प्रबंधन पर निबंध: अर्थ, उद्देश्य और सीमाएं  | Here is an essay on ‘Management’ for class 11 and 12. Find paragraphs, long and short essays on ‘Management’ especially written for college and management students in Hindi language.

Essay on Management


Essay Contents:

  1. प्रबन्ध का अर्थ (Meaning of Management)
  2. प्रबन्ध की विशेषताएं अधवा लक्षण (Characteristics or Features of Management)
  3. प्रबन्ध के उद्देश्य (Objectives of Management)
  4. भारत में प्रबन्ध का महत्व (Importance of Management in India)
  5. प्रबन्ध का क्षेत्र (Scope of Management)
  6. प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Management)
  7. प्रबन्ध की सीमाएं (Limitations of Management)

Essay # 1. प्रबन्ध का अर्थ (Meaning of Management):

प्रबन्ध सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानवीय क्रियाओं में से एक है । यह सभी प्रकार की सामूहिक व संगठित क्रियाओं को एकीकृत करने की शक्ति है उद्योग तथा व्यवसाय स्थापित किए जाने के बाद प्रवर्त्तकों के सामने महत्वपूर्ण समस्या उनके प्रबन्ध की आती है ।

मानव समाज की सभी क्रियाएँ चाहे वे आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अथवा शैक्षणिक हों प्रबन्ध इन सभी के सचालन में महत्वपूर्ण योगदान देता है आज के व्यावसायिक व औद्योगिक युग में प्रबन्ध एक जीवनदायनी तत्व (Life-Giving Elements) माना जाता है क्योंकि इसके बिना उत्पादन के साधन (भूमि, श्रम, पूँजी, यन्त्र आदि) केवल साधन मात्र ही रह जाते हैं, उत्पादक नहीं बन पाते ।

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इसलिए यह कहना सर्वथा उचित होगा कि जहाँ प्रबन्ध है, वहाँ व्यवस्था, अनुशासन, दक्षता, निर्माण कार्य एवं दर्शन होते हैं । इसके विपरीत, प्रबन्ध के अभाव में अव्यवस्था, कुशासन, अकुशलता, अपव्यय तथा गन्दगी ही दृष्टिगोचर होती है ।

जब भी मानव के सामने लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रश्न उत्पन्न होता है, तभी प्रबन्ध एक महत्वपूर्ण तत्व बनकर सामने उपस्थित हो जाता है । इसलिए “प्रबन्ध एक ऐसा साधन है जो प्रत्येक द्वारा लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है” |

लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए केवल साधनों को जुटा लेना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि योजना बनाना, विभिन्न व्यक्तियों के प्रयास द्वारा उन साधनों का कुशलतम तथा मितव्ययी प्रयोग करना भी आवश्यक है और यह कार्य केवल एक कुशल प्रबन्धक द्वारा ही सम्भव हो सकता है ।

न्यूमैन एवं समर लिखते हैं कि “प्रबन्धकों की समाज को महत्वपूर्ण देन है: वे उपभोक्ताओं की आवश्यकताओं को पूरा करते हैं, कर्मचारियों को कार्य प्रदान करते हैं जिससे उन्हें अच्छा जीवन-स्तर प्राप्त होता है, पूर्तिकर्ताओं को अपने लिए बाजार उपलब्ध हो जाता है तथा सरकार को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों के साधन प्राप्त हो जाते हैं ।”

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अतएव “प्रबन्ध एक शक्ति है जो किसी व्यवसाय को संचालित करती है, तथा उसकी सफलता अथवा असक्लता के लिए उत्तरदायी होती है” | (Management is the Force that Runs the Business and is Responsible for its Success or Failure.) यह एक सामाजिक प्रक्रिया है जो किसी व्यावसायिक संगठन के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय तथा गैर-मानवीय साधनों का नियोजन, संगठन, समन्वय, निर्देशन तथा नियन्त्रण करती है । संगठित रूप से की जाने वाली सभी सामाजिक क्रियाओं की सफलता में प्रबन्ध की केन्द्रीय भूमिका होती है ।

अमेरिकन सोसाइटी ऑफ मैकेनिकल इन्वीनियर्स ने इस बात पर बल दिया है कि प्रबन्ध का अन्तिम लक्ष्य व्यक्तियों के कल्याण के लिए कार्य करना है । “प्रबन्ध मनुष्य के लाभार्थ प्राकृतिक साधनों का उपयोग एवं मानवीय प्रयासों के संगठन व निर्देशन की कला तथा विज्ञान है ।”

प्रबन्ध औपचारिक विषय के रूप में काफी नवीन है । इसलिए इसकी अभी तक किसी सर्वमान्य शब्दावली का विकास नहीं किया जा सका । विभिन्न विद्वानों तथा सस्थानों ने अपने-अपने दृष्टिकोणों तथा विश्वासों के अनुसार प्रबन्ध को समझने तथा समझाने का प्रयास किया है ।

परिणामस्वरूप, प्रबन्ध आज अनेक अर्थों में जाना जाता है । अर्थशास्त्री प्रबन्ध को उत्पादन का एक घटक मानते हैं जबकि समाजशास्त्री इसे एक वर्ग या व्यक्तियों का समूह मानते हैं । प्रबन्धशास्त्रियों के अनुसार- प्रबन्ध एक प्रक्रिया हैं तथा इसे एक शास्त्र या अध्ययन के क्षेत्र (Discipline or Field of Study) के रूप में भी देखा जा सकता है ।

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कुछ विद्वान् इसका संकुचित अर्थै लगाते हैं तो कुछ व्यापक अर्थ लगाते हैं । संकुचित अर्थ में, “प्रबन्ध दूसरे व्यक्तियों से कार्य करवाने की युक्ति है ।” इसके अनुसार, वह व्यक्ति जो दूसरे व्यक्तियों से कार्य करवाता है, प्रबन्धक कहलाता है । व्यापक अर्थ में- “प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के विभिन्न मानवीय प्रयासों से सम्बन्ध रखता है ।”

इस अर्थ में ये कार्य शामिल किए जाते है नियोजन, संगठन, समन्वय निर्देशन, अभिप्रेरणा, नियन्त्रण आदि । इसी अर्थ में, प्रबन्ध को कार्यों के निष्पादन की एक गतिशील प्रक्रिया तथा मानव के विकास का आधार भी माना जाता है ।

