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इसके अन्तर्गत निम्नलिखित विचारधाराएँ आती हैं:

1. प्रणाली विचारधारा (System Theory School);

2. प्रासंगिकता विचारधारा (Contingency School);

1. प्रणाली विचारधारा, 1950 (System Theory School, 1950):

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प्रबन्ध की इस विचारधारा का उदय 1960 के आस-पास हुआ । इसने थोड़े समय में ही प्रबन्ध-साहित्य एवं व्यवहार में अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है । इस विचारधारा के प्रारम्भिक योगदान करने वालों में वॉन बरटेलनफी, लौरन्स हेण्डरसन, डब्ल्यू.जी. स्कॉट, डेनियल केज, राबर्ट केन, जे.डी. थामसन तथा कीनेथ बोल्डिग के नाम उल्लेखनीय हैं ।

यह एक ऐसी विचारधारा है जो समस्त क्रियाओं पर अलग-अलग विचार न करके समर्णता में देखती है । इस विचारधारा के अनुसार समस्त व्यावसायिक क्रियाओं को एकीकृत करके उनका अध्ययन करना चाहिए । इसके अन्तर्गत सम्पूर्ण प्रणाली को ध्यान में रख कर ही श्रेष्ठ प्रबन्धकीय निर्णय किए जा सकते हैं ।

फ्रैड लुथान्स (Fred Luthans) के अनुसार- “एक प्रणाली ऐसे तत्वों से मिलकर बनी है जो एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर निर्भर हैं तथा जब पारस्परिक-क्रिया करते हैं तो एकात्मक पूर्णता का निर्माण करते हैं ।”

इसी प्रकार ऑक्सफोर्ड डिआनरी के अनुसार- फम्बन्धित एवं अन्तनिर्भर वस्तुओं का ऐसा संयोजन जो जटिल इकाई का निर्माण करता है अथवा किसी योजना के आधार पर भिन्न-भिन्न भागों मैं बना एक व्यवस्थित समूह, प्रणाली कहलाता है ।

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मोरटेन ने भी लिखा है कि- “प्रणाली विभिन्न वस्तुओं या भागों का एक ऐसा संयुक्तिकरण या संयोजन है जिससे एक जटिल इकाई बनती है ।” बरलालान्फी अनुसार- “एक प्रणाली अनेक इकाइयों का समूह है जो परस्पर सम्बन्धित होती है ।”

उदाहरण के लिए मानव शरीर एक प्रणाली है जिसमें अनेक उप-प्रणालियाँ है जैसे:

(i) नाड़ी प्रणाली (Nerve System),

(ii) श्वास प्रणाली (Respirtory System), तथा

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(iii) पाचन प्रणाली (Digestive System) ।

ये सभी उप-प्रणालियाँ अपने-आप में पूर्ण प्रणालियाँ होनी हैं परन्तु इन सबका अपने-आप में अलग से कोई महत्व नहीं होता है । ये उप-प्रणालियाँ एक-दूसरे से प्रभावित होती हैं तथा अन्य उप-प्रणालियों को प्रभावित भी करती हैं तथा इनका प्रभाव सम्पूर्ण प्रणाली पर भी पड़ता है ।

इस प्रकार इस विचारधारा के अनुसार संगठन एक ऐसी प्रणाली है जिसकी अनेक उप-प्रणालियाँ होती है तथा उसका अपना वातावरण होना है । इस वातावरण से स्वयं संगठन तथा उसकी उप-प्रणालियाँ प्रभावित होती हैं तथा वातावरण को प्रभावित करती है । संगठन की सभी उप प्रणालियाँ (जैसे- उत्पाद, कर्मचारी, वित्त, विपणन आदि) एक-दूसरे से सम्बन्धित एवं परस्पर निर्भर तथा अन्तर्क्रियाशील होती हैं ।

