन मेयो का योगदान (Hawthorne Studies and Contribution of Elton Mayo):

प्रबन्ध की यह विचारधारा मानवीय व्यवहार पर आधारित है । अमेरिका के वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी कें हॉथोर्न (Hawthorne) संयंत्र में पहली बार मानवीय पहलुओं पर प्रकाश डाला गया जिसका मुख्य श्रेय एल्टन मेयो ऐथलिस बर्गर तथा उनके अनुयायियों को है ।

इस संयत्र में किए गए प्रयोग “हॉथोर्न अध्ययन” (Hawthorne Studies) के नाम से जाना जाता है । शास्त्रीय विचारकों ने मानवीय घटक की उपेक्षा की अथवा उसे अत्यन्त सरल रूप में पेश किया था । मानवीय विचारकों ने शास्त्रीय विचारकों कीइस बात को लेकर चुनौती दी और उसमें निहित कमियों को दूर करने का प्रयास किया मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का प्रारम्भ 1930 के शुरू में हुआ ।

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एल्टन मेयो आदि विद्वानों ने लम्बी अवधि के प्रयोगों के पश्चात् यह निष्कर्ष निकाला कि मनुष्य सभी क्रियाओं का आधार है । इस विचारधारा ने प्रबन्धकीय समस्याओं के निवारण के लिए मानवीय दृष्टिकोण को अपनाने कर्मचारियों को नीति-निर्धारण में हिस्सा देने के लिए अनौपचारिक सामाजिक समूहों को बढ़ावा देने, स्वस्थ वातावरण प्रदान करने आदि पर बल दिया गया है जिससे मानव का महत्व व्यावसायिक जगत् में बढ़ा है इस विचारधारा को “मानवीय व्यवहार”, “नेतृत्व” तथा “व्यावहारिक विज्ञान” भी कहा जाता है । यह विचारधारा श्रमिकों की सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं पर विचार करती है ।

यह विचारधारा मानती है कि प्रबन्धकों को “मानवीय सम्बन्धौं” को अच्छी प्रकार से समझना चाहिए । इस विचारधारा के महत्वपूर्ण तत्व हैं: अभिप्रेरणा, सम्प्रेषण, प्रशिक्षण, सहभागिता, समूह गतिशीलता (Group Dynamism), नेतृत्व आदि । इस विचाराधारा के अनुसार संगठन एक सामाजिक व्यवस्था है ।

यह केवल औपचारिक पदों तथा अधिकार सत्ता (Authority) उत्तरदायित्व (Responsibility) सम्बन्धों का ढाँचा नहीं है अत: किसी संगठन में कार्यरत शक्तियों को केवल औपचारिक संगठन की सीमाओं में बाँधना उचित नहीं है । प्रबन्धकों को चाहिए कि वे अनौपचारिक संगठन के महत्व एवं उसकी प्रतिष्ठ की व्यवस्था करें इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध का दूसरा नाम नेतृत्व है अर्थात् सफल नेतृत्व ही सफल प्रबन्ध है । यह विचारधारा अन्तर-व्यक्तिगत सम्बन्धों (Inter-Personal Relations) पर काफी बल देती है ।

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हॉथोर्न परीक्षणों के निष्कर्ष (Conclusion of Hawthorne Experiments):

मानवीय सम्बन्ध विचारधारा के जन्मदाता जॉर्ज एल्टन मायो माने जाते हैं । इन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर मानवीय सम्बन्धों की दिशा में कई महत्वपूर्ण प्रयोग किये थे । ये प्रयोग 1924 से 1933 की अवधि में किए गए ।

इन परीक्षणों के कुछ प्रमुख निष्कर्ष निम्नलिखित हैं:

(i) प्रबन्ध एक मानवीय तथा सामाजिक क्रिया है जिसमें मानवीय तत्व सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । अत: प्रबन्धकों का कर्मचारियों के साथ मानवीय व्यवहार कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करना है तथा सामाजिक सन्तुष्टि प्रदान करना है ।

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(ii) श्रमिकों की उत्पादकता (Productivity) पर भौतिक तत्वों के साथ-साथ सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक तत्वों का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक पड़ता है ।

(iii) श्रमिक केवल आर्थिक मनुष्य (Economic Person) ही नहीं है अर्थात् वह केवल धन प्राप्ति के लिए ही कार्य नहीं करता । वह अपनी सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी कार्य करता है ।

(iv) कारखानों में श्रमिक अनौपचारिक सामाजिक समूहों (Informal Groups) का निर्माण करते हैं । इन अनौपचारिक सामाजिक समूहों में भाग लेने से संगठन के प्रति उनका दृष्टिकोण तथा विचारधारा अच्छी बनती है तथा संगठन का संचालन कुशलतापूर्वक क्रिया जाता है । अत: प्रबन्धकों को इन समूहों को मान्यता देनी चाहिए तथा प्रबन्ध में इनका प्रयोग करना चाहिए ।

(v) कर्मचारियों के कार्यों को सार्वजनिक मान्यता (Recognition) व सुरक्षा प्रदान करके उनके मनोबल एवं उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है ।