थियो हैमन (Theo Haimann) ने प्रबन्ध का वर्णन निम्नलिखित तीन अर्थों में किया है:

(i) प्रबन्ध अधिकारियों के अर्थ में (Management as Managerial Personnel),

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(ii) प्रबन्ध विज्ञान के अर्थ में (Management as a Science) तथा

(iii) प्रबन्ध प्रक्रिया के अर्थ में (Management as a Process) ।

अत: जब हम व्यवसाय प्रबन्धन का अध्ययन करते हैं तो हमारा आशय इन तीनों से ही होता है ।

मानव (कर्मचारी), मशीन, माल, मुद्रा बाजार एवं प्रबन्ध (Men, Machine, Material, Money, Market & Management) व्यावसायिक संगठन के छ: प्रमुख अवयव है जिनमें प्रबन्ध का स्थान सर्वोच्च है ।

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ई.एफ.एल.ब्रेच का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- “इस (प्रबन्ध) शब्द का उचित अर्थ क्या है, यह न तो कभी स्पष्ट हो पाता है और न ही सदैव स्वीकार किया जाता है ।”

निष्कर्ष:

“प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसमें काम को कुशल एवं प्रभावी ढंग से करने के लिए कार्यों के एक समूह (नियोजन, संगठन, नियुक्तिकरण, निर्देशन व नियंत्रण) को सम्पन्न किया जाता है ।”


Essay # 2. प्रबन्ध की विशेषताएं अधवा लक्षण (Characteristics or Features of Management):

प्रबन्ध की उपरेक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने से प्रबन्ध की निन्नलिखित प्रमुख विशेषताएँ प्रकट होती हैं:

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(1) प्रबन्ध एक प्रक्रिया है (Management is a Process):

प्रबन्ध एक प्रक्रिया इस अर्थ में है कि निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्यो को एक अनुक्रम (Sequence) में किया जाता है । प्रबन्ध प्रक्रिया के तत्व हैं: नियोजन, संगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन एवं नियन्त्रण । ये प्रबन्ध के कार्य भी कहलाते है । ये कार्य मिलकर प्रबन्ध प्रक्रिया का निर्माण करते हैं ।

(2) प्रबन्ध एक निरन्तर प्रक्रिया है (Management is a Continuous Process):

प्रबन्ध निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है इसके अन्तर्गत प्रबन्धकों को प्रबन्ध के विभिन्न कार्य (नियोजन, सगठन, नियुक्तियाँ, निर्देशन एवं नियन्त्रण) निरन्तर करने पड़ते हैं तथा इन सभी कार्यों पर एक साथ ध्यान देना होता है ।

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(3) प्रबन्ध एक गतिशील प्रक्रिया है (Management is a Dynamic Process):

प्रबन्ध की प्रक्रिया गतिशील है क्योंकि यह समय, परिस्थितियों तथा वातावरण के अनुसार परिवर्तित होती रहती है ।

(4) प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है (Management is a Social Process):

प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया इस रूप में है कि किसी संगठन में सबसे महत्वपूर्ण तत्व मानव संसाधन होते हैं । इन मानवीय संसाधनों द्वारा ही भौतिक ससाधनों को गतिशील बनाया जाता है और उनका कुशल तथा प्रभावी उपयोग किया जाता है ।

अतएव प्रबन्ध को सामाजिक प्रक्रिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसके द्वारा मानवीय कार्यो को निर्देशित, समन्वित एवं नियन्त्रित किया जाता है । ई.एफ.एल.ब्रेच के शब्दों में, “प्रबन्ध में मानवीय तत्व का होना ही इसे सामाजिक प्रक्रिया का विशेष लक्षण प्रदान करता है ।” इस प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रबन्ध सामाजिक साधनों का सदुपयोग करके मानव कल्याण एवं समृद्धि का प्रयास करता है ।

(5) पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति (To Achieve Pre-Determined Objectives):

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थियो हैमन के अनुसार- “प्रभावशाली प्रबन्ध सदैव “उद्देश्यों द्वारा प्रबन्ध” (Management by Objective) होता है ।” हेन्स एवं मैसी ने लिखा है कि- “बिना उद्देश्यों के प्रबन्ध यदि असम्भव अवश्य होगा ।” इस प्रकार प्रबन्ध के अन्तर्गत समूह के प्रयासों को संस्था द्वारा पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निर्देशित किया जाता है तथा प्रबन्ध की सफलता इन्हीं उद्देश्यों अथवा लक्ष्यों की प्राप्ति पर निर्भर करती है ।

(6) प्रबन्ध एक सामूहिक प्रयास है (Management is a Group Effort):

प्रबन्ध सदैव प्रयासों को महत्व देता है । यह किसी व्यक्ति विशेष पर लागू नहीं होता अपितु किसी समूह के प्रयासों के नियोजन, निर्देशन, संगठन एवं नियन्त्रण की ओर संकेत करता है । इसलिए कूण्ट्ज एवं ओ’ डोनैल ने “औपचारिक संगठित समूहों” (Formally Organised Groups) “लारेंस एप्पले ने “दूसरे व्यक्तियों के प्रयास” (Efforts of Other People), हेयन एवं मैसी ने “सहकारी समूह” (Cooperative Group), रेनोल्ड ने “समुदाय की एजेन्सी” (Agency of Community) आदि शब्दों का प्रयोग किया है । प्रबन्ध को सामूहिक प्रयासों की व्यवस्था इसलिए कहा गया है क्योंकि संगठन के लक्ष्य एवं उद्देश्य किसी एक व्यक्ति की अपेक्षा किसी समूह द्वारा आसानी से तथा प्रभावशाली ढंग से प्राप्त किए जा सकते हैं ।

(7) प्रबन्ध कला एवं विज्ञान दोनों है (Management is an Art as Well as Science):

प्रबन्ध कला भी है और विज्ञान भी । यह कला है क्योंकि इस योग्यता को निरन्तर अभ्यास एवं अनुभव द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । दूसरी ओर, प्रबन्ध विज्ञान भी है क्योंकि आधुनिक समय में इसका व्यवस्थित ज्ञान उपलब्ध है और इसमें अनुमानों और कल्पनाओं के स्थान पर सुनिश्चित सिद्धान्तों, नियमों तथा व्यवहारी को अपनाया जाता है । अत: प्रबन्ध प्राचीनतम कला तथा नवीनतम विकासशील विज्ञान है ।

(8) प्रबन्ध एक पेशा है (Management is a Profession):