यह विचारधारा संगठन को अलग-अलग विभागों, कार्यों एवं साधनों के रूप मैं नहीं देखतीं अपितु इसे एक “एकीकृत सम्पूर्णता” (Integrated Whole) अथवा संगठित इकाई के रूप में मानती हैं । उदाहरण: के लिए सामग्री उत्पादन विक्रय लागत-नियन्त्रण आदि कार्यों को करने के लिए अलग-अलग प्रणालियाँ अपनाई होती हैं ।

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ये प्रणालियाँ “समन्ध-प्रणाली” का हिस्सा होती हैं और प्रत्येक “उप-प्रणाली” दूसरी उप-प्रणाली को प्रभावित करती है इसलिए निर्णय लेते समय, योजना बनाते समय अथवा अन्य कार्य करते समय इन प्रणालियों की पारस्परिक क्रियाशीलता बने ध्यान में रखना चाहिए ।

प्रबन्ध प्रणाली के प्रकार (Types of System Management):

प्रबन्ध के क्षेत्र में दो प्रकार की प्रणालियाँ अपनाई जाती हैं:

बन्दप्रणाली में संस्था की सभी क्रियाओं पर प्रबन्ध का नियन्त्रण रहता है तथा संस्था का बाह्य वातावरण से कोई सम्बन्ध नहीं होता है । यह सूचना देने का कार्य करती है । इस प्रणाली को डब्ल्यू. आर. एशवी ने सूचना संकीर्ण (Information Tight) के नाम से सम्बोधित किया है ।

खुली प्रणाली में प्रबन्धकों का संस्था की सभी क्रियाओं पर पूर्ण नियन्त्रण नहीं रहता तथा यह बाह्य वातावरण से जुड़ी रहती है । इसका वातावरण से परस्पर सम्बन्ध होता है । यह अपने-आप को वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास करती है ।

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आधुनिक युग में, प्रबन्ध को एक प्रणाली के रूप में देखा जा रहा है और पिछले लगभग छ: दशकों से इसे प्रणाली के रूप में विश्लेषित करने का प्रयास किया जा रहा है । प्रबन्ध का प्रणाली के रूप में अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि प्रबन्ध एवं संगठन को विभिन्न अंगों-प्रत्यंगों में बाँट कर नहीं समझा जा सकता । जिस प्रकार डॉक्टर किसी रोगी की चिकित्सा करते समय उसकी सम्पूर्ण शारीरिक सरचना को ध्यान में रखता है, ठीक उसी प्रकार प्रबन्ध करने के लिए भी सम्पूर्ण संगठन को एक प्रणाली मान कर चलना होगा ।

सम्पूर्ण रूप में संस्था की क्रियाओं का अध्ययन करके तथा उन्हें ध्यान में रख कर प्रबन्ध करने को ही “प्रणालीबद्ध प्रबन्ध विचारधारा” (System Approach to Management) कहते हैं । इस प्रणाली विचारधारा की यह मान्यता है कि संगठन के सभी विभागों एवं उप-विभागों के व्येश्य अलग-अलग नहीं होते बल्कि सामान्य उद्देश्यों के ही अंग होते है अत: सम्पूर्ण प्रबन्ध को एक इकाई मान कर ही अध्ययन किया जाना चाहिए । यह विचारधारा सभी विभागों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने पर बल देती है तथा उनके विकास का भी पूरा अवसर देती है ।

आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञों का मानना है कि बड़े उद्योगों तथा व्यावसायिक संस्थाओं को अपनी जटिलताओं तथा समस्याओं का समाधान पाने के लिए प्रबन्ध प्रणाली-विचारधारा को अपनाना चाहिए जानसन एवं कास्ट के अनुसार- “प्रबन्ध के अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक बनाने के लिए प्रणाली विश्लेषण विचारधारा को प्रमुख तकनीक के रूप में अपनाया जाना चाहिए ।”

यहाँ यह बात बता देना उचित होगा कि- “प्रबन्ध की प्रणाली विचारधारा सभी क्रियाओं के एकीकरण एवं समन्वय पर तो बल देती ही है, साथ ही यह उप-प्रणालियों के पूर्ण विकास की ओर भी ध्यान देती हे ।”