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(vi) कर्मचारियों की समस्याओं का कोई एक कारण नहीं होता है, बल्कि उन पर संस्था की समग्र कार्य स्थिति का प्रभाव पड़ता है ।

(vii) प्रबन्धकों तथा कर्मचारियों को अपने कार्य में स्वायत्तता (Autonomy) प्रदान की जानी चाहिए स्वायत्तता से पहलशक्ति (Initiative) का विकास होता है ।

(viii) हॉथोर्न प्रयोगों से यह भी स्पष्ट हुआ कि संगठन में कार्य एक व्यक्तिगत क्रिया नहीं है, बल्कि एक सामूहिक क्रिया (Group Activity) है । अत: कर्मचारियों में समूह भावना विकसित की जानी चाहिए । सामूहिक रूप से कार्य करते हुए कर्मचारी न केवल संगठन के बल्कि व्यक्तिगत लक्ष्यों को भी सरलता से प्राप्त कर सकते हैं ।

(ix) इन प्रयोगों से यह भी स्पष्ट हुआ है कि श्रमिक द्वारा की जाने वाली शिकायतें, उनके भीतर छिपे हुए दुखों तथा असन्तोष की ओर इंगित करती हैं । इस प्रकार शिकायतें श्रमिकों को अपनी भावनाओं को प्रकट (Emotional Release) करने का अवसर भी प्रदान करती हैं ।

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(x) (a) मेयो “कारखाने” को “सामाजिक इकाइयों” के रूप में देखते हैं, न कि एक अनौपचारिक ढाँचे के रूप में ।

(b) मेयो ने “नए नेतृत्व” के विकास पर बल दिया जो सामाजिक तथा मानवीय कौशल में दक्ष हो ।

(c) मेयो ने “भीड़ परिकल्पना” (Rabble Hypothesis) को पूरी तरह अस्वीकार कर दिया भीड़ परिकल्पना के अन्तर्गत प्रबन्धक सम्पूर्ण समाज को असंगठित व्यक्तियों का एक “झुंड” मानते हैं जो अपनी रक्षा तथा लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रति-स्पर्धा करता है । श्रमिक केवल “पुर्जे के ढेर” होते हैं जो केवल “धन” से संचालित होते हैं ।

(d) इन प्रयोगों से कर्मचारी परामर्श का महत्व भी उभर कर सामने आया ।

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(e) मेयो ने नीचे से ऊपर संचार (Upward Communication) के उपयोग पर जोर दिया ।

जॉर्ज एल्टन मेयो के उपरोक्त विचारों से यह स्पष्ट है कि मेयो प्रथम ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने उचित रूप से मानव के महत्व को स्वीकार किया है । इसके अतिरिक्त अवित्तीय प्रेरणाएँ, व्यक्तिगत विचार-विमर्श अनौपचारिक समूह जैसी महत्वपूर्ण बातें भी प्रबन्ध के क्षेत्र में मेयो की ही देन हैं उनके अनुसार उद्योगों में सेना के कप्तान द्वारा लागू किए गए अनुशासन की आवश्यकता नहीं है, अपितु उद्योगों में स्वतन्त्रता मधुरता एवं स्वच्छता का वातावरण होना चाहिए ताकि कर्मचारी निडर होकर अपने विचार तथा सुझाव दे सकें तथा प्रबन्ध निर्णयन (Decision-Making) में भाग ले सकें । मेयो के अनुयायी रथलिस बर्गर (Roethlis Berger) का कहना है कि “प्रबन्धक न तो मनुष्यों का प्रबन्ध करता है और न ही कार्य का । वह एक सामाजिक व्यवस्था का प्रबन्ध करता है ।”

इस प्रकार मेयो के प्रयोग प्रबन्ध विचारधारा के इतिहास में मील का पत्थर सिद्ध हुए इन शोध परिणामों के बाद श्रमिकों की सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं पर विचार किया जाने लगा । श्रम संघों का विकास हुआ तथा तानाशाही प्रबन्धकीय प्रवृत्तियों का अन्त होने लगा शोधकर्त्ताओं को प्रबन्ध के क्षेत्र में मानवीय समस्याओं का और आगे अध्ययन करने के लिए प्रोत्साहित किया ।

मेयो का योगदान- हॉथोर्न प्रयोग एवं उनका प्रबन्ध विज्ञान विकास में महत्व (Contribution of Mayo- Hawthorne Experiments and their Importance in Management Science Development):

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हॉथोर्न अध्ययन का प्रबन्ध विज्ञान में एक विशेष महत्वपूर्ण स्थान है । ब्लूम (Blum) नामक विद्वान ने इस अध्ययन की महत्ता को समझाते हुए लिखा है कि जिस प्रकार मंस्टरबर्ग (Munsterberg) ने उद्योगों में मनोवैज्ञानिकों के कार्य करने के लिए एक विशेष मंच की स्थापना की उसी प्रकार एल्टन मेयो (Elton Mayo) नामक विद्वान ने औद्योगिक खेल को आरम्भ करने का प्रयास किया इस प्रकार मेयो ने कर्मचारी के सामाजिक पक्ष का श्रीगणेश किया हॉथोर्न प्रयोग सर्वप्रथम सन् 1924 से अमेरिका की वैस्टर्न इलैक्ट्रिक कम्पनी के हॉथोर्न प्लाण्ट में प्रारम्भ हुए ।

सन् 1927 में वैस्टर्न इलैक्ट्रिक कम्पनी के हाथोर्न वर्क्स में कार्यों के कुछ अन्वेषण प्रारम्भ किये गये । इन अन्वेषणों की क्रमबद्ध प्रयोगात्मक सामग्री को ही “हॉथोर्न प्रयोग” के नाम से पुकारा जाता है । इस अध्ययन के परिणामस्वरूप बहुत-से महत्वपूर्ण तथ्य प्राप्त हुए हैं । निष्कर्षों से यह स्पष्ट हो गया है कि कर्मचारी अपने कार्य से सम्बन्धित वातावरण से इतना अधिक प्रभावित नहीं रहता है जितना कि वह बाहरी वातावरण और अपने सामाजिक समूहों से प्रभावित होता है इस अध्ययन ने यह बात भी प्रमाणित कर दी है कि कर्मचारी की सम्पन्नता और प्रबन्धक कर्मचारी अच्छे सम्बन्धों के लिए उनके (कर्मचारियों) सगठनों को बढ़ावा देना चाहिए अच्छे उत्पादन और शान्तिपूर्वक औद्योगिक व्यवस्था के लिए कर्मचारियों को संघों में एकत्र करना चाहिए ।

हॉथोर्न प्रयोगों से यह भी स्पष्ट हो गया है कि उद्योगों की विभिन्न समस्याएँ एक-दूसरे से सम्बश्वि है । कार्य की दशाओं में और कर्मचारियों के सामाजिक संगठनों में एक विशेष सम्बन्ध है । कर्मचारी को कार्य के लिए मनोवृत्ति, उसको सामाजिक जीवन की ही देन है । इसी देन के कारण थकान अरोचकता दुर्घटनाओं जैसी अव्यवस्थाओं की कर्मचारी को अनुभूति होती है और फिर वह अपने को औद्योगिक वातावरण में समायोजित करने में असमर्थ पाता है ।

मेयो का अध्ययन कर्मचारी के सामाजिक दृष्टिकोण से सर्वश्रेष्ठ योगदान कहा जा सकता है । सत्य तो यह है कि औद्योगिक मनोविज्ञान का विकास हॉथोर्न अध्ययन के बाद ही प्रारम्भ हुआ है । चूकि औद्योगिक मनोविज्ञान का मूल उद्देश्य कर्मचारी के सामाजिक जीवन का अध्ययन है और हॉथोर्न अध्ययन उद्योग में मनुष्य की सामाजिक मनोवृत्ति क्या है ? इस तथ्य को सामने रखकर ही हॉथोर्न अध्ययन प्रारम्भ किया गया अत: यह कहा जा सकता है कि औद्योगिक मनोविज्ञान का विकास इस अध्ययन के बाद ही हुआ ।

प्रबन्ध के क्षेत्र में मेयो का योगदान (Contribution of Mayo in the Field of Management):

जॉर्ज एल्टन मेयो ने प्रबन्ध विकास के क्षेत्र में उपर्युक्त दोनों प्रयोगों द्वारा महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।

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इनके द्वारा महत्वपूर्ण योगदानों का संक्षिप्त रूप में अध्ययन अग्रलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है:

(i) मानवीय सम्बन्ध दृष्टिकोण का प्रतिपादन (Human Relations Approach):

मेयो की सबसे महत्वपूर्ण देन इनके द्वारा हॉथोर्न तथा अन्य प्रयोगों द्वारा प्रबन्ध के क्षेत्र में मानवीय सम्बन्धों का प्रतिपादन किया जाना है । इन्होंने न केवल मानवीय सम्बन्ध विचारधारा को जन्म दिया है बल्कि उसका विकास भी किया है ।

(ii) रचनात्मक नेतृत्व (Constructive Leadership):

इस प्रयोगों ने रचनात्मक नेतृत्व को विकसित किया है । रचनात्मक नेतृत्व एक प्रकार से प्रबन्ध विज्ञान का हृदय है । प्रबन्ध के क्षेत्र में बिना कुशल नेतृत्व के सफलता की कामना करना निरर्थक होगा अत: यह आवश्यक है कि संस्था के प्रबन्ध अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का सही ढंग से एवं सही दिशा में नेतृत्व करें । इसके लिए उन्हें उन व्यवहारों एवं प्रणालियों का अध्ययन करना चाहिए जो कर्मचारियों को प्रबन्धकों के नेतृत्व में लाकर खड़ा कर दे ।

(iii) कर्मचारियों को अनार्थिक अभिप्रेरण (Non-Economic Motivation to Employees):

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वे दिन लद गये जबकि प्रबन्धक अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का मनमाने ढंग से शोषण किया करते थे और बेचारे कर्मचारी उसे चुपचाप ही सहन कर लिया करते थे । आज प्रबन्धक को अपने कर्मचारियों की कुशलता को बढ़ाने, उनके उत्साह और मनोबल को ऊँचा उठाने तथा उनका जीवन-स्तर ऊँचा उठाने वाले तत्वों का नये सिरे से अध्ययन एवं विश्लेषण करना होता है ।

हॉथोर्न प्रयोग इस बात के सूचक थे कि कर्मचारियों की कुशलता और उत्पादकता को बढ़ाने में धन सम्बन्धी तत्व या कार्य की दशाओं सम्बन्धी जैसे: शुद्ध पानी, बिजली, वायु, विश्राम आदि की व्यवस्था केवल सीमित महत्व रखते हैं अत: इसके अतिरिक्त उन्हें अनार्थिक अभिप्रेरणा की आवश्यकता होती है, ताकि वे स्वेच्छा से अधिकाधिक कार्य करने के लिए उत्सुक हो उठें ।

(iv) सन्देशवाहन की व्यवस्था (Arrangement of Communication):

मेयो के अनुसार कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों के बीच सहयोगपूर्ण एवं सद्‌भावनापूर्ण वातावरण बनाने में उनके बीच विचारों का मुक्त आदान-प्रदान होना नितान्त आवश्यक है । इसके लिए प्रभावी आधुनिक सन्देशवाहन के साधनों के विकास पर बल दिया जाना चाहिए ।

(v) कर्मचारियों का विकास (Development of Employees):

मेयो के अनुसार प्रबन्धकों को अपने कर्मचारियों का पूर्ण विकास करने के लिए उनकी निपुणता को बढ़ाने और योग्यताओं को विकसित करने के समुचित अवसर प्रदान करने चाहिए । यही नहीं स्वयं भी उसकी व्यवस्था करनी चाहिए । ऐसा करने से कर्मचारियों तथा प्रबन्धकों दोनों को ही लाभ होगा कर्मचारी जितना अधिक योग्य होता जायेगा प्रबन्ध उतना ही कुशल एवं प्रभावी बनता चला जायेगा । मेयो ने मानवता तत्व के विकास पर बल दिया ।

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(vi) संगठन का एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में होना (Organisation as a Social System):

एल्टन मेयो के मतानुसार संगठन एक सामाजिक व्यवस्था है । अत: किसी संगठन में संलग्न व्यक्तियों को केवल एक औपचारिक संगठन की मर्यादा में बाँधना व्यावसायिक कुशलता के लिए उपयुक्त नहीं है । इस कारण प्रबन्धकों को चाहिए कि वे अनौपचारिक संगठन के महत्व एवं उसकी प्रतिष्ठा की व्यवस्था करें ।

(vii) आधारभूत प्रतिवचन (Fundamental Responses):

मेयो ने किसी भी कार्यरत कर्मचारी की कार्य के प्रति जवाबदेही को निम्न तीन भागों में विभाजित किया है:

(i) तर्कपूर्ण,

(ii) तर्कविहीन, एवं

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(iii) अविवेकपूर्ण ।

मेयो का मत था कि कर्मचारियों की जवाबदेही तर्कपूर्ण होनी चाहिए । उसके लिए उनकी आर्थिक आवश्यकताओं के साथ-साथ सामाजिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि होना भी आवश्यक है ।

अन्य विद्वानों द्वारा योगदान (Contribution by Other Leadsman):

(i) मेरी पार्कर फोलेट ने- “सम्बन्धों के मनोविज्ञान” (Psychological Relationship) पर विशेष कार्य किया तथा उन्होंने प्रबन्ध में “मेलजोल”, “समूह चिन्तन” तथा नये प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपनाने पर बल दिया ।

(ii) ओलिवर शेल्डन के अनुसार- “व्यक्ति पहले हैं” (Man is First) तथा उन्होंने वैज्ञानिक प्रबन्ध को “सामाजिक व्यवहार” (Social Ethic) के साथ जोड़ने का प्रयास किया ।

(iii) चेस्टर आई. बर्नार्ड (Chester I. Barnard) ने प्रबन्ध प्रक्रिया का मानवीय एवं सामाजिक विश्लेषण किया । वे मामाजिक प्रणाली के जन्मदाता माने जाते हैं ।

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मूल्यांकन (Evaluation):

यह विचारधारा यन्त्रों कार्यों व संसाधनों की बजाय कर्मचारियों अर्थात् ‘न्यालय’ को अपने अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु मानती हैं । इसके अन्तर्गत अन्तर-वैयक्तिगत व्यवहार का अध्ययन करने के लिए मनोविज्ञान समाजशास्त्र तथा मानवशास्त्र के ज्ञान का उपयोग किया गया है ।

इस विचारधारा से कर्मचारी की मानवीय गरिमा बड़ी है । इससे कर्मचारियों की भावनाओं, आवश्यकताओं तथा अन्तर्व्यवहारों को समझने को बल मिला है । ये विचारधारा कर्मचारियों को मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक सन्तुष्टि प्रदान करती है । इस विचारधारा की सहायता से कर्मचारियों के बीच मधुर सम्बन्ध विकसित करना सम्भव है, मानवीय साधनों का अनुकूलतम उपयोग तथा परस्पर सद्‌भावना तथा सहयोग विकसित किया जाना सरल है ।

आलोचनाएँ (Criticisms):

(i) इस विचारधारा में “व्यक्ति” को ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है, जबकि व्यवहार में किसी संस्था में अन्य संसाधन भी महत्वपूर्ण होते है ।

(ii) यह विचारधारा प्रबन्ध के कला पक्ष को अधिक उजागर करती है परन्तु विज्ञान पक्ष के प्रति उदासीन लगती है ।

(iii) इस विचारधारा के अन्तर्गत मानव सन्तुष्टि पर अधिक बल दिया गया जोकि व्यावहारिक नहीं है

(iv) यह विचारधारा प्रबन्ध के सिद्धान्तों व तकनीकों को कोई महत्व नहीं देती है ।

(v) इस विचारधारा का यह निष्कर्ष कि मनुष्य धन कमाने को सबसे ऊँचा स्थान नहीं देता, सभी परिस्थितियों में सही नहीं है ।

व्यवहारवादी विज्ञान विचारधारा, 1940 (The Behavioural Science School/Approach, 1940):

यह विचारधारा मनुष्य के व्यक्तिगत रूप में तथा समूह के रूप में, दोनों परिस्थितियों का अध्ययन करती है एक व्यक्ति अकेले में तथा समूह में किस प्रकार की गतिविधियों करता है, इनका अध्ययन ही व्यवहारवादी विचारधारा के अन्तर्गत किया जाता है ।

प्रबन्ध की व्यवहारवादी विचारधारा को मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का संशोधित तथा सुधरा हुआ रूप कहा जा सकता है । इस विचारधारा के प्रमुख विद्वान् डगलस मेक्सेगर, रेनसिस लिकर्ट, किस आरगरिस, अब्राहम मास्लो कुर्त लेविन, फोलेट चैस्टर आई. बर्नार्ड आदि है ।

इन विद्वानों ने लम्बे विश्लेषणों के बाद यह निष्कर्ष निकाला कि प्रबन्ध की अधिकतर समस्याओं का निदान मानव व्यवहार को समझने में छिपा है । ये विद्वान् मानव व्यवहार को कार्यों का केन्द्र-बिन्दु मानते हैं । यह विचारधारा मानव व्यवहार को समझने, पूर्वानुमान लगाने तथा नियन्त्रण करने के वैज्ञानिक अनुसन्धान एवं विश्लेषण से सम्बन्धित है ।

यह मनोविज्ञान, समाजशास्त्र एवं मानवशास्त्र का वह संयोजन है जिसमें व्यक्तिगत-व्यवहार सामूहिक-व्यवहार तथा अन्तर-सामूहिक-व्यवहार को समझ कर प्रबन्ध प्रक्रिया का निर्धारण किया जाता है । इस विचारधारा में निर्णय भावनाओं तथा कल्पनाओं के आधार पर नहीं लिए जाते बल्कि विज्ञान के आधार पर किए जाते हैं ।

यह विचारधारा मानव को सामाजिक-मनोवैज्ञानिक प्राणी मानती है तथा इस बात पर बल देती है कि प्रबन्धकों को ऐसा वातावरण बनाना चाहिए जिसमें लोगों की सामाजिक व मनोवैज्ञानिक आवश्यकताएँ सन्तुष्ट हो सके ।

इसके लिए यह जरूरी है कि प्रबन्धक एक प्रभावी नेता हो तथा नेतृत्व की सर्वोत्तम शैली लोकतांन्त्रिक-सहभागी हो व्यवहारवादी विज्ञान विचारधारा कर्मचारी का एक जटिल मनुष्य (Complex Man) अथवा ”आत्म-विकास मनुष्य’ (Self-Actualising Man) के रूप में अध्ययन करती है तथा इसकी मान्यता है कि आधुनिक मनुष्य कार्य, मानसिक सन्तुष्टि तथा आत्म-विकास से प्रेरित होता है ।

विशेषताएँ (Characteristics):

(i) यह विचारधारा व्यक्ति का एक “जटिल मनुष्य” अथवा “आत्म-विकास मनुष्य” के रूप में अध्ययन करती है तथा इसकी मान्यता है कि मानव व्यवहार अत्यन्त गतिशील है ।

(ii) यह विचारधारा व्यक्तिगत-व्यवहार, सामूहिक-व्यवहार तथा अन्तर-सामूहिक-व्यवहार का अध्ययन करती है ।

(iii) यह विचारधारा सामाजिक-मनोवैज्ञानिक सम्बन्धों के साथ-साथ वैज्ञानिक अनुसन्धान तथा विश्लेषण पर बल देती है ।

(iv) यह विचारधारा कार्य को महत्व देती है क्योंकि कार्य व्यक्ति की सन्तुष्टि का एक बहुत बड़ा साधन होता है ।

(v) यह विचारधारा विभिन्न व्यवहारवादी विज्ञानों के विचारों का प्रबन्ध में उपयोग करने पर बल देती है ।

(vi) यह विचारधारा संगठन के कर्मचारियों को अपनी योग्यता, कौशल (Skills) तथा अन्त: शक्ति (Potential) का पूर्ण उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है ।

मान्यताएँ (Assumptions):

इस विचारधारा की प्रमुख मान्यताएं निम्नलिखित हैं:

(i) संगठन एक सामाजिक-तकनीकी (Socio-Technical) प्रणाली है अर्थात् संगठन की सफलता में जितना योगदान मानव का है उतना तकनीक का भी है ।

(ii) मानव व्यवहार को वैज्ञानिक अनुसन्धानों एवं विश्लेषणों की सहायता से समझा जा सकता है तथा मापन-योग्य प्रमाप निर्धारित किए जा सकते हैं ।

(iii) कर्मचारियों की भावनाओं, योग्यताओं एवं आवश्यकताओं में भिन्नता पाई जाती है । इस भिन्नता को मान्यता दी जानी चाहिए ।

(iv) संगठन में मतभेद तथा सहयोग साथ-साथ पाए जाते है ।

(v) मानव व्यवहार को भौतिक सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभावों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है ।

(vi) संगठन के लक्ष्यों तथा व्यक्तिगत लक्ष्यों को एकीकृत किया जा सका है ।

(vii) औपचारिक संगठन में अनौपचारिक संगठन का पाया जाना स्वाभाविक बात है । प्रबन्ध को इसका महत्व समझना चाहिए तथा औपचारिक संगठन के साथ इसका एकीकरण किया जाना चाहिए ।

उपरोक्त मान्यताओं से स्पष्ट है कि व्यवहारवादी विचारधारा मानवीय सम्बन्ध विचारधारा का विस्तृत तथा सुधरा रूप है इस विचारधारा के मुख्य रूप से पाँच प्रयोग-क्षेत्र हैं:

(i) कर्मचारी-अभिप्रेरणा;

(ii) संगठन को तकनीकी प्रणाली के साथ-साथ सामाजिक प्रणाली के रूप में मानना;

(iii) नेतृत्व;

(iv) संचार; तथा

(v) मानव-संसाधन विकास ।

इस प्रकार, व्यवहारवादी विचारकों ने समूह गतिशीलता (Group Dynamism) अभिप्रेरणा, संचार तथा नेतृत्व के क्षेत्र में अपने योगदान से प्रबन्ध के सैद्धान्तिक ढाँचे को सुदृढ़ व समृद्ध बनाया है । इस विचारधारा द्वारा मानवीय दृष्टिकोण अपनाने, अनौपचारिकताओं को बढ़ावा देने, मतभेदों को सदैव ही अनुपयोगी न मानने, व्यक्तियों की भावनाओं, योग्यताओं तथा समझ में अन्तर पाए जाने की मान्यता प्रदान करने तथा मानव का वैज्ञानिक विश्लेषण करने के कारण इस विचारधारा की प्रशंसा की गई है ।

महत्व (Importance):

इस विचारधारा का महत्व निम्नलिखित है:

(i) यह विचारधारा मानवीय सम्बन्धों को समझने, उनमें सुधार लाने तथा उन्हें मजबूत करने में बड़ी सहायक सिद्ध होती है ।

(ii) यह विचारधारा मानवीय व्यवहार को समझने में भी सहायक हो सकती है एक कर्मचारी किस स्थिति में कैसा व्यवहार करता है, कर्मचारियों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए आदि बातों को समझने में यह विचारधारा उपयोगी सिद्ध होती है ।

(iii) यह विचारधारा कर्मचारियों को अभिप्रेरित (Motivate) करने में सहायता करती है क्योंकि यह विचारधारा कर्मचारियों में पाये जाने वाले असन्तोष के कारणों को तथा उनकी शिकायतों को दूर करती है ।

(iv) यह विचारधारा कर्मचारियों की सामाजिक एवं मानसिक आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने में सहायता करती है ।

(v) यह विचारधारा समूह गति विज्ञान के अध्ययन में भी सहायता करती है । किसी संस्था में समूह कैसे बनते हैं तथा व्यक्तियों के बीच किस प्रकार पारस्परिक क्रियाएँ (Interaction) होती हैं, आदि का अध्ययन करना सम्भव हो जाता है ।

आलोचनाएँ (Criticism):

(i) इस विचारधारा के आलोचकों का मानना है कि व्यवहार विज्ञान दृष्टिकोण सम्पूर्ण प्रबन्ध का दृष्टिकोण नहीं माना जा सकता है । इसे प्रयुक्त मनोविज्ञान (Applied Psychology) से ज्यादा कुछ कहना ठीक नहीं होगा ।

(ii) कुछ अन्य आलोचकों का मानना है कि व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाना सरल नहीं है तथा न ही विज्ञान जैसे प्रमाप (Standards) मानव व्यवहार के लिए निर्धारित किए जा सकते हैं ।

(iii) व्यवहारवादी विचारकों की आलोचना इसलिए भी की जाती है कि वे प्रबन्ध की एकीकृत (Unified) सैद्धान्तिक विचारधारा विकसित करने में असफल रहे हैं वे शास्त्रीय सिद्धान्तकारों की तरह ही संगठन को एक बन्द प्रणाली के रूप में सोचते हैं, जबकि वास्तव में संगठन एक खुली प्रणाली है ।

अन्य विचारकों द्वारा योगदान (Contribution by Other Thinkers):

इस विचारधारा के विकास में योगदान देने वाले कुछ प्रमुख प्रबन्ध विचारक इस प्रकार हैं:

(i) कुर्त लेविन का उल्लेखनीय योगदान है:

उनका परिवर्तन मॉडल, शक्ति-क्षेत्र विश्लेषण तथा “अभिलाषा स्तर” की अवधारणा ।

(ii) रेनसिस लिकर्ट ने प्रबन्ध नेतृत्व की चार शैलियों का निर्धारण किया यह प्रबन्ध जगत् में “लिकर्ट की चार प्रबन्ध प्रणाली” के नाम से विख्यात हैं जो इस प्रकार हैं:

प्रणाली-1 (System-1): शोषणात्मक निरकुंश (Exploitive Autocratic)

प्रणाली-2 (System-2): हितैषी निरंकुश (Benevolent Autocratic)

प्रणाली-3 (System-3): परामर्शात्मक (Consultative)

प्रणाली-4 (System-4) सहभागी-समूह (Participative Group)

लिकर्ट ने प्रणाली-4 को सर्वोत्तम बताया ।

लिकर्ट के अध्ययन का केन्द्र-बिन्दु मानव रहा है । उनके अनुसार, “व्यक्ति मशीन का पहिया नहीं है, अपितु मानव है ।”

(iii) डगलस मैक्ग्रेगर का मुख्य योगदान उनके द्वारा प्रतिपादित “एक्स’ (X) और “वाई’ (Y) विचारधाराएँ हैं । इन दोनों उंचार-धाराओं का अगले पृष्ठों में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है ।

(iv) क्रिस आर्गोरिस ने अनेक प्रबन्धकीय आयामों पर अपने सृजनात्मक विचार दिए है । उनकी अपरिपक्वता-परिपक्वता विचारधारा (Immaturity-Maturity Theory) तथा संगठन की विलय प्रक्रिया विचारधारा (Fusion Process Theory) अन्यन्त महत्वपूर्ण विचारधाराएँ मानी जाती हैं ।

(v) अब्राहम मास्लो का प्रमुख योगदान उनके द्वारा प्रतिपादित “आवश्यकता क्रमबद्धता विचारधारा” (Need-Hierarchy Theory) है । उनके अनुसार व्यक्ति एक निश्चित क्रम में अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है अर्थात् उनमें क्रमबद्धता पाई जाती है । एक व्यक्ति में कार्य के प्रति रुचि उत्पन्न करने के लिए उसकी एक के बाद दूसरी आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करना आवश्यक है । इस प्रकार व्यक्ति की असन्तुष्ट आवश्यकता ही उसे कार्य के लिए प्रेरित करती है ।

आवश्यकता सन्तुष्टि का क्रम इस प्रकार है:

(i) आधारभूत जीवन-निर्वाह की आवश्यकताएँ;

(ii) सुरक्षा की आवश्यकताएँ;

(iii) सामाजिक आवश्यकताएँ;

(iv) पद तथा सम्मान की आवश्यकताएँ; तथा

(v) आत्म-विकास की आवश्यकताएँ ।

गणितीय/प्रबन्ध विज्ञान विचारधारा,1950 (Mathematical/Management Science Approach, 1950):

इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्धकीय समस्याओं के विवेकपूर्ण निर्णय के लिए तथा विभिन्न परिस्थितियों की जाँच एवं समझ के लिए गणितीय आधार पर कुछ आदर्श (Model) तैयार किए जाते हैं जिससे समस्या का समाधान सरल ढंग से किया जा सके इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध एक तर्कपूर्ण प्रक्रिया है जिसे गणितीय आदर्शों तथा परिणामात्मक तथ्यों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है, जो मापन के योग्य है ।

इस विचारधारा का केन्द्र-बिन्दु विवेकपूर्ण आदर्श (Rationalistics Model) है । इस प्रकार, प्रबन्ध की गणितीय विचारधारा से अभिप्राय प्रबन्ध के क्षेत्र में गणितीय मॉडल्स (Models) एवं प्रक्रियाओं के प्रयोग करने से है ।

इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्ध के क्षेत्र में क्रियात्मक अनुसन्धान (Operational Research), रेखीय कार्यक्रम (Operational Research), मॉडल निर्माण (Model Building) खेल सिद्धान्त (Games Theory) आदि के प्रयोग पर बल दिया है । इस विचारधारा की मान्यता है कि सम्पूर्ण प्रबन्ध-नियोजन संगठन, निर्णयन अथवा नियन्त्रण एक तार्किक प्रक्रिया है जिसे गणितीय संकेतों, सूत्रों, समीकरणों (Equations) अथवा काल्पनिक मॉडलों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ।

इस विचारधारा का प्रबन्ध के क्षेत्र में बड़ी तीव्र गति से विकास हो रहा है । कम्प्यूटर्स भी इस विचारधारा को विकसित करने में महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं । इस विचारधारा के अनुसार, “यदि प्रबन्ध की किसी समस्या को गणितीय शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता तो वह समस्या व्यक्त करने के लायक ही नहीं है ।”

गणितीय विचारधारा प्रबन्ध की एक आधुनिक विचारधारा है, जिसका आजकल बड़ी तीव्र गति के साथ विकास हो रहा है । इस विचारधारा को विकसित करने का श्रेय क्रियात्मक अनुसन्धानकर्त्ताओं (Operational Researchers) और प्रणाली विश्लेषकों को जाता है । वे प्रबन्ध को “गणितीय प्रतिरूपों” (Mathematical Models) तथा प्रतिक्रियाओं के रूप में देखते है । निस्सन्देह, इस विचारधारा ने प्रबन्ध की अनेक जटिल समस्याओं के निराकरण में गणितीय उपकरणों का प्रयोग कर महत्वपूर्ण योगदान दिया है ।

इसने विशेषकर गुणवत्ता नियन्त्रण, इन्वेन्ट्री नियन्त्रण, उत्पादन-अनुसूचीयन, मशीन लदान, भंडारण परिचालन व संसाधन आबप्टन के क्षेत्र में सफलतापूर्वक गणितीय प्रतिरूपों का निर्माण किया है । परन्तु यह सब कुछ करते हुए इस विचारधारा ने प्रबन्ध के सैद्धान्तिक क्षेत्र में कोई योगदान नहीं दिया है । इसलिए इसे प्रबन्ध के सैद्धान्तिक स्कूल का दर्जा नहीं मिल पाता ।

अतएव कूंट्ज का कहना है कि- “गणित को प्रबन्ध का एक पृथक् सैद्धान्तिक स्कूल मानना कठिन है । इसे भौतिक शास्त्र में अवश्य पृथक स्कूल माना जा सकता है ।”

विशेषताएँ (Characteristics):

इस विचारधारा की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

(i) यह विचारधारा प्रबन्ध को एक तर्कपूर्ण प्रक्रिया मानती है तथा इसे गणितीय नमूनों या आदर्शों (Models) में व्यक्त किया जा सकता है ।

(ii) इस विचारधारा के अन्तर्गत समस्याओं को समझने के लिए औपचारिक “गणितीय मॉडल” तैयार किए जाते हैं ।

(iii) इस विचारधारा की यह मान्यता है कि प्रबन्धकीय समस्याओं का विश्लेषण अध्ययन तथा समाधान केवल गणितीय तकनीकों से ही किया जा सकता है ।

(iv) यह विचारधारा मानती है कि सम्पूर्ण प्रबन्धकीय समस्याओं को सूत्रों, समीकरणों तथा आँकड़ों में प्रस्तुत किया जा सकता है ।

(v) यह विचारधारा प्रबन्धकीय समस्याओं के विवेकपूर्ण निर्णयन पर बल देती है ।

(vi) यह विचारधारा मानती है कि, “यदि प्रबन्ध की किसी समस्या को गणितीय शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता तो वह समस्या व्यक्त करने के योग्य ही नहीं है ।”

(vii) इस विचारधारा के विकास में कम्प्यूटर्स महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं ।

(viii) आधुनिक प्रबन्ध के क्षेत्र में इस विचारधारा का अत्यधिक प्रभाव है क्योंकि आज से कुछ दशक पूर्व प्रबन्ध में गणितीय मॉडल्स का प्रयोग नहीं के बराबर था ।

इस विचारधारा के अन्तर्गत:

(i) सर्वप्रथम समस्या का पूर्व-निर्धारण किया जाता है;

(ii) तथ्यों का संग्रह तथा विश्लेषण किया जाता है;

(iii) गणितीय आदर्शों (Mathematical Models) का प्रयोग किया जाता है;

(iv) विशिष्ट वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग किया जाता है;

(v) आगत (Input) तथा निर्गत (Output) में आदर्श सम्बन्ध स्थापित करने पड़ते है तथा अन्तिम चरण में;

(vi) तथ्यात्मक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जाता है ।

लाभ (Merits):

(i) इस विचारधारा के आधार पर सम्पूर्ण व्यवस्था को इस तरह पेश किया जा सकता है जिससे उसे आसानी से समझा जा सकता है ।

(ii) आधुनिक तकनीकों को अपनाने तथा विवेकपूर्ण आदर्श प्रयोग किए जाने के कारण भी इस विचार-धारा को उपयोगी माना जाता है ।

(iii) इससे समस्याओं को व्यवस्थित तरीके से विचार करने तथा समझने में आसानी रहती है ।

(iv) इसका लाभ यह भी हे कि यह सम्पूर्ण व्यवस्था से चुने हुए घटकों पर एक साथ निर्णय करती है तथा सभी घटकों पर निर्णयन के प्रभावों की समीक्षा करती है ।

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