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आधुनिक प्रबन्ध-विचारक प्रबन्ध को एक पेशा मानते है । इसके अनुसार प्रबन्ध में वे सभी लक्षण पाए जाते हैं जो किसी पेशे के लिए आवश्यक होते हैं आज प्रबन्ध एक पेशे के रूप में विकसित हो रहा है ।

(9) प्रबन्ध सर्वव्यापी है (Management is Universal):

प्रबन्ध एक ऐसी प्रक्रिया है जो समाज के प्रत्येक मानव संगठन के लिए आवश्यक है, चाहेवहव्यावसायिक हो अथवा गैर-व्यावसायिक । प्रबन्ध प्रक्रिया केवल किसी विशिष्ट कार्य, सस्था अथवा देश तक सीमित न रह कर सभी कार्यो संस्थाओं अथवा देशों में समान रूप से सम्पन्न की जाती है । टेलर के अनुसार- “वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त सभी मानवीय क्रियाओं, अर्थात् एक व्यक्ति की क्रियाओं से लेकर बड़े निगमों पर लागू होते हैं |” इस प्रकार प्रबन्ध के सिद्धान्त सभी प्रकार के सगठनों में सार्वभौमिक रूप से लागू किए जा सकते हैं ।

(10) प्रबन्ध की आवश्यकता सभी स्तरों पर है (Management is needed at all Levels):

प्रबन्ध संगठन के सभी स्तरों पर लागू होता है ।

सामान्यत: प्रबन्ध के तीन स्तर होते हैं:

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(i) उच्चस्तरीय,

(ii) मध्यस्तरीय एवं

(iii) निम्न स्तरीय प्रबन्ध ।

इस प्रकार संस्था के सर्वोच्च अधिकारी या प्रबन्धक से लेकर प्रथम पंक्ति सुपरवाइजर तक को प्रबन्ध कार्य करने पड़ते है ।

(11) प्रबन्ध अधिकार की एक पद्धति है (Management is a System of Authority):

प्रबन्ध अधिकार की एक पद्धति है । अधिकार में, आदेश देने का अधिकार और आदेशों के पालन कराने की शक्ति, दोनों ही तत्व शामिल होते हैं । हरबिसन एवं मायर लिखते हैं कि- “प्रबन्ध वास्तविक अर्थो में नियम बनाने वाली तथा नियम लागकरने वाली संस्था है । वहस्वयं में अधिकारी अधीनस्थ सम्बन्धों के जाल में बन्धी है ।”

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(12) प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है (Management is an Invisible Force):

प्रबन्ध एक अदृश्य शक्ति है जो साधनों के सर्वोत्तम उपयोग में सहयोग करती है । इस शक्ति का ज्ञान प्रयासों की सफलता अथवा असफलता के समय होता है । यदि प्रयास सफल होते हैं तो उसे कुशल प्रबन्ध कहा जाता है और यदि प्रयास असफल होते हैं तो वह अकुशल प्रबन्ध कहलाता है ।

(13) प्रबन्ध तथा स्वामित्व प्राय: भिन्न होते हैं (Management and Ownership are Generally Different):

प्रबन्ध तथा स्वामित्व सदैव एक नही होते अपितु भिन्न-भिन्न होते हैं । प्रबन्धक वर्ग, प्रबन्ध का कार्य करता है परन्तु पूंजीपति वर्ग पूँजी लगा कर स्वामित्व प्राप्त करता है । अतएव यह आवश्यक नहीं है कि उपक्रम का स्वामी ही प्रबन्धक हो । परन्तु लघु व स्रेटे उपक्रमों में स्वामी व प्रबन्धक एक ही व्यक्ति हो सकता है ।

(14) प्रबन्ध एक मानवीय क्रिया है (Management is an Human Activity):

प्रबन्ध विशुद्ध रूप में एक मानवीय क्रिया है जो मानवीय प्रयासों के नियोजन, संगठन निर्देशन, अभिप्रेरणा एवं नियन्त्रण का कार्य करती है । लारेन्स ए.एप्पले का यह कथन सत्य है कि- “प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है, वस्तुओं का निर्देशन नहीं…..|”

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(15) प्रबन्ध एक सृजनात्मक कार्य है (Management is a Creative Function):

प्रबन्ध एक सृजनात्मक कार्य है जो निर्धारित  लक्ष्यों को प्राप्त करने के लि ए साधन जुटाता है, परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाता है, रचनात्मक सम्बन्धों की स्थापना करता है तथा उद्देश्यों को सफलतापूर्वक प्राप्त करता है यह संस्था के साधनी को गति प्रदान करता है ।

(16) प्रबन्ध समन्वयकारी प्रक्रिया है (Management is a Coordinating Process):

प्रबन्ध द्वारा संस्था के मानवीय एवं भौतिक साधनों में समन्वय स्थापित किया जाता है । समन्वय के अभाव में सामूहिक प्रयासों को सही दिशा नहीं दी जा सकती । अत: प्रबन्ध को समन्वयकारी क्रिया कहा जा सकता है ।

(17) प्रबन्ध पारिस्थितिक होता है (Management is Situational):

प्रबन्ध स्थिर न होकर परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तनशील शास्त्र है । संस्था का आन्तरिक एवं बाह्य वातावरण प्रबन्ध को प्रभावित करता है तथा प्रबन्ध से प्रभावित होता है । प्रबन्ध के सिद्धान्त व तकनीकों के प्रयोग में परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन किया जाता है ।

(18) अन्य लक्षण (Other Characteristics):

(i) प्रबन्ध को प्रतिस्थापित (Substitute) नहीं किया जा सकता । इसका स्थान कोई अन्य तकनीक नहीं ले सकती । उदाहरण के तौर पर कम्प्यूटर टेकनोलॉजी व अन्य प्रकार की तकनीकें प्रबन्ध को निर्णय लेने में सहायता तो कर सकती हैं परन्तु उसको प्रतिस्थापित नहीं कर सकतीं । इस प्रकार प्रबन्ध अप्रतिस्थानापन्न है,

(ii) प्रबन्ध साधन है, साध्य नहीं  एवं

(iii) प्रबन्ध विभिन्न विषयों से सम्बद्ध है ।


Essay # 3. प्रबन्ध के उद्देश्य (Objectives of Management):

प्रत्येक मानवीय क्रिया का कोई न कोई उद्देश्य होता है इसका कारण यह है कि जब तक प्राप्त किये जाने वाले उद्देश्य पहले से निश्चित नहीं हों, तब तक उनकी प्राप्ति के लिए अपेक्षित प्रयास नहीं किये जा       सकेंगे ।

उद्देश्य एवं लक्ष्य के निश्चित होने तथा व्यक्तियों के उससे स्पष्टत: अवगत होने पर ही एक निश्चित दिशा में अग्रसर होने एवं एक निश्चित ढंग से कार्य करने में सहायता मिलती है । इस सन्दर्भ में पीटर एफ. ड्रकर (Peter F. Drucker) का यह कथन सर्वथा उपयुक्त प्रतीत होता है, “उद्देश्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में व्यावसायिक उपक्रम के संचालन हेतु आवश्यक उपकरण है इसके अभाव में प्रबन्ध की उड़ान निष्प्रयोजन होगी क्योंकि मार्ग बोध के लिए न तो संकेत चिह्न होंगे न कोई मानचित्र होगा और न ही कोई पूर्व परिचित मार्ग होगा ।”

शताब्दियों पूर्व सेनेका (Seneca) ने भी कहा था- “यदि एक व्यक्ति यह नहीं जानता है कि वह किस बन्दरगाह को जाना चाहता है तो कोई भी हवा उसके अनुकूल नहीं होगी ।”

“प्रबन्धकीय उद्देश्य एक ऐसा अभीष्ट लक्ष्य है जो निश्चित क्षेत्र निर्धारित करता है तथा एक प्रबन्ध के प्रयासों के निर्देशन हेतु सुझाव देता है ।”

जार्ज आर. टैरी द्वारा “प्रबन्धकीय उद्देश्य” की दी गई इस परिभाषा में चार धारणाएँ सम्मिलित हैं:

(i) लक्ष्य (Goal),

(ii) क्षेत्र (Scope),

(iii) निश्चितता (Definiteness) तथा

(iv) निर्देशन (Direction) ।

प्रबन्धक के दृष्टिकोण से सामान्यत: उद्देश्यों से अभिप्राय उन मान्यताओं (Values) से है जिन्हे प्राप्त करना है । किसी भी उपक्रम की इन मान्यताओं का क्षेत्र निर्धारित होना चाहिए जिसमें एक से अधिक अभीष्ट लक्ष्य भी सम्मिलित हो सकते है ।

किसी प्रबन्धक के लिए निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचने के लिए यह आवश्यक है कि प्रबन्धकीय उद्देश्य निश्चित ही । यदि उद्देश्यों को अस्पष्ट तथा द्वि-अर्थ वाले शब्दों में व्यक्त किया जायेगा तो प्रबन्ध की दृष्टि से उनका कोई महत्त्व नहीं होगा क्योंकि उनकी व्याख्या कई प्रकार से की जायेगी जिसके परिणामस्वरूप अस्त-व्यस्तता और अव्यवस्था ही अधिक होगी ।

अन्त में, निर्देशन सामान्य रूप से उद्देश्य में निहित तत्त्व के अपेक्षित परिणामों को स्पष्ट कर देता है तथा इन अपेक्षित परिणामों को सम्भावित लक्ष्यों के समूह से पृथक् करता है ।

उपर्युक्त उद्देश्यों में सुनिश्चितता का अभाव होने के कारण प्रबन्ध अध्ययन हेतु उसके उद्देश्यों को निम्नलिखित चार वर्गो में बाँटा जा सकता है:

(1) प्राथमिक उद्देश्य (Primary Objectives):

बाजार में विक्रय योग्य वस्तुएँ तथा सेवाएँ प्रदान करना प्रबन्ध का प्राथमिक उद्देश्य है । ऐसी वस्तुएँ एवं सेवाएँ प्रदान करने पर उपभोक्ता को वे वस्तुएँ और सेवाएँ प्राप्त होती हैं जो वे चाहते हैं और उपक्रम के सहयोगी सदस्यों को प्राप्त प्रतिफल से उनका पारिश्रमिक मिलना सम्भव हो पाता है । इस प्रकार प्राथमिक उद्देश्य प्रत्येक प्रबन्ध सदस्य द्वारा किये जाने वाले कार्य का निर्धारण करता है ।

प्राथमिक उद्देश्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित को विशेष महत्व दिया जाता है:

(i) ग्राहकों को तुरन्त विश्वसनीय एवं प्रतिस्पर्द्धात्मक वस्तुएँ एवं सेवाएं प्रदान करना ।

(ii) ऊँची किस्म के उत्पादों (Products) एवं सेवाओं को ऐसे मूल्य पर बेचना जो राष्ट्र के सर्वोत्तम हित में हों ।

(iii) ग्राहकों में यह विश्वास जमाना कि विक्रय की जाने वाली वस्तुओं एवं दवाओं का उत्पादन नवीन एवं आधुनिकतम विधि से किया गया है ।

(2) सहायक उद्देश्य (Secondary Objectives):

सहायक उद्देश्य प्राथमिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करते हैं । वे उन प्रयत्नो के लिए जो कार्य निष्पादन में कुशलता एवं मितव्ययिता में वृद्धि करने हेतु निर्धारित किये जाते हैं, लक्ष्यों से अवगत कराते  हैं । विश्लेषण, परामर्श एवं व्याख्या जैसे लक्ष्य सहायक उद्देश्यों के उदाहरण हैं । इन उद्देश्यों को योगदान इस अर्थ में अप्रत्यक्ष माना जाता हैकि वे प्राथमिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किये गये प्रयत्नों में सहायता पहुँचाते हैं । प्राथमिक उद्देश्यों की तरह सहायक उद्देश्यों की प्रकृति भी अव्यक्तिगत होती है ।

(3) व्यक्तिगत उद्देश्य (Personal Objectives):

इन उद्देश्यों का अभिप्राय संगठन के सदस्यों के निजी एव व्यक्तिगत उद्देश्यों से है । ये उद्देश्य प्राथमिक एव सहायक उद्देश्यों के अधीन होते हैं अर्थात् प्राथमिक एवं सहायक उद्देश्यों की पूर्ति होने पर ही व्यक्तिगत उद्देश्यों या तो आर्थिक लक्ष्य तथा मौद्रिक पारिश्रमिक या भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति सम्बन्धी लक्ष्य होते हैं या मनोवैज्ञानिक यथा-अपने व्यक्तिगत साधनों के प्रयोग के प्रतिफल के रूप में अपेक्षित प्रतिष्ठ, मान्यता या गैर-वित्तीय पुरस्कार हो सकते हैं ।

इन आवश्यकताओं को कोई व्यक्ति एक संगठन के अन्तर्गत कार्य करते समय सन्तुष्ट करने का प्रयास करता है । संगठन द्वारा प्रदान की जाने वाली अभिप्रेरणाओं और व्यक्तिगत योगदान का आत्म-निर्भर होना अत्यन्त कठिन है ।

(4) सामाजिक उद्देश्य (Social Objectives):

सामाजिक उद्देश्यों का अभिप्राय एक संगठन के समाज के प्रति लक्ष्यों एवं दायित्वों से है । इसके अन्तर्गत वे कर्तव्य सम्मिलित होते है जो किसी भी संस्था के लिए समाज द्वारा निर्धारित किये जाते हैं, यथा: स्वास्थ्य, सुरक्षा, श्रम के साथ अच्छा व्यवहार, मूल्य नियन्त्रण आदि सम्बन्धी सामाजिक कर्तव्य इसके अतिरिक्त, इन कर्तव्यों में वे कर्तव्य भी सम्मिलित होते हैं जिनका लक्ष्य सामाजिक तथा भौतिक विकास करना तथा वांछनीय सामाजिक कार्यो में योगदान प्रदान करता होता है ।

इस सम्बन्ध में यह ध्यातव्य है कि व्यावसायिक उपक्रम अपने प्राथमिक उद्देश्यों को प्राप्त करने की प्रक्रिया में सम्बन्धित सामाजिक वर्गो के हितार्थ आवश्यक आर्थिक सम्पत्तियों का निर्माण करते हैं और रोजगार की व्यवस्था तथा वित्तीय सहायता प्रदान करते है ।

प्रबन्ध के मुख्य सामाजिक उद्देश्य की सूची में निम्न को शामिल किया जा सकता है:

(i) रोजगार के अवसर उपलब्ध करवाना,

(ii) वातावरण को दूषित होने से बचाना, तथा

(iii) जीवन-स्तर के सुधार में योगदान देना ।

उदाहरण के लिए, स्टील अथॉरिटी ऑफ इण्डिया अपने स्टील प्लाण्टों के आस-पास रहने वाले लोगों के लिए कृषि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की नियमित रूप से व्यवस्था करवाती है ।

एक व्यावसायिक उपक्रम के प्रबन्ध को सम्पूर्ण समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि उपक्रम समाज का ही एक अंग होता है । समाज से अलग न तो उसका कोई अस्तित्व होता है और न ही सामाजिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति किये बिना वह जीवित रह सकता है । समाज का एक अभिन्न अंग होने के कारण प्रबन्ध को समाज की सेवा को दृष्टिगत रखकर अपने उद्देश्य निर्धारित करने चाहिए व्यावसायिक उपक्रम समाज के हितार्थ वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति करने पर ही समाज में जीवित रहने का दावा कर सकते हैं ।

अत: प्रत्येक व्यावसायिक संस्था के प्रबन्ध का लक्ष्य प्रत्येक ऐसी वस्तु या सेवा की व्यवस्था करने के लिए प्रयत्न करना है जो समाज के लिए उत्पादक एव आवश्यक हो तथा जो समाज को सुदृढ़ एव समृद्धशाली बनाये इस आधार पर ही यह कहा जाता है कि, वस्तुत: प्रबन्ध के सामाजिक उत्तरदायित्व में सामान्य जनता के प्रति दायित्व की भावना निहित है । अत: प्रबन्ध को समाज की सेवा के सम्बन्ध में अपने उद्देश्यों को निर्धारित करना चाहिए जिससे कि वह अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति कर सके ।


Essay # 4. भारत में प्रबन्ध का महत्व (Importance of Management in India):

भारत जैसे विकासशील देश में प्रबन्ध की आवश्यकता तथा महत्व अत्यधिक है । कारण यह है कि देश के साधन तो सीमित हैं किन्तु जनसंख्या की आवश्यकता अत्यधिक व नाना प्रकार की है । ऐसी परिस्थितियों में केवल कुशल व अनुभवी प्रबन्धक ही सीमित साधनों का सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण उपयोग कर सकते हैं ।

हिदुस्तान लीवर्स लि. के भूतपूर्व अध्यक्ष पी.एल.टंडन के अनुसार- “हम देख चुके हैं कि श्रम पूँजी एवं कच्चे माल से स्वयं विकास नहीं हे जाता है । इसके लिए प्रबन्धकीय ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है जिससे अधिकान्निक परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं । जहाँ पर साधनों का अच्छा प्रबन्ध क्या है, वहाँ परिणाम भी अच्छे प्राप्त हुए हूँ…|” स्वर्गीय राजीव गाँधी के शब्दों में- ”भारत न्यूनतम समय में आमुनिकतम तकनीकी ज्ञान प्राप्त करना चाहता है । इस दिशा में आज प्रबन्ध की सर्बाधिक महत्ता है ।”

हमारे देश में पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से आर्थिक विकास किया जा रहा है इन योजनाओं के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए बड़ी संख्या में कुशल प्रबन्धकों की आवश्यकता है । अत: भारत में “पर्याप्त मात्रा में कुशल प्रबन्धकों का अभाव ही योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी व अकुशलता का कारण रहा है ।”

हमारी सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र (Public Sector) में अरबों रुपयों का विनियोग किया है किन्तु कुप्रबन्ध के कारण वांछित परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सके है । इनमें अधिकतम का आज विनिवेश (Disinvestment) किया जा रहा है । इस प्रकार आई.ए.एस. अधिकारी सार्वजनिक उपक्रमों का कुशल ढंग से प्रबन्ध करने में अयोग्य एवं असफल सिद्ध हुए हैं अतएव इनके स्थान पर केवल कुशल एवं योग्य प्रबन्धक ही इन सार्वजनिक उपक्रमों का सफल प्रबन्ध संचालन कर सकते हैं ।

भारत में प्रबन्धकों का अभाव है । एक अनुमान के अनुसार इंग्लैंड प्रबन्ध एव कर्मचारी अनुपात 1:12 है; अमेरिका में यह अनुपात 1:17 है, जबकि भारत में यह अनुपात 1:100 है । इस प्रकार भारत को अपने आर्थिक विकास की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनेक प्रबन्धकों की भविष्य में आवश्यकता होगी । अतएव प्रबन्धकों की कमी को दूर करने के लिए तुरन्त प्रभावशाली कदम उठाने होंगे ।

देश की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग गरीबी रेखा से नीची जीवनयापन कर रहा है, आर्थिक जीवन में अकुशलता भ्रष्टाचार, निम्न उत्पादकता आदि का बोलबाला है । ऐसी स्थिति में भारत में प्रबन्ध का सर्वाधिक महत्व है ।

निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि यदि भारत का तीव गति से आर्थिक विकास करना हैतो प्रबन्धकीय क्रान्ति लानी ही होगी तथा आर्थिक विकास में प्रबन्ध के महत्व को स्वीकारना होगा ।


Essay # 5. प्रबन्ध का क्षेत्र (Scope of Management):

प्रबन्ध एक व्यापक क्रिया है जो सभी क्षेत्रों  में जहांमनुष्य मिलकर कार्य करता है, महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यही कारण है कि प्रबन्ध के कार्य क्षेत्र में व्यक्तिर्यो का परिवार आता है, तो क्लब भी मन्दिर-मस्जिद आती है तो स्कूल कॉलेज भी, खेलकूद के मैदान आते हैं तो सांस्कृतिक रंगमंच भी, खेतखलिहान है, तो युद्ध का मैदान भी, व्यवसाय है तो उद्योग भी । निजी सस्थाएँ हैं तो सार्वजनिक संस्थान भी ।

टेलर के अनुसार- “वेज्ञानिक प्रबन्ध के मूल सिद्धान्त सभी मानवीय क्रियाओं पर सरलतम व्यक्तिगत कार्यो से लेकर महान् निगमों तक के कार्यो पर लागू होते हैं ।” इसी प्रकार हेनरी फेयोल ने भी कहा है कि- “प्रबन्ध एक सार्वभौमिक विज्ञान है जो वाणिज्य, उद्योग, राजनीति, धर्म, युद्ध और जन-कल्याण सभी स्थानों पर समान रूप से लागू होता है ।”

इस प्रकार, प्रबन्ध एक सार्वभौमिक शब्द है और इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है अतएव प्रबन्धकीय क्रियाओं की कोई सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती, क्योंकि इन्हें एक सीमा में बाँध देना इनके क्षेत्र को संकुचित करना होगा ।

(1) प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र (Functional Areas of Management):

इंग्लैंड के शिक्षा मंत्रालय की एक समिति (Committee on Education for Management) ने अपनी रिपोर्ट में व्यावसायिक प्रबन्ध को 9 वर्गो में बाँटा है जो प्रबन्ध के क्रियात्मक क्षेत्र के नाम से जाने जाते हैं ।

ये निम्न प्रकार से हैं:

(i) उत्पादन प्रबन्ध (Production Management):

प्रबन्ध की इस शाखा के अन्तर्गत उत्पादन की मात्रा, उत्पादन की सामग्री का प्रबन्धन, डिजाइनिंग, उत्पादन-नियोजन, कार्य-विश्लेषण, गुण नियन्त्रण, उत्पादन किस वस्तु का करवाना है तथा कब करवाना है, आदि क्रियाओं को शामिल किया जाता है ।

(ii) वित्तीय प्रबन्ध (Financial Management):

इसके अन्तर्गत वित्तीय अनुमान लगाना, वित्तीय नियोजन करना, वित्त के विभिन्न स्त्रोतों का पता लगाना एवं वित्त एकत्र करना तथा वित्त के सर्वोत्तम उपयोग को सम्भव बनाना वित्तीय नियन्त्रण करना आदि कार्य आते हैं ।

(iii) सेविवर्गीय प्रबन्ध (Personnel Management):

प्रबन्ध की यह शाखा कर्मचारियों की भर्ती, चयन, प्रशिक्षण, कार्य-मूल्यांकन, योग्यता-अंकन, श्रम कल्याण, पदोन्नति, अवनति, सेवा निवृति, स्थानान्तरण, सामाजिक सुरक्षा, दुर्घटनाओं को रोकना, कार्य-दशाओं में सुधार, विवादों के निपटारे, औद्योगिक सम्बन्धों में सुधार, पारिश्रमिक आदि कार्यों को अपने क्षेत्र में शामिल करती है ।

(iv) विकास प्रबन्ध (Development Management):

इसके अन्तर्गत औद्योगिक एवं तकनीकी शोध व अनुसन्धान सामग्री व संयन्त्रों में अन्वेषण, वस्तु-विकास, उपभोक्ता की माँग आदि आते हैं ।

(v) वितरण प्रबन्ध (Distribution Management):

इसे विपणन प्रबन्ध भी कहा जाता है । इसके अन्तर्गत वस्तुओं के विक्रय विज्ञापन, विक्रय-संबर्धन बाजार-शोध, विक्रय शाखाओं की स्थापना व संचालन, वितरण-शृंखलाओं के चयन, विक्रय-शक्ति-प्रबन्ध, वस्तु का मूल्य निर्धारण करना, आन्तरिक बाजार एवं निर्यात व्यवस्था करना आदि आते हैं ।

(vi) परिवहन प्रबन्ध (Transport Management):

इसके अतिरिक्त माल की पैकिंग करना, माल के संग्रहण (Ware Housing) की स्थापना करना तथा परिवहन के विभिन्न साधनों जैसे: रेल, सड़क, वायु, जल आदि का चुनाव करना आदि आते है । प्रबन्ध की यह शाखा माल एवं व्यक्तियों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर कम व्यय और कम समय में सुरक्षित पहुँचाने से सम्बन्ध रखती है ।

(vii) क्रय प्रबन्ध (Purchase Management):

इसके अन्तर्गत वस्तुओं के सप्लायर्स (Suppliers) से निविदा (Tender) मांगना, माल का आदेश देना, माल क्रय करना, माल का रख-रखाव तथा सामग्री-नियन्त्रण करना आदि आते हैं ।

(viii) संस्थापना अधवा अनुरक्षण प्रबन्ध (Maintenance Management):

इसके अन्तर्गत भवन, संयत्र, मशीनों व अन्य सामग्री (Equipments) का रख-रखाव तथा उनकी उचित देखभाल करना आता है ।

(ix) कार्यालय प्रबन्ध (Office Management):

इसके अन्तर्गत पत्र व्यवहार करना सूचना प्राप्त करना तथा प्रेषण करना संस्था के भीतर सम्पर्क शृंखला बनाए रखना, प्रपत्रों व दस्तावेजों की देखभाल करना, रिकार्ड रखना आदि कार्य आते हैं ।

(2) प्रबन्ध के गैर-क्रियात्मक क्षेत्र (Non-Functional Areas of Management):

आधुनिक प्रबन्धक प्रबन्ध के निम्नलिखित गैर-क्रियात्मक क्षेत्रों को भी प्रबन्ध के क्षेत्र के अन्तर्गत ही शामिल करते है ।

ये निम्नलिखित हैं:

(i) पर्यावरण प्रबन्ध (Environment Management)

(ii) प्रतिरक्षा प्रबन्ध (Defence Management)

(iii) शिक्षण एवं प्रशिक्षण प्रबन्ध (Educational and Training Management)

(iv) तकनीकी प्रबन्ध (Technology Management)

(v) जनोपयोगी सेवाओं का प्रबन्ध (Management of Public Utilities)

(vi) परिवर्तन का प्रबन्ध (Management of Change)

(vii) संघर्ष का प्रबन्ध (Management of Conflict)

(viii) पर्यटन प्रबन्ध (Tourism Management)

(ix) नवाचार का प्रबन्ध (Management of Innovation)

पीटर एफ. ड्रकर के अनुसार प्रबन्ध के क्षेत्र में तीन प्रबन्धकीय कार्य शामिल हैं जो इस प्रकार हैं:

(i) व्यवसाय का प्रबन्ध करना

(ii) प्रबन्धकों का प्रबन्ध करना,

(iii) कर्मचारियों का प्रबन्ध करना,

निम्नलिखित क्रियाएँ भी प्रबन्ध के क्षेत्र में शामिल की जाती हैं:

(i) नियोजन,

(ii) संगम,

(iii) नियुक्तियां,

(iv) निर्देशन,

(v) समन्वय तथा

(vi) नियन्त्रण ।


Essay # 6. प्रबन्ध के सिद्धान्त (Principles of Management):

प्रबन्ध के सिद्धान्तों को क्रमबद्ध करने का प्रयास अनेक विद्वानों ने किया है परन्तु हेनरी फेयोल प्रथम प्रबन्ध विशेषज्ञ थे जिन्होंने प्रबन्ध के विकास के लिए सिद्धान्तों की आवश्यकता को अनुभव किया । इसके अतिरिक्त चैस्टर बर्नार्ड (Chestor Barnard), ब्राउन (Brown), जॉर्ज टैरी (George Tarry) आदि विद्वानों ने भी प्रबन्ध के सिद्धान्तों के महत्व को स्वीकार किया है ।

सिद्धान्त वे आधारभूत सत्य (Fundamental Truth) होते हैं जो किसी कार्य के कारण एवं परिणाम (Cause and Effect) रूपी सम्बन्धों की व्याख्या करते हैं । कूण्ट्ज तथा ओ’ डोनेल के अनुसार- शबन्धक्रीय सिद्धान्त सामान्य मान्यता के आधारभूत सत्य हैं जो प्रबन्धकीय कार्यो के परिणाम की भविष्यवाणी करने की उपयोगिता रखते हैं ।

विभिन्न प्रबन्ध-चिन्तकों ने वर्षों के अनुभव, शोध व परीक्षण के आधार पर अनेक प्रबन्धकीय सिद्धान्तों की रचना की है । प्रबन्ध के सिद्धान्त प्रबन्धकों को उनके कार्यो के सम्पादन में मार्गदर्शन करते हैं । प्रबन्ध के सिद्धान्तों की प्रकृति लोचशील है । ये समय एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनीय है ।

चूँकि प्रबन्धकीय कार्यों का सम्पादन एक गतिशील वातावरण में किया जाता है और इसमें मानवीय तत्व की केन्द्रीय भूमिका होती है, इसलिए प्रबन्ध के सिद्धान्त भौतिक विज्ञान के सिद्धान्तों की भाँति बेलोच (Rigid) या ब्रह्‌म वाक्य (Absolute) न होकर गतिशील तथा लोचशील होते हैं प्रबन्ध के अधिकतर सिद्धान्त सभी प्रकार के सगठनों में लाए किये जा सकते है ।

सभी जगहों पर सभी देशों व संस्कृतियों में प्रयोग किए जा सकते हैं, परन्तु फिर भी इन्हें सांस्कृतिक परम्पराएँ तथा आर्थिक विकास का स्तर प्रभावित करता है । इस सम्बन्ध में हेनरी फेयोल का कथन उल्लेखनीय है कि, प्रबन्ध क्रे सिद्धान्त स्थिर नहीं होते बल्कि लोचपूर्ण होते हैं जिनका प्रयोग बदलती हुई विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रख कर किया जाना चाहिए । प्रबन्ध के सिद्धान्त विकास की स्थिति में है इनका विकास निरन्तर व्यापक होता जा रहा है । पुराने सिद्धान्त अनुभव की कसौटी पर कसे जा रहे हैं तथा नये सिद्धान्तों का विकास हो रहा है ।

उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि:

(i) प्रबन्ध के सिद्धान्त सार्वभौमिक हैं (Universality of Principles) ।

(ii) प्रबन्ध के सिद्धान्तों की प्रकृति गाहशाल है (Dynamic Nature of Principles) ।

(iii) प्रबन्ध के सिद्धान्तों में मानवीय व्यवहार की केन्द्रीय भूमिका होती है (Central Role of Human Behaviour on Principles) ।

(iv) प्रबन्ध के सिद्धान्त सापेक्ष होते  हैं न कि निरपेक्ष (Principles of Management are Equally Relative, not Absolute) अर्थात् ये संस्था में आवश्यकतानुसार परिवर्तन करके लागू किए जा सकते हैं ।

(v) प्रबन्ध के सभी सिद्धान्तों का संस्था में समान महत्व होता है (All Principles of Management are Equally Important) तथा संस्था के विकास में सभी सिद्धान्तों का समान रूप से महत्वपूर्ण भूमिका होती है ।

महत्व (Importance):

जॉर्ज टैरी के शब्दों में- “एक प्रबन्ध के लिए प्रबन्ध के सिद्धान्तों का जमना महत्व है जितना कि एक सिविल इन्जीनियर के लिए स्ट्रेन्थ सारणी का ।” थियो हैमन (Theo Haimann) ने भी प्रबन्ध के सिद्धान्तों के महत्व का इस प्रकार वर्णन किया है, “एक प्रबन्धक का कार्य सरल हो जाता है तथा उसकी कार्यकुशलता व प्रभावशीलता में वृद्धि हो जाती है, यदि वह प्राप्त विभिन्न प्रबन्धकीय सिद्धान्तों को समझता है तथा उनका उचित प्रयोग करता है । सिद्धान्तों तथा धारणाओं का ज्ञान प्रबन्धकों की शक्ति तथा श्रम में पर्याप्त बचत करता है तथा प्रबन्धकों को जटिल परिस्थितियों में से निकलने में मार्गदर्शन करता है ।”

अतएव, प्रबन्ध में इनका महत्व निम्न कारणों से है:

(i) प्रबन्ध के सिद्धान्तों के प्रयोग से प्रबन्धकों की कार्यकुशलता तथा प्रभावशीलता में वृद्धि होती है ।

(ii) प्रबन्धक का कार्य सरल हो जाता है ।

(iii) प्रबन्ध के सिद्धान्तों के आधार पर प्रबन्ध प्रक्रियाएँ क्रमबद्ध तथा स्पष्ट हो जाती हैं । “व्यवस्थित तथा अनुभव सिद्ध सिद्धान्तों के अभाव में प्रबन्ध शास्त्र का ज्ञान खोखला तथा अधूरा रह जाएगा ।”

(iv) प्रबन्ध के सिद्धान्त प्रबन्धकों की शक्ति तथा श्रम में पर्याप्त बचत करते हैं तथा उन्हें जटिल परिस्थितियों में से निकालने में मार्गदर्शन करते हैं ।

(v) प्रबन्ध के सिद्धान्तों के प्रयोग से समाज के मानवीय तथा भौतिक संसाधनों का कुशल प्रयोग किया जा सकता है ।


Essay # 7. प्रबन्ध की सीमाएं (Limitations of Management):

प्रबन्ध प्राकृतिक विज्ञानों की तरह शुद्ध विज्ञान नहीं है । यह एक सामाजिक विज्ञान है । इसलिए इसके सिद्धान्त पूरी तरह से सार्वभौमिक नहीं माने जा सकते । प्रबन्ध में मानवीय तत्व की प्रधानता इसे अपूर्ण विज्ञान बनाती है ।

प्रबन्ध की सीमाएँ अथवा आलोचनाएँ निम्नलिखित हैं:

(1) प्रबन्धकों द्वारा अपने हितों का पोषण (Managers are Actuated by Self-Interest):

प्रबन्धक वर्ग अपने निजी-हितों को सर्वोपरि रखते हैं । इसके पश्चात् वे संस्था व समाज का हित देखते हैं । वे ऊँचे वेतन व पद पाने के लालच में सामाजिक उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करते हैं, जबकि उससे आशा यह की जाती है कि वे उपक्रम के सभी पक्षों के हितों में सन्तुलन बनाए रखेंगे ।

(2) प्रबन्ध मनुष्यों से सम्बन्धित है (Management is related to Human Beings):

प्रबन्ध की यह महत्वपूर्ण सीमा है कि यह मनुष्यों से सम्बन्धित है । अत: इसका सम्बन्ध विभिन्न  वर्गों के व्यक्तियों जैसे- ग्राहकों, कर्मचारियों, व्यापार के स्वामियों, सरकारी अधिकारियों आदि से होता है जिनका व्यवहार व प्रवृत्तियों भिन्न-भिन्न होती है क्योंकि मानवीय व्यवहार परिवर्तनशील है, इसलिए प्रबन्ध-व्यवहार भी परिवर्तनशील होता है लीवर शैल्डन के अनुसार- “जहाँ भी मानव से सम्बन्ध होगा, प्रबन्ध विज्ञान के सिद्धान्त व्यर्थ सिद्ध हो सकते हैं ।”

(3) बाह्य वातावरण का प्रबन्ध पर प्रभाव पड़ता है (External Environment Affects the Management):

प्रबन्धकीय निर्णयों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक वातावरण भी महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं । कई बार प्रबन्धक उन्हें अपने अनुरूप बनाते हैं तो कई बार उनके अनुरूप ढलना पड़ता है ।

(4) नौकरशाही को प्रोत्साहन (Incentive to Bureaucracy):

प्रबन्ध की चौथी सीमा यह कि इसके अन्तर्गत प्रबन्धक अन्य व्यक्तियो से कार्य करवाते हैं । इसके लिए उन्हें एक नौकरशाही तन्त्र (Bureaucratic Set up) का निर्माण करना पड़ता है । जैसे-जैसे संगठन का आकार बढ़ने लगता है वैसे-वैसे इस नौकरशाही के दोष उजागर होकर सामने आने लगते हैं ।

(5) प्रबन्ध की कुशलता तथा प्रभावशीलता के मापने की उचित तकनीक का अभाव (Lack of Proper Technique for Measuring Managerial Efficiency and Effectiveness):

हालांकि पीटर एफ. ड्रकर ने यह जरूर कहा कि प्रबन्ध की कार्यकुशलता तथा प्रभावशीलता को जांचने के लिए यह देखा जाना चाहिए कि प्रबन्धक किस सीमा तक अपनी संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति करते हैं । परन्तु इसके लिए कोई निश्चित परिमाणात्मक तकनीक उपलब्ध नहीं है ।

(6) संगठन के उद्देश्यों तथा दर्शनों में भिन्नता (Diversity in Organisational Objectives and Philosophies):

यद्यपि प्रबन्ध के सिद्धान्त काफी हद तक सार्वभौमिक होते हैं परन्तु प्रत्येक संगठन के उद्देश्यों व दर्शनों में भिन्नता हो सकती है । प्रत्येक उपक्रम अपनी मान्यताओं व विचारों के अनुरूप प्रबन्धकीय क्रियाओं को करते देखे जा सकते है ।

(7) प्रबन्ध के सिद्धान्तों का लचीलापन (Flexibility in the Principles of Management):

प्रबन्ध की प्रमुख सीमा यह है कि इसके सिद्धान्त स्थिर नहीं है । वे गतिशील हैं, लचीले हैं । इन्हें परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तित किया जा सकता है तथा संगठन की प्रकृति के अनुसार इनमें परिवर्तन करना पड़ सकता है ।


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