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प्रणाली को निम्न चित्र द्वारा दर्शाया गया है:

विशेषताएँ (Characteristics):

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प्रणाली विचारधारा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

(i) संगठन एक प्रणाली है जिसमें अनेक उप-प्रणालियाँ होती हैं ।

(ii) सभी उप-प्रणालियाँ स्वतन्त्र होते हुए भी एक-दूसरे से सम्बन्धित होती हैं तथा एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं ।

(iii) इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धक संगठन को एक “एकीकृत प्रणाली” (Unified System) मानकर प्रबन्ध करते हैं अर्थात् यह विचारधारा संस्था के सभी पहलुओं पर एक साथ विचार करती है ।

(iv) इस विचारधारा के समर्थक संगठन को खुली प्रणाली (Open System) मानते हैं जो बाह्य वातावरण से जुड़ी हुई होती है ।

(v) इस विचारधारा के अन्तर्गत संगठन अपने-आप को वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयास करता है ।

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(vi) यह प्रणाली संगठन को बहु-आयामी (Multi-Dimensional), बहु-स्तरीय (Multi-Levels) तथा अनेक तत्वों से युक्त मानती है ।

मूल्यांकन (Evaluation):

यह विचारधारा प्रबन्ध की विभिन्न समस्याओं को समझने तथा उनका समाधान करने के लिए एक सुदृढ़ आधार प्रस्तुत करती है, इसलिए प्रबन्ध विद्वानों ने इसकी सराहना की है । यह विचारधारा प्रबन्ध को प्रभावित करने वाले तत्वों तथा वातावरण के घटकों को समझने में सहायता देती है ।

प्रबन्ध को प्रणाली के रूप में देखने से उपक्रम को समग्र रूप से समझा जा सकता है उपक्रम तथा इसके प्रबन्ध को प्रभावित करने वाले विभिन्न घटकों का एकीकृत ढंग से विश्लेषण किया जा सकता है इससे उपक्रम की आन्तरिक एवं बाह्य प्रणालियों के बीच समन्वय स्थापित करना सरल हो जाता है ।

प्रबन्ध के सम्पूर्ण संगठन को एक प्रणाली मान कर कार्य करने से कार्य में एकरूपता आती है संगठन की क्रियाओं पर नियन्त्रण स्थापित करने में आसानी रहती है । सम्पूर्ण संगठन का ध्यान एक केन्द्रीय उद्देश्य की ओर लगा रहता है जिससे उस उद्देश्य की प्राप्ति में सुविधा रहती है । संगठन के प्रत्येक भाग पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है । अत: कुशल तथा प्रभावी प्रबन्ध की दृष्टि से प्रबन्ध को प्रणाली के रूप में देखना तर्कसंगत कहा जा सकता है ।

अनेक आलोचकों ने इस विचारधारा की आलोचना की है, प्रणाली विचारधारा वातावरण के घटकों का प्रबन्ध प्रक्रिया के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में असमर्थ है क्योंकि विभिन्न प्रणालियों तथा उप-प्रणालियों के आपसी प्रभावों का उचित अध्ययन करना सम्भव नहीं होता ।

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यह प्रबन्ध की किसी तकनीक का वर्णन नहीं करती है और न ही यह अन्तर-निर्भरता की प्रकृति को स्पष्ट करती है । अत: यह कहा जा सकता है, कि प्रबन्ध प्रणाली विचारधारा सभी प्रकार के संगठनों पर समान रूप से लागू नहीं की जा सकती । इसे सर्व-व्यापक नहीं माना जाता है । आलोचकों के अनुसार यह विचारधारा अमूर्त एवं संदिग्ध है । इस विचारधारा से प्रबन्धकीय समस्याओं के समाधान में प्रत्यक्ष रूप से सहायता नहीं मिलती ।

2. प्रासंगिकता विचारधारा, 1970 (The Contingency School, 1970):

इस विचारधारा का विकास मुख्य रूप से 1970 के दशक में हुआ है । यह विचारधारा यह स्पष्ट करती है कि- “संगठन की रूपरेखा तथा प्रबन्धकीय कार्यवाही विद्यमान परिस्थितियों के अनुकूल होनी चाहिए ।” इसमें, “यदि यह स्थिति है तो यह प्रबन्धकीय कार्य करना होगा” स्पष्ट किया जाता है यह विचारधारा इस बात पर बल देती है कि संगठनों की रूपरेखा बनाने तथा उनका प्रबन्ध करने की कोई एक सर्वश्रेष्ठ विधि नहीं होती है ।

प्रबन्ध स्थिति मूलक होता है । इसलिए प्रबन्धकों को विद्यमान वातावरण की दशाओं के अनुसार संगठनों की रूपरेखा बनानी चाहिए । उद्देश्यों को परिभाषित करना चाहिए तथा व्यूह रचनाओं नीतियों व योजनाओं का निर्माण करना चाहिए । इस प्रकार यह विचारधारा पूर्व-निर्धारित सिद्धान्तों दृष्टान्तों, प्रक्रियाओं, तकनीकों आदि की सर्वव्यापकता को नहीं मानती, बल्कि वास्तविकताओं के अनुकूल कार्य करने पर बल देती है ।

इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध करने की कोई एक सर्वोत्तम विधि नहीं है, अपितु सब कुछ परिस्थिति पर निर्भर करता है । अतएव, प्रबन्धक वहीविधि या मार्ग अपनाता है जो विद्यमान परिस्थिति में प्रासंगिक होता है अर्थात् जो समय की माँग होती है । प्रबन्ध की सफलता परिस्थितियों व दशाओं के व्यवहार को समझने तथा उसके अनुरूप कार्य करने पर निर्भर है ।

इस प्रकार प्रबन्धक के कार्य एवं निर्णय तत्कालीन परिस्थितियों से प्रभावित होते हैं । अतएव एक प्रबन्धक प्रबन्ध की कौन-सी तकनीक अपनाए, इसका फैसला उसे अपनी परिस्थितियां प्रसंगों आकस्मिक घटनाओं तथा सम्भावित प्रवृत्तियों को ध्यान में रख कर करना होता है । यह विचारधारा अनेक नामों से जानी जाती है जैसे-परिस्थितिगत, संयोगिक प्रासंगिक आकस्मिकता आदि ।

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यह प्रबन्ध की सबसे आधुनिक विचारधारा मानी जाती है इस विचारधारा का विकास मुख्य रूप से टीम बर्न्स जी डब्ल्यू स्टाकर, पाल लारेन्स जॉन वुडवर्ड, जेम्स थाम्पसन आदि विद्वानों ने किया है आधुनिक प्रबन्ध विशेषज्ञों के मतानुसार व्यावसायिक सगठनों के लिए आकस्मिकता विचारधारा सर्वोत्तम है ।

इसके अन्तर्गत प्रबन्धक पहले परिस्थिति का व्यापक अध्ययन करता है, विभिन्न घटकों, विचलनों की पहचान करता है तथा उनका विश्लेषण करता है, परिस्थितियों की माँग को समझता है । इसके पश्चात् अनुकूल निर्णय लेता है ।

विशेषताएँ (Characteristics):

इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) प्रबन्धक की प्रत्येक कार्यवाही परिस्थिति पर निर्भर करती है ।

(ii) इस विचारधारा के अनुसार प्रबन्ध परिस्थिति मूलक या संयोगिक है ।

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(iii) इस विचार में- “यदि यह स्थिति है तो यह प्रबन्धकीय कार्य करना होगा” अर्थात् प्रत्येक सिद्धान्त एवं तकनीक को अपनाते समय, तत्कालीन परिस्थितियों, प्रसंगों, संयोगिक घटनाओं आदि को ध्यान में रखना होता है । संगठन का वातावरण से समन्वय आवश्यक होता है ।

(iv) यह विचारधारा प्रबन्ध को वातावरण से जोड़ती है ।

(v) इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धक को केवल वर्तमान परिस्थितियों को ही ध्यान में नहीं रखना होता, बल्कि उन भावी दशाओं पर भी ध्यान देना होता है जो उन निर्णयों को लागू करने के समय उत्पन्न होंगी ।

(vi) इसके अन्तर्गत प्रबन्धक वैसा कार्य करते हैं जो परिस्थिति की मांग के अनुकूल होता है ।

(vii) इस विचारधारा के अन्तर्गत नेतृत्व की कोई एक शैली (Style) सभी परिस्थितियों में उपयुक्त नहीं हो सकती ।

मूल्यांकन (Evaluation):

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लाभ (Merits): प्रासंगिकता विचारधारा के प्रमुख लाभ निम्नवत् हैं:

(i) यह एक बहुत ही व्यावहारिक विचारधारा है क्योंकि यह वास्तविकताओं के अनुकूल कार्य करने पर बल देती है । यह प्रबन्ध की को परिस्थिति की जटिलताओं के प्रति सचेत करती है तथा उन्हें श्रेष्ठ निर्णय लेने में सहायता करती है ।

(ii) यह विचारधारा परिस्थिति के जोखिमों, अनिश्चितताओं तथा दुष्प्रभावों से संगठन की रक्षा करती है ।

(iii) यह विचारधारा प्रबन्ध के सिद्धान्त एवं व्यवहार के बीच पाए जाने वाले अन्तर की खाई को पाटती है तथा स्थिति का वास्तविक मूल्यांकन करती है ।

(iv) इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धकी को कार्य करने तथा निर्णय लेने की अधिक स्वतन्त्रता होती है ।

(v) इस विचारधारा की सहायता से प्रबन्धक ऐसी क्रियाओं तथा विधियों को तैयार कर सकते है जो सम्बन्धित परिस्थितियों में सर्वाधिक उपयुक्तका ही ।

(vi) इस विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्धक लेस निर्णय लेने में सक्षम होते हैं ।

(vii) यह विवारधारा प्रबन्धकों को परिस्थितियों की भिन्नता तथा जटिलता के प्रति सचेत करती है ।

सारांश में, इस विचारधारा का उपयोग मोर्चाबन्दी करने, प्रभावी संगठन की संरचना करने, अभिप्रेरण तथा नेतृत्य का प्रारूप निर्धारित करने सूचना पद्धति का नियोजन करने, प्रबन्ध के क्षेत्र में परिवर्तन करने आदि में किया जा सकता है ।

दोष अथवा सीमाएँ (Demerits or Limitations):

विचारधारा के निम्नलिखित दोष या सीमाएँ है:

(i) कई विद्वान् इस विचारधारा को प्रबन्ध की एक अलग विचारधारा नहीं मानते । उनके अनुसार प्रत्येक प्रबन्धक अपने ज्ञान एवं चातुर्य का उपयोग परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए करता है ।

(ii) कुछ-विद्वान-से अत्यन्त जटिल पद्धति मानते हैं । उनके अनुसार परिस्थितियों का अध्ययन एवं विश्लेषण करना, समय की मांग एवं व्यक्तियों की आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त करना, अत्यन्त कठिन है और इनके सही ज्ञान के अभाव में इस विचारधारा को लागू करना संभव नहीं है ।

(iii) परिस्थितियों तथा वातावरण में इतनी तेजी से परिवर्तन होते रहते है कि उनका पूरी तरह समझ पाना कठिन होता है । इन परिवर्तनों को केवल उच्च स्तर की योग्यता वाले प्रबन्धक ही समझ सकते हैं तथा इनके साथ तालमेल बैठने में समर्थ होते हैं । साधारण योग्यता रखने वाले प्रबन्धकी के लिए यह विचारधारा उपयोगी नहीं है ।

उपरोक्त सीमाओं के होते हुए भी यह कहना न्यायसंगत होगा कि प्रबन्धकों की सफलता का सार उपक्रमों को परिस्थितिगत या प्रासंगिक विचारधारा के अन्तर्गत प्रबन्ध करने में निहित है ।

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