Read this article in Hindi to learn about the industrial code of discipline.

अनेक श्रम कानून लागू होने के पश्चात् भी भारतीय परिदृश्य विविध जटिल न्यायिक औपचारिकताओं तथा कानूनी दावपेंचों से ग्रस्त है, तथा न्यायालय ने औद्योगिक विवादों में न्याय प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, औद्योगिक सम्बन्धों का परिदृश्य शान्तिपूर्ण नहीं रहा है ।

श्रम-प्रबन्ध सम्बन्ध मधुर नहीं रहे हैं, तथा प्रत्याशित श्रमिकों की भागीदारी अभी पर्याप्तत: प्राप्त नहीं हो पायी है, एक लेखक ने ठीक ही कहा है: ”जबकि स्वयं विधान ने औद्योगिक श्रमिकों को अनेक सम्पूष्ट लाभों की व्यवस्था की है, श्रम न्याय प्रक्रिया की देरियों ने इन लाभों की प्रभावोत्पादकता को कम किया है ।”

अत: वैधानिक उपायों के अतिरिक्त अन्य कुछ उपायों हेतु आवश्यकता को प्रबन्ध तथा श्रमिकों दोनो ही के द्वारा महसूस किया गया है ।

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द्वितीय योजना में कहा गया था “अपने विभिन्न पहलुओं में औद्योगिक अनुशासन का सम्पूर्ण मुद्दा भली प्रकार देखा जाना चाहिए तथा इसी बीच पक्षकारों को देखना चाहिए कि अनुशासनहीनता के प्रति प्रवृत्तियों का दृढ़ता से मुकाबला किया जाना चाहिए । जबकि कठोर अनुशासन का अवलोकन, श्रम तथा प्रबन्ध दोनों ही की ओर से एक ऐसा विषय है, जिसका पालन कानून द्वारा नहीं कराया जा सकता है । इसको वैधानिक या अन्यथा अपने-अपने कुछ निजी चरणों पर उपयुक्त रोक लगाकर सेवायोजकों तथा श्रमिकों के सगठनों द्वारा प्राप्त किया जाना होता है ।”

इस सुझाव की तामील में, पन्द्रहवीं Indian Labour Conference को जुलाई 1957 में आयोजित किया गया जिसने उद्योग में अनुशासन के प्रश्न पर विचार किया तथा निम्न सिद्धान्तों का सूत्रपात किया:

(i) बिना नोटिस के कोई हड़ताल या तालाबन्दी नहीं होनी चाहिए ।

(ii) किन्हीं औद्योगिक मामलों के सम्बन्ध में कोई एक पक्षीय कार्यवाही नहीं की जानी चाहिए |

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(iii) Go-Slow tactics के प्रति किसी भी प्रकार का कोई बचाव नहीं होना चाहिए |

(iv) संयंत्र अथवा सम्पत्ति को किसी भी प्रकार की सविचार क्षति नहीं पहुँचायी जानी चाहिए |

(v) हिंसा, दमन, उत्पीड़न या भड़काने की गतिविधियों का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए |

(vi) विवादों के निपटारे की विद्यमान प्रणाली को काम लाया जाना चाहिए |

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(vii) निर्णयों तथा समझौतों को शघ्रितापूर्वक क्रियान्वित किया जाना चाहिए |

(viii) कोई भी ऐसा ठहराव जो सौहार्द्रपूर्ण औद्योगिक सम्बन्धों में कटुता उत्पन्न करे त्याग दिया जाना चाहिए |

बाद में इन सिद्धान्तों पर एक उपसमिति द्वारा विचार किया गया तथा उसमें कुछ संशोधनों के साथ Code of Discipline की रचना की गई । यह 1 जून 1958 से लाए कर दिया गया ।

इसको चारों Central National Labour Organisation (INTUC, AITUC, HMS तथा UTUC) द्वारा श्रमिकों की ओर से तथा Employers’ Federation of India, The All India Organization of Industrial Employers तथा All India Manufactures’ Organization द्वारा सेवायोजकों की ओर से स्वीकार कर लिया गया ।

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अपने प्रथम प्रखण्ड में यह कोई सेवायोजकों श्रमिकों तथा यहाँ तक कि सरकार के कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की व्याख्या करता है । दूसरे प्रखण्ड में प्रबन्ध तथा यूनियनों के सामान्य दायित्व के सूचीबद्ध किया गया है । तीसरा प्रखण्ड केवल प्रबन्ध के दायित्वों की बात करता है, जबकि चौथा प्रखण्ड केवल यूनियन के दायित्वों का ही वर्णन करता है ।

Code के प्रति दो Annexures हैं । Annexure-A यूनियनों की मान्यता हेतु मानदण्डों पर राष्ट्रीय स्तरीय ठहराव का समावेश है, जबकि Annexure-B मान्य यूनियन के अधिकारों का वर्णन करता है ।

The Code of Discipline एक सरकार- अभिप्रेरित आत्म-बाधित तथा पारस्परिक तौर पर अनुबन्धित अनुशासन का स्वैच्छिक सिद्धान्त है, जो उद्योग में श्रमिकों तथा प्रबन्ध के बीच सम्बन्धों को स्पष्ट करता है ।

यह समझौते पारस्परिक विचार विनियम स्वैच्छिक पंचनिर्णय (किसी बाहरी संस्था के हस्तक्षेप के बिना) तथा न्यायीकरण के माध्यम से विवादों के स्वैच्छिक तथा पारस्परिक निपटारे की व्यवस्था द्वारा विवादों को रोकने का उद्देश्य लेकर चलता है ।

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यह दोनों ही पक्षकारों को एक पक्षीय निर्णय लेने की मनाही करता है, लेकिन यह उनको अभिप्रेरित करता है, कि अत्यधिक चेष्टा के साथ विवादों के निपटारे के लिए विद्यमान व्यवस्था का सर्वोच्च उपयोग करे ।

यह संहिता पक्षकारों को निर्देश देती है, कि बिना नोटिस के तथा किन्हीं सम्भावित गलतफहमियों या विवादों के स्वैच्छिक पारस्परिक समाधान के लिए क्षेत्रों की खोजे बिना हड़तालों या तालाबन्दियों में लिप्त न हों ।

अनुशासन की यह संहिता अपेक्षा करती है, कि श्रमिकों तथा प्रबन्ध के बीच सभी स्तरों पर रचनात्मक सहयोग प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । हिंसा, प्रदर्शन, दमन, सताने, उत्पीड़न, भेदभाव, यूनियन की गतिविधियों या सामान्य काम में श्रमिकों द्वारा या प्रबन्ध द्वारा हस्तक्षेप के लिए कोई स्थान नहीं है । किसी भी पक्षकार को अनुचित श्रम व्यवहारों का सहारा नहीं लेना चाहिए जैसे Go Slow, Stay-in-strike या Sit-down tactics अथवा मुकदमेबाजी ।

यह प्रबन्ध से अपेक्षा करती है, कि शिकायतों के निदान हेतु तथा निर्णयों एवं समझौतों के क्रियान्वयन हेतु तत्पर कार्यवाही करे कोई भी कार्यवाही जो सौहार्द्रपूर्ण सम्बन्ध के रास्ते में आती है, तथा प्रबन्ध तथा ट्रेड यूनियनों दोनों ही की ओर से कोड की भावना के विरुद्ध है, परे रखी जानी चाहिए ।

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केन्द्र तथा राज्य दोनों ही सरकारों को उस तंत्र व्यवस्था में किसी भी कमी को दूर करना चाहिए जिसका श्रम कानूनों के प्रशासन हेतु गठन किया गया है । सेवायोजकों से अपेक्षा की जाती है, कि उद्योग या संस्थान में बहुसंख्यक यूनियन को मान्यता दें तथा पारस्परिक तौर पर सहमत परिवेदना प्रक्रिया की स्थापना करें जो विवादों के पूर्ण अनुसंधान को सुनिश्चित करे तथा समाधान की ओर ले जाये ।

The Code of Discipline बताता है,

उद्योग में, सार्वजनिक तथा निजी दोनों ही क्षेत्रों में अनुशासन बनाये रखने के लिए:

(i) सन्नियम द्वारा समझौतों के अनुसार (जिनको समय-समय पर विभिन्न स्तरों पर किया गया है) व्यक्त प्रत्येक पक्षकार के अधिकारों तथा दायित्वों की सेवायोजकों तथा श्रमिकों द्वारा उचित मान्यता तथा

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(ii) ऐसी मान्यता के उपरान्त अपने दायित्वों का प्रत्येक पक्षकार द्वारा उचित तथा स्वैच्छिक निर्वहन ।

(1) अनुशासन बनाये रखना (To Maintain Discipline):

भारतीय अनुशासन संहिता की प्रमुख विशेषता अनुशासन स्थापित करने की थी । इसके अन्तर्गत निजी व सार्वजनिक उद्योगों में अनुशासन बनाये रखने के लिए नियोक्ताओं और श्रमिकों द्वारा परस्पर एक-दूसरे के नियमों का पालन करने का दायित्व सौंपा गया ।

(2) प्रबन्ध एवं श्रम संघोंकी सहमति (Consent of Management and Trade Union):

इस संहिता के अन्तर्गत यह व्यवस्था भी की गई कि प्रबन्ध एवं श्रम संघ अनुशासन की स्थापना के लिए निम्नलिखित बातों पर एकमत होंगे:

(i) किसी भी पक्ष द्वारा एक पक्षीय कार्यवाही नहीं की जायेगी ।

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(ii) प्रत्येक विवाद का हल औद्योगिक विवाद अधिनियम द्वारा सुलझाया जाना चाहिए ।

(iii) तालाबन्दी या हड़ताल पूर्व सूचना के अभाव में नहीं होनी चाहिए ।

(iv) किसी पक्ष द्वारा उत्पीड़न धमकी अत्याचार तथा धीमी गति से कार्य करने की प्रवृत्तियों को नहीं अपनाया जायेगा ।

(v) दोनों पक्ष विवाद निवारण पद्धति बनाकर उसका पालन करेंगे ।

(3) प्रबन्ध की सहमति (Management’s Consent):

इस संहिता मे प्रबन्ध निम्न बातों के प्रति अपनी सहमति प्रकट करता है:

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(i) श्रमिक की सहमति के बिना उसके कार्य भार में वृद्धि नहीं की जायेगी ।

(ii) शिकायतों के हल हेतु निर्णयों आदेशों एवं निपटारों के लिए तत्काल कदम उठाये जायेंगे ।

(iii) संहिता के प्रावधानों को स्थानीय भाषा में उद्योग के अन्दर उल्लिखित किया जायेगा ।

(iv) सेवा निष्कासन चेतावनी मुअत्तिली आदि को स्पष्ट करते हुए उनके विरुद्ध अपील अथवा सुनवाई का अवसर दिया जायेगा ।

(v) ऐसे अधिकारी जो अनुशासन भंग करते हैं, या भंग करने में सहायता देते हैं, उनके विरुद्ध भी कार्यवाही की जायेगी ।

(4) श्रमिक संघों की सहमति (Trade Union’s Consent):

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इस अनुशासन संहिता में यह भी व्यवस्था है, कि निम्न बातों पर श्रमिक-संघों को अपनी सहमति देना आवश्यक है:

(i) श्रम-संघ किसी भी प्रकार के शारीरिक बल अथवा उत्पीड़न को नहीं अपनायेंगे ।

(ii) अशान्ति फैलाने वाले प्रदर्शनों को अनुमति नहीं देंगे ।

(iii) कार्य-उपेक्षा, लापरवाही, सम्पत्ति को क्षति पहुँचाने वाली अनुचित कार्यवाहियों को प्रोत्साहित नहीं करेंगे ।

(iv) प्रबन्ध को परिनिर्णयों निर्णय अनुबन्धों एवं कानून के क्रियान्वयन में सहायता देंगे ।

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(v) सहिता के विरुद्ध कार्य वाले संघ के पदाधिकारियों पर कार्यवाही करेंगे ।

यद्यपि उपर्युका अनुशासन संहिता का निर्माण तो हो चुका है, किन्तु भारत में श्रमिक संघ अथवा नियोजक दोनों में से कोई भी पक्ष इसका पालन नहीं कर रहा है । हम आज भी देखते हैं । कि हड़तालों, तालाबन्दी, घिराव, कार्य उपेक्षा, आदि सामान्य बातें हो गयी हैं । अत: यह कहा जा सकता है, कि दोनों पक्षों द्वारा आचरण संहिता को शाब्दिक रूप में तो स्वीकार कर लिया गया है, किन्तु इसे आचरण में नहीं उतारा है ।

अनुशासन बनाना (Maintaining Discipline):

कार्यस्थल पर कर्मचारियों में अनुशासन बनाये रखने के लिए आदर्श सिद्धान्तों का पालन करना चाहिये । अनुशासन बनाने के तरीके उचित समान तथा कर्मचारी एवं नियोक्ता दोनों को मान्य होना चाहिए ।

कार्यस्थल पर अनुशासन बनाए रखने के कुछ सुझावात्मक पहलू निम्नवत् हैं:

(1) कर्मचारी प्रतिनिधियों से सलाह मशवरा करके ही अनुशासन बनाने के नियमों एवं प्रावधानों को बनाना चाहिये ।

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(2) कर्मचारी को व्यवहार परिवर्तन का अवसर देना चाहिये । कुछ समय पश्चात् पहले की गलतियों को माफ कर देना चाहिये ।

(3) कर्मचारियों को नियमों की जानकारी रहनी चाहिए अन्तराल के पश्चात् नियमों को पुन: बताना चाहिये ।

(4) नियमों को कठोर नहीं बनाना चाहिए बल्कि वे परिस्थितियों एवं काम के अनुसार परिवर्तित हो सकें ।

(5) नियमों के पालन में समानता होनी चाहिए । नियम के सम्मुख सभी लोगों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए ।

(6) नियमों का पालन न करने वाले कर्मचारी को छूट नहीं दी जानी चाहिए । बल्कि नियम तोड़ने वाले के साथ सख्ती से पेश आना चाहिए ।

(7) यह ध्यान रहे कि नियमों का उद्देश्य अनुशासनहीनता रोकना है । यह कर्मचारियों को परेशान करने हेतु नहीं है ।

(8) गहन अनुशासनहीनता पर दण्डित करने हेतु समितिका गठन करना चाहिए । समिति को निष्पक्ष भावना से काम करना चाहिए ।

(9) अनुशासनात्मक कार्यवाही में अपील करने का प्रावधान होना चाहिए ताकि उसका पुनरावलोकन किया जा सके ।

उपर्युका कदम अनुशानहीनता रोकने तथा अनुशासन कायम करने में महत्ती भूमिका अदा कर सकते हैं